रामटेक में विराजमान संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी ने प्रतिभा स्थली के बच्चों के सांस्कृतिक कार्यक्रम के पश्चात कहा कि – एक बालिका ने कहा कि भूगोल ही क्या हम इतिहास बदल देंगे तो हमें भूगोल में जो विक्रतियाँ आ गयी है उनको हटाना है। हमें सीखना है किसी कि शिकायत नहीं करना है। शिक्षा सिखने के लिये होती है और जो दिक्षित होते हैं उन्हे अंतरंग में उतारने में कारण होती है।
‘‘जहाँ न पहुँचे रवि वहाँ पहुँचे कवि और जहाँ न पहुँचे कवि वहाँ पहुँचे आत्मानुभवि’’।
देश में परिवर्तन हो जाये, वे
साधु को यह प्रषिक्षण दिया जाता है कि आप व्यापार कर रहे हो यदि अचानक कुछ हो जाये तो सावधानी से अंतिम समय अच्छे से निकल जाये। रत्नात्रय ऐसा माल है जो कोई लूट नहीं सकता यदि लूट ले तो माला – माल हो जायेगा। दुनिया छूट जाये तो कोई बाधा नहीं लेकिन रत्नात्रय नहीं छूटना चाहिये। संसार रूपी महान वन से पार कर देते हैं। आना इतना महत्वपूर्ण नहीं जितना जाना है। अपनी – अपनी इन्द्रियों को चोर के समान समझो वेल्कम नहीं वेल गो के बारे मे ंसोचो। पाॅंच इंद्रिय और मन के द्वारा आप लूट रहे हैं। जो इंद्रियों का दमन करते
एक विशाल भवन में बहुत सारे बच्चों की व्यवस्था की गयी थी। बच्चों को जैसे संकेत मिलता था हजारों की आवाज आ रही थी। ताली बजाने का संकेत मिलते ही एक साथ ताली बजाने लगे। 700 बालिकायें हैं प्रतिभा स्थली में और संकेत मिलते ही 1400 हांथों से तालियाँ बजने लगी। छोटे बच्चे समझने के बाद भूलते नहीं। यह सुरभि दिगंतर तक फैल सकती है और प्रभाव डाल सकती है। कल्याण की जो भावना रखता है वह व्यवस्थित कार्य करे। आप लोग प्रतिभा स्थली से आये हैं, पहले प्रतिभा है बाद में स्थल है। प्रतिभा एक स्थान पर रूकती नहीं प्रवाहित हो
लोभ के कारण अपने कुटुम्बियों की और अपनी भी चिन्ता नहीं करता उन्हें भी कष्ट देता है और अपने शरीर को भी कष्ट देता है। साधक के दर्षन बडे़ पुण्य से मिलते हैं, महत्व समझ में आ जाये तो महत्व हीन पदार्थ छूट जायेगा। परिणामों की विचित्रता होती है। निरीहता दुर्लभता से होती है। परिग्रह कम करते जाओ निरीहता बढ़ाते जाओ। जिसको हीरे की किमत मालूम है वह तुरंत नहीं बेचता है। जो लोभ कषाय से रहित है उसके शरीर पर मुकुट आदि परिग्रह होने पर भी पाप नहीं होता अर्थात् सारवान् द्रव्य का सम्बन्ध भी लोभ के अभाव में बन्ध का
थोड़ा सा असंयम संयम की शोभा को कम कर देता है। जैसे बकरी का बच्चा सुगन्धित तेल भी पिये फिर भी अपनी पूर्व दुर्गन्ध को नहीं छोड़ता। उसी प्रकार दीक्षा लेकर भी अर्थात् असंयम को त्यागने पर भी कोई – कोई इन्द्रिय और कषाय रूप दुर्गन्ध को नहीं छोड़ पाते। मन से कभी समझौता नहीं करना क्योंकि वह गिरा देगा। मन को छोड़ भी नहीं सकते हैं उससे काम भी लेना है। पँचेन्द्रियों से वषीभूत हुआ प्राणी क्या – क्या नहीं करता है। कषाय का उद्वेग संज्ञी पंचेन्द्रिय में ही है। हम आदी हो गये है, काला अक्षर भैंस बराबर। श्वेत पत्र
सुप्रसिद्ध साधक श्रमण शिरोमणि दिगम्बर जैन आचार्य श्री विद्यासागर जी ने गर्भस्थ शिशु के वध को घृणित, तिरस्कृत अधोकर्म बताते हुए कहा कि होनहार संभावना का जन्म से पूर्व ही अन्त कर दिया जाता है। शोधों से ज्ञात होता है कि यह दुष्कृत्य अपेक्षाकृत शिक्षित समुदाय द्वारा अधिक अनुपात में किया जाता है। श्रीमान हो, विद्वान हो अथवा सामान्य हो सभी इस कर्म से बचें, इस दुष्कर्म को त्यागें। इन वचनों को सुनते ही अमरकण्टक के सर्वोदय तीर्थ सभागार में उपस्थित हजारों श्रोताओं ने भ्रूण हत्या से बचने का संकल्प लिया।
तीव्र कषाय वाले के पास जाने से लोग डरते हैं। यह इन्द्रियों की दासता की कहानी की आदत पड़ी है। दूसरों के बारे में तो अचरज करता है लेकिन अपने बारे में अचरज नहीं करता। आपका इतिहास लाल स्याही से लिखा गया है वह पाँच पाप सहित है। करोड़पति होकर भी रोड़पति बन गये है। दरिद्रता रखो लेकिन कषाय की दरिद्रता रखो। ख्याति, पूजा, लाभ मिलने से कई लोगों के खून में वृद्धि हो जाती है। यह रस आत्मा को नहीं मन को मिलता है। डॉ. मान, सम्मान की खुराक नहीं दे पाते हैं। लागों को मान की खुराक होती है तो कहते हैं कि अखबार में
सुप्रसिद्ध सन्त शिरोमणि दिगम्बर जैनाचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी ने रमणिक स्थल अमरकण्टक में बताया कि सुख की प्रतिक्षा में दुख सहते जीवन बीत जाता है। सुख की अभिलाषा दुख सहने की क्षमता बढ़ा देती है, संसार दुख की खान है जिसमें सुख हीरा की एक कणिका के समान है।
संसार में दुख बहुत बाधा देता है यदि सुख की चाह न हो तो दुख सहन नहीं होता, यह समझाते हुए आचार्य श्री विद्यासागर जी ने कहा कि सुख एक अनुभूति है। सुख की अभिलाषा में दुख सह रहे हैं तो यह सुख ही तो दुख दे रहा है, क्या है यह सुख-दुख? राग द्व
उत्थान का आधार क्रमिक विकास है, गति, प्रगति तदोपरान्त उन्नति सोपान है। छलांग लगाकर प्रमाण-पत्र प्राप्त किया जा सकता है, योग्यता प्राप्त नहीं होती। भारत की श्रमण साधना के उन्नायक, प्रख्यात विचारक दिगम्बर जैनाचार्य श्री विद्यासागर जी ने अमरकण्टक में यू.एन.आई. की दिल्ली ब्यूरो प्रमुख सहित अन्य चिन्तनशीलजनों की जिज्ञासाओं का समाधान करते हुए सामाजिक, ऐतिहासिक, शैक्षिक सन्दर्भों में उपरोक्त मत व्यक्त कर बताया कि पाश्चात्य दृष्टि से आंकलन करने की अपेक्षा अपने गौरवशाली अतीत के दर्पण में देखना चाहिए।
सुप्रसिद्ध सन्त शिरोमणि दिगम्बर जैनाचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी ने अमरकण्टक में वचन – बल का बोध कराते हुए कहा कि अल्प वचन से पर्याप्त प्रभाव उत्पन्न हो जाता है, अधिक शब्द प्रयोग की आवश्यकता नहीं। सत्य वचन में अहिंसा की आराधना समाहित रहती है। वचन ऐसे हों जिससे किसी प्राणी का जीवन न रूके। शब्दों के अनुरूप अंगों – उपांगो की मुद्रा हो जाती है।
आचार्य श्री विद्यासागर जी ने शब्द, अर्थ और भाव का महत्व बताते हुए कहा कि जिस वचन से हिंसा की संभावना हो वह सत्य वचन नहीं है, सत्य वचन से प्रत्येक प्र
तपोनिधि, ज्ञान वारिधि, साधना षिरोमणि दिगम्बर जैन आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी ने मैकल पर्वत माला के षिखर अमरकण्टक में कहा कि औषधि का आधार वनस्पति है, संसार की प्रत्येक वनस्पति औषधि गुण युक्त है, वनस्पति के विनाष से औषधि भी नष्ट हो जाती है। ताल (वृक्ष) में पल्लव, कोपल, लता, छाल, जड़ आदि सभी निहित है। सरल हृदय से निकली बोली व्याकरण युक्त सुसंस्कृत भाषा से अधिक प्रभावी है यह समझाते हुए बताया कि छुआ – छूत की भावना एक बीमारी है जो कि ‘स्टैन्डर्ड’ वृद्धि प्रतिस्पर्धा की देन है।
आचार्य श्री वि
सन्त षिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने रमणीक स्थल अमरकण्टक में संस्कृति और विकृति के मध्य भेद का बोध कराते हुए कहा कि विकृति की उपासना कर मानव मन भटक रहा है। संस्कृति की उपासना कर मानव महामानव बन गया। मानव से महामानव बनने का क्रम विष्वास – आस्था से आरंभ होता है। प्रयोग की बताते हुए कहा कि खोज इसके आधार पर ही होती है।
दिगम्बर जैनाचार्य श्री विद्यासागर जी ने बताया कि अठारह दोषों से रहित आत्मा ही भगवान है। आस्था और विष्वास के बल पर प्रयोग किया, साधना कर दोष मुक्त होकर मुक्ति को प्राप
अमरकण्टक में विराजमान सन्त षिरोमणि दिगम्बर जैनाचार्य श्री विद्यासागर जी ने कहा कि स्व प्रषंसा, पर आलोचना ध्यान में नहीं लाना एक साधना है। वचनों की व्याख्या करते हुए बताया कि वचन से विस्फोट हो जाता है, अप्रिय वचन अर्पित वचन नहीं है। परस्पर आरोप प्रत्यारोप में व्यस्त पक्ष विपक्ष से राष्ट्रीय पक्ष पीछे रह जाता है।
आचार्य श्री विद्यासागर जी ने षिष्य, साधकों एवं श्रोताओं को समझाते हुए कहा कि कौन से वचन कथनीय है कौन से नहीं, वचन व्यक्त करने के पूर्व विचार कर लेना चाहिए। अपने कथन पर ध्यान नहीं पर
सुप्रसिद्ध सन्त षिरोमणि दिगम्बर जैनाचार्य श्री विद्यासागर जी ने मैकल शैल षिखर पर उपस्थित समुदाय को सम्बोधित करते हुए कहा कि सजग श्रोता वक्ता की कठिनाई पकड़ लेता है, शब्दों की यात्रा कान तक तथा भाव की मन तक होती है। भावों का महत्व बताते हुए समझाया कि भावाभिव्यक्ति के लिए शब्दों की अनिवार्यता नहीं है, मौन और संकेत से भी भाव व्यक्त हो जाते हैं।
आचार्य श्री विद्यासागर जी ने कहा कि शब्द के अभाव में संकेत अच्छी तरह काम कर देता है। शीतल हवाओं के प्रभाव से शारीरिक क्षमता प्रभावित हो जाती है। अधिक ठण्ड
अकलतरा: उक्त बातें जैन समाज के संत षिरोमणि आचार्य श्री 108 विद्यासागर महाराज ने धर्मसभा को संबोधित करते हुए बालक प्राथमिक शाला में कही। उन्होंने कहा कि दूसरों का वैभव देखकर हम अपना हाथ मलते हैं तथा ईष्या करते हैं। हम पुरुषार्थ के द्वारा जीवन में तरक्की एवं आगे बढ़ सकते हैं। इससे हमें अपना हाथ नहीं मलना पड़ेगा। हम भाग्य भरोसे रहकर पुरुषार्थ पर विष्वास नहीं करते एवं दूसरों को अपनी हाथ की रेखा दिखाने का कार्य करते हैं एवं दूसरे व्यक्ति पर बातचीत से हल नहीं निकलने पर अपना हाथ उसपर छोड़ देते हैं, जो
रायपुर राजधानी के टैगोर नगर में इन दिनों धर्म की अमृतधारा बह रही है। यहां संत शिरोमणी आचार्य गुरूवर 108 विद्यासागर जी महाराज ससंघ विराजमान है। आचार्य श्री विनय अपने मंगल प्रवचन में एक दृष्टांत सुनाते हुए कहा कि फल फुल से आता है, और फुल वृक्ष में उत्पन्न होता है। और वृक्ष की उत्पत्ति बीज से होती है, बीज फल से प्राप्त होता है। इस तरह यह चक्र चलता रहता है, बीज से वृक्ष, वृक्ष से फूल, फूल से फल और फल से पुनः बीज प्राप्त होता है। उन्होने श्रावको से सवाल किया इस चक्र को कोई तोड़ सकता है क्या तो सभी ने
आज को नहीं देखा तो आज और कल दोनों हाथ से निकल जाएंगे
जगदलपुर, 07 जनवरी। राष्ट्र संत शिरोमणी आचार्य विद्यासागरजी ने कहा कि जिस तरह स्टेशन में ट्रेन आ रही हो और हल्लागुल्ला हो रहा हो रहा है और रेडियो, टीवी भी चल रहा हो उसी समय किसी का मोबाईल आ जाये तो केवल उससे ही संपर्क होता है उसी तरह संत मुनि, श्रुति व ग्रंथों के माध्यम से पूर्व में घटी घटनाओं और विषयों को जान लेते हैं और उसका आनंद लेते हैं। दुकान पर हम आज नगद कल उधार लिखते हैं, लेकिन ग्राहक से ऐसा नहीं कह सकते। कल का कोई स्वरूप तो हमने दे
राष्ट्र संत जैनाचार्य विद्यासागरजी ने कहा कि वीतराग प्रभु को देखकर हमारे भाव शुद्ध होते हैं। मुनिराज भी पूज्य होते हैं, इनकी उपासना के महात्मय को चक्रवर्ती भरत और बाहुबली की कथा सुनाते हुए कहा कि अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने के लिए दोनों बाहुबल से लड़ रहे थे, किंतु सब कुछ जीतने बाद भी बाहुबली ने अपना सर्वस्व त्याग कर बैराग्य धारण कर लिया। उन्होंने कहा कि दर्पण हमें हमारी कमियां दिखाता है। हम अपनी कमियों को दूर कर भगवान की भक्ति पूजन करें, यही संदेश हमें प्रभु से मिलता है।
आकांक्षा लॉन में दो
आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने कहा कि आज विवाह का उद्देश्य बदल गया है। प्राण ग्रंथों में कथायें आती हैं पहले ब्रम्हचर्य व्रत का पालन करते थे, गुरूकुल पद्धति से शिक्षा होती थी संस्कार दिये जाते थे, आज शिक्षा का स्तर बिगड़ गया है।
समवशरण विधान के छटवें दिन राष्ट्रीय संत छत्तीसगढ़ के राजकीय अतिथि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने एक कथा सुनाते हुए उन्होंने कहा कि एक लड़का शुक्ल पक्ष और लड़की कृष्ण पक्ष ब्रम्हचर्य व्रत ले लेते हैं और आजीवन निभाते हैं। आचार्य श्री ने दिल्ली के कलाकारों द्वार
राष्ट्र संत आचार्य विद्यासागरजी महाराज ने कहा कि जैन धर्म भावों पर आधारित है। भावों से ही व्यक्ति का उत्थान और पतन होता है। जैन धर्म की परिभाषा बताते हुए उन्होंने कहा कि जैन वह होता है जो मन और इंद्रियों पर विजय पाता है। इंद्रियों को जीतना ही संयम है और संयम व्यक्ति के सच्चे सुख के लिए आधार प्रदान करता है। स्थानीय होटल आकांक्षा के लान में दिगम्बर जैन समाज द्वारा आचार्य विद्यासागर के सानिध्य में चल रहे समवशरण चैबीसी विधान में राष्ट्रीय संत के रूप में एवं गणधर परमेष्ठि के पद पर आसीन गुरूवर ने अपने
प्रातरूकाल उठते ही सबसे पहली जरुरत आदमी को अग्नि की होती है। चाहे वह पानी गरम करने के लिए हो अथवा भोजन बनाने के लिए या फिर प्रकाश करने के लिए, हर कार्य के लिए अग्नि की जरुरत होती है। उसी प्रकार से धन पर भी नियंत्रण रखना अतिआवश्यक होता है। यदि धन आने के बाद उस पर नियंत्रण नहीं किया गया तो वह भी विनाश का कारण बनता है। यहां प्रवास कर रहे आचार्य श्री विद्यासागर महाराज ने एक जनसभा को स्थानीय जैन दिगम्बर मंदिर में प्रवचन करते हुए उक्त बातें कहीं।
उन्होंने आगे कहा कि यदि सीमा से अधिक अग्रि
भगवान की भक्ति से भक्त अपने आप को स्वयं भगवान बना सकता है। इसी उद्देश्य को लेकर आगामी तीस दिसंबर से आठ जनवरी तक छत्तीसगढ़ के बस्तर अंचल के मुख्यालय जगदलपुर में चैबीसी समवशरण विधान का आयोजन हो रहा है।
आचार्य श्री विद्यासागर महाराज ने नगर में होने वाले इस विश्व शांति महायज्ञ और चैबीसों जैन तीर्थंकरों की पूजा का महत्व प्रतिपादित करते हुए कहा कि यह पुण्य अवसर है कि समूचे भारत वर्ष में तीसरे स्थान पर यह विशेष अनुष्ठान का आयोजन हो रहा है। इसके लिए सीमित समय में बस्तर के दिगंबर जैन समाज ने
चंद्रगिरि डोंगरगढ़ छत्तीसगढ़ में विराजमान दिगम्बर जैन आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी ने कहा कि साक्षात महावीर भगवान आज नहीं है लेकिन उनके द्वारा बताया हुआ मार्ग तो है। यह धारा अनादि अनिधन है। जिनेन्द्र भगवान के द्वारा दिया हुआ यह चिन्ह है। यहाँ व्यक्ति की पूजा नहीं व्यक्तित्व की पूजा होती है। मुद्रा घर की नहीं रहती है, देष के द्वारा छपती है, उसके लिये सभी मान्यता देते हैं। विदेश की मुद्रा से यहाँ व्यापार नहीं होता है उसके लिये करेन्सी को कन्वर्ट करना पड़ता है। जीवन का निर्वाह नहीं निर्माण करन
चंद्रगिरि डोंगरगढ़ छत्तीसगढ़ में विराजमान दिगम्बर जैन आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी ने कहा कि आज के दिन प्रभु को मुक्ति मिली उनका निमित्त पाकर असंख्य जीवों का कल्याण हुआ है। आज प्रातः हमने वर्षायोग का निष्ठापन किया है। प्रतिभा स्थली बनाने की भावना छत्तीसगढ़ वालों की बहुत अच्छी है और वे अच्छा प्रयास भी कर रहे हैं। इसमें बहुत लोगो ने सहयोग किया है। अभी हमने आग्रह स्वीकार नहीं किया है। प्रतिभा स्थली की रेंज कहाँ तक है यह अभी ज्ञात नहीं होगा। ज्ञान को सर्वगत कहा है, शिक्षा से जिंदगी क्या अगला
चंद्रगिरि डोंगरगढ़ छ्त्तीसगढ़ में विराजमान दिगम्बर जैन आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी ने कहा कि दुर्जन से की गई मित्रता हितकर नहीं होती दुःख दायक होती है। कोई रूधिर से सने हुए वस्त्र को रूधिर से ही धोता है तो वह विषुद्ध नहीं होता है। उसी तरह वह आलोचना शुद्धि दोष को दूर नहीं करता। जिन भगवान के वचनों का लोप करने वाले और दुष्कर पाप करने वालों का मुक्ति गमन अति दुष्कर है। यदि उपचार नहीं कर सकते मरहम पट्टी नहीं कर सकते तो डण्डा तो मत मारो उस रोगी को। मैत्री उससे करो जो समय पर काम दें। सभा उसी का ना