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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. संसारी प्राणी यात्रा कर रहा है, जिस प्रकार आप लोग कुछ पाथेय लेकर यात्रा करते हैं, उसी प्रकार यह प्राणी भी अपनी यात्रा में कुछ कमाता कुछ खर्च करता है। अनादि से सुख की खोज के लिए जन्म मरण कर भ्रमण करता है। अनेक बार इसने कुछ पाथेय लेकर यात्रा की किन्तु उस पाथेय का स्वाद इसे नहीं आया सुख का अनुभव नहीं किया। दुख क्यों हो रहा है, सुख क्यों नहीं ? इसके लिए कहा है - दाम बिना निर्धन दुखी, तृष्णा वश धनवान। कहीं न सुख संसार में, सब जग देख्यो छान ॥ संसार में कहीं सुख नहीं है, सब जगह देखा, दुख का ही अनुभव किया। कुछ अपने आपको धनवान समझते हैं। जिन्होंने सुख प्राप्त कर लिया है, उनका अनुभव है कि जब तक धन नहीं, तब तक दुख होता है और तृष्णा वश जो धनवान है, वह भी इतना ही दुखी है कि जितना निर्धन होता है। अन्त में यही कहना पड़ा कि संसार में सुखी कोई नहीं है। कहा है कि - चक्री बने, सुर बने, तुम सर्वभौम, पे अंत में फल मिला, सुख का विलोम। जो अग्नि में सहज शीतलता कहाँ है, जो उष्णता धधकती रहती वहाँ है ॥ हम शीतलता के लिए जा रहे हैं, पर अग्नि के सामने शीतलता की अनुमति नहीं होगी। स्वर्गीय सम्पदा व चक्रीपने में भी सुख का अनुभव नहीं हुआ, तो यहाँ पर धन को लेकर सुख का अनुभव कैसे हो सकता है? पर धर्म को न चाहने वाला तथा धन को चाहने वाला यहाँ भी दुखी है तथा आगे भी दुखी ही रहेगा, वह तृष्णा वश दु:खी है। जैसे भूख लग रही हो तो एक आधा घण्टा भूखा और रहा जा सकता है, पर रोटी का टुकड़ा दिखा दे तो भूख ज्यादा बढ़ जायेगी। तृष्णा वश धनी ज्यादा दुखी हो जाता है। धन के उत्पादन में दुख है उसके संवर्धन में दुख है। पानी अन्दर आता है तो कम गति से तथा बाहर ज्यादा तेज गति से जाता है। धन भी उसी प्रकार आते वक्त धीरेधीरे कम मात्रा में आता है, पर जाते वक्त अधिक मात्रा में जल्दी-जल्दी जाता है, तो दुख होता है। धन के उपासक के आर्त-रौद्र परिणाम हो जाते हैं, खाना-पीना सोना भी छूट जाता है। यह जन्म-मरण आज का व्यवसाय नहीं किन्तु बहुत दिन का है। यह निश्चित मानो वह घड़ी आने वाली है, जिस दिन शरीर छूटेगा, परन्तु उसके पूर्व पुरुषार्थ करना है। जो मरण को प्राप्त करता है तो वह जन्म भी धारण करेगा कहा है कि ‘मरता है तो मर जा, जीते जी कुछ कर जा”। कुछ न कुछ करना है, पर धन का संचय नहीं। हम अपनी परम्परा को छोड़ने को तैयार नहीं है। हम जानते हैं कि फलाना आदमी मर गया हमारा भी नंबर आएगा। मरण तो निश्चित है, पर जीवन में करने की नहीं सोचते। जिनको यह विश्वास हो जाये तो फिर 'स्वार्थ त्याग की कठिन तपस्या बिना खेद जो करते हैं, ऐसे ज्ञानी साधु जगत के दुख समूह को हरते हैं।” जीवन में खुद के दुख को मिटाते हुए दूसरों के दुख को, तड़फन को मिटाने की चेष्टा करें। जब तक जीवन है, तब तक करें, मौत आने पर तो वह रुकेगी नहीं। काल भी पूर्व सूचना देकर आता है। जब तक सुरक्षित है तब तक काम कर लो। काल पर विजय प्राप्त करो, कुछ करके बताओ। मरना निश्चित है, उसके उपरांत जीना भी है। जन्म मरण छूटे, इसके लिए दुख दूर करने के लिए यही रास्ता है कि जीवन को अपने पीछे लगावें। धर्म को आदर्श को सामने रखें, धन को पीठ पीछे रखें। ऐसा कोई भी नहीं है जो धन-धन नहीं कहता है। धन के अर्जन व उसके संवर्धन के लिए आप बहुमूल्य समय को लगा देते हैं और मरण का आह्वान करते हैं, मरण के पास जाते हैं। धर्म के संवर्धन से काल धीरे-धीरे सरकता है, आयु बढ़ जाती है। प्राय: सभी को काल की चेतावनी Warning मिलती है। बाल सफेद हो जाना यह 1st Warning है। काले भी थोड़े ही रहते हैं। दूसरे दांतों का टूटने लगना है, आज कल इसे छिपाने के लिए नकली दांत भी लगा लेते हैं। तीसरी चेतावनी आँखों से कम दिखना है, इसके लिए भी चश्मा लगा लेते हैं। फिर कमर झुकने लगती है और लकड़ी भी हाथ में ले ली जाती है। काल अब जल्दी करता है, अत: ऐसा कार्य करो कि जिससे जन्म-मरण की प्रणाली का सत्यानाश हो जाये, तब जीवन रहेगा। जन्म जीवन नहीं है, अत: रहने की आपको आशा है, पर मरने की नहीं। जो जन्म की सुरक्षा नहीं करता वह मरण से नहीं डरता। जीवन को धन के लिए न बेची। जीवन निर्माण के लिए समय देंगे तो वह निर्माण, मुक्ति, पाथेय का काम करेगा। आप लोग समय-समय पर उस सामग्री को बटोर रहे हैं, जिससे दुख की ही वृद्धि हो रही है, सुख का नाम नहीं है। हरेक क्षेत्र में हरेक समय देखा, पर सुख नहीं मिला।कहा भी है कि - ना नीर के मंथन से नवनीत पाते। अक्षण्ण कार्य करते थक मात्र जाते ॥ नीर के मंथन से थक जाएँगे, हाथ दुखने लगेगा, पर नवनीत नहीं मिलेगा। वह घड़ी आने वाली है जब शरीर छूटेगा। अत: ऐसे कार्य, पुरुषार्थ करो, स्वार्थ त्याग की कठिन तपस्या करो प्रेरणा मेरी होगी। आप प्रेरणा प्राप्त करते हुए भी लाभ नहीं उठा रहे हैं, वास्तविक मूल्यांकन नहीं करते हैं। दुनियाँ पर संकट न आवे, जब यह भाव जागृत हो जायेगा, तभी वस्तु तत्व को देख सकेंगे। जब यह भाव नहीं, तब तक धन के भाव तथा धन की लहर रहेगी। हम धन को गौण कर धर्म की बात करें। जब दूसरों पर संकट नहीं तब दुख का अनुभव नहीं होगा। आप जितने-जितने दुख को दूर करेंगे तभी समझो कि धर्म रूपी तीर्थ में प्रयास कर रहे हैं। मात्र धर्म की ओर दृष्टि रखकर कार्य करेंगे तो कर्म का क्षय होगा, धर्म के चिह्न मिलेंगे, अन्दर की शक्ति बाहर आएगी। आत्मा की ओर दृष्टिपात करो, तभी आनन्द की अनुभूति होगी।
  2. मैं आप लोगों को महावीर के पथ की ओर आकर्षित करना चाहता हूँ। महावीर का यह तीर्थ बहुत विशद उदार है, इसको प्राप्त कर कोई पावन हुए बिना नहीं रहेगा। इस तीर्थ से ही देवदानव, मनुष्य व तिर्यञ्चों का उद्धार हुआ है। जिस प्रकार महावीर ने अपने आपके जीवन को समृद्धशाली, अपूर्ण से पूर्ण बनाया, उसी प्रकार हमें भी बनाना है। नदी की भांति है महावीर का तीर्थ, जो कोई भी आता है तो उसे अपनी चीज दे देता है। तभी उपयोग में भी चेतनता आ जाती है। महावीर के तीर्थ से उपयोग निर्मल से निर्मलतर, निर्मलतम् हो जाता है। गुरु की अनुपस्थिति में (पात्र के न होने पर) महावीर की दिव्य ध्वनि नहीं खिरी। गुरु के उपदेश स्वयं के लिए नहीं थे, किन्तु दुनियाँ के लिए थे। लोगों ने समझा कि महान् विभूति दुनियाँ के लिए ही होती है। गाये भैसे चारा खाकर मीठा-मीठा दूध प्रदान करती हैं। शुष्क भोजन खाकर मिष्ठ दूध देती है। नदी नाले पहाड़ों, चट्टानों से टकराकर, बहकर दुनियाँ को मीठा जल प्रदान करते हैं। पेड़ पौधे भी सर्दी गर्मी सहकर दूसरों को छाया प्रदान करते हैं। सज्जनों के वित्त वैभव भी दूसरों के उपकार के लिए होते हैं। उपकार का अर्थ संकट का निवारण है। संकट के निवारण के लिए जो महान् आत्माओं के द्वारा कार्य किया जाता है वह उपकार कहलाता है। जो भूखा नहीं है, उसके पास जलेबी भी रख दो, तो वह उपकार नहीं है। सम्पति भिन्न-भिन्न प्रकार की है। दुनियाँ की सम्पत्ति एक तरफ और महावीर की सम्पत्ति एक तरफ है। महावीर की सम्पत्ति की कीमत सबसे ज्यादा होगी। तीन लोक की सम्पदा आ जाए तो भी तुलना नहीं की जा सकती। महावीर में अलौकिक शक्ति जो प्रादुभूत हुई उसे उन्होंने दुनियाँ के लिए समर्पित की। वे उस ओर बढ़े और दुनियाँ को रास्ता मिला। निर्वाण का अर्थ जीवन का निर्माण है। जीवन जब तक निर्मित नहीं, जीवन में विकास नहीं होता है तो जीवन जीवन नहीं कहलाता। दुनियाँ के निर्माण में महावीर का उपासक आनन्द का अनुभव करेगा, भले ही खुद का उपकार हो या न हो। धर्म के भाव जितनी मात्रा में होने चाहिए, उतने तो नहीं हैं, फिर भी धर्म के भाव लोगों में हैं। यही आगे जाकर महावीर जैसे बनेंगे। पौधे में धीरे-धीरे ही छाया के भाव, फलों के चिह्न प्रादुभूत हो जाते हैं। इस २५००वें निर्वाणोत्सव से दुनियाँ का उद्धार होने का समय आ गया है। ऐसी-ऐसी अनोखी बातें हो रही हैं, जो पूर्व में अन्तराल में सुनने में नहीं आई। राष्ट्र व राज्यों की ओर से महावीर के संदेश को मान्यता मिल जाना कोई मजाक या खेल नहीं। ऐसी विषम स्थिति में भी जहाँ ५५ से ७० करोड़ की आबादी है, वहाँ २५०० साल बाद भी महावीर के संदेश राष्ट्र के लिए प्रेरणास्पद हैं। जब राष्ट्र को मंजूर है, तो प्रजा भी वही बातें मंजूर करेगी, उसी अनुरूप चलेगा। भाव निक्षेप तो अन्तिम है, पर नाम निक्षेप तो हो ही जायेगा। महावीर के नाम लेने वाले संदेश अच्छे लग गये, इसका मतलब हित निहित है। महावीर तो कल्याण कर चले गये, पर उनके तीर्थ द्वारा भी अरबों जीवों का कल्याण हो रहा है। वृषभनाथ को भी अहिंसा धर्म प्रचार करने के लिए जितना समय मिला उससे भी ज्यादा समय महावीर को मिला। चतुर्थ काल में २४ तीर्थकर अपेक्षित हैं। महावीर को चतुर्थ, पंचम व फिर पंचम काल अहिंसा प्रचार हेतु मिला। साढ़े इक्यासी हजार वर्ष उपरांत तीर्थकर का जन्म होगा। महावीर भगवान को महत्व ज्यादा देंगे। हम महावीर के पक्ष की तरफ हो जाएँ तो सम्यक्त्व बिगड़ेगा भी नहीं। महावीर का बहुत कम समय में बहुत ज्यादा उपदेशों का प्रचार हुआ। उपशम सम्यक्त्व तो थोड़े काल के लिए होता है। क्षयोपशम सम्यक्त्व में शांतिनाथ शांति के कर्ता पाश्र्वनाथ विध्न के हर्ता हैं, ऐसा विकल्प हो सकता है फिर भी यह विकल्प सम्यक्त्व के लिए घातक नहीं है। महावीर के तीर्थ में ही हम पीड़ा को दूर कर रहे हैं उन्होंने जो उपकार किया, वह याद रहेगा, चिरस्मरणीय रहेगा। हमको सोचना है कि दूसरों की मदद भी करना है, महावीर से मदद लेकर। गिरा हुआ व्यक्ति गिरे हुए को नहीं उठा सकता। महावीर ने अपने जीवन को पतित से पावन बनाया। आज तक हमारी ऐसी भावना नहीं हुई। मन, वचन, काय, कृत-कारित अनुमोदना से नहीं चाहा कि हमारा उद्धार हो तथा साथ ही साथ दूसरे का भी उद्धार हो। आप तो महावीर के उपासक कहलाते हैं तो यह परम कर्तव्य है कि दुनियाँ के दुख दूर करें। महावीर के निर्वाणोत्सव में ऐसे कार्य (प्रभावना) करो कि आने वाली पीढ़ी व आज की संतान को राह मिल सके। विचार साकार हो जाये अपने आपको धन्य समझो कि इस समय आपका जन्म हुआ। आगे आने वाली पीढ़ी को ऐसी सामग्री नहीं मिलेगी, ऐसे कार्य करने के लिए। धीरे-धीरे धार्मिक वृत्तियों का अध:पतन हो रहा है। प्रलयकाल में धार्मिक वृत्तियों का अभाव होता जाता है, धार्मिक बातों का ह्रास होने लगता है। धर्म कर्म नष्ट होता है। हमारा जीवन अच्छा है कि ये बातें अभी नहीं हैं। महावीर ने जो राह बताई, वह हमें अक्षुण्ण मिल रही है। आप किसी भी स्थिति में रहे, कहीं भी रहें, यह भाव हो- कि सुखी रहे सब जीव जगत के कोई कभी न घबराये, बैर पाप अभिमान छोड़ जग नित्य नये मंगल गावें- ये भाव इतने उज्ज्वल हैं कि पैसे से प्रभावना की जरूरत नहीं। मात्र मन में महावीर को याद रखते हुए ये भाव धारण करेंगे तो आपको भी शांति मिलेगी। व अड़ोसी-पड़ोसी को भी शांति मिलेगी। मन में विकार नहीं हो तो तन में भी विकार नहीं होता है। दुखी जीवों को देखकर यह भाव हो कि कब ये सुखी बनेंगे। इसीलिए केवल ज्ञान की वाणी प्रामाणिक है कि वहाँ राग द्वेष का अभाव है। दूसरे को डर लगे, उस प्रकार की बातें नहीं करनी चाहिए। मन में शब्दों में और कार्य में कोमलता हो तो फिर निर्वाणोत्सव भी सार्थक हो जायेगा। डॉक्टर वैद्य जीने की आशा न भी हो तो भी वे रोगी को यह नहीं कहते कि तुम्हारी बीमारी ठीक नहीं होगी। वह यही कहता है कि तुम जल्दी-जल्दी ठीक हो जाओगे, ऐसा कहने पर रोगी का १२ आना रोग चला जाता है। रोगी को अभय मिल जाता है। अत: आप भी यही भावना भाओ कि अभय हो, दुनियाँ का कल्याण हो....।
  3. अभी आपने सुकौशल महाराज की प्रेरणास्पद कथा क्षुल्लकजी द्वारा सुनी। जब कभी भी मैं इस कथा को सुनता हूँ, तो मेरा वैराग्य बढ़ जाता है, पर आपको वैराग्य क्यों नहीं होता? राजकीय सम्पदा को छोड़कर, सुकुमार शरीर की ओर ध्यान न देते हुए सुकौशल महाराज ने वैराग्य को अपनाया। जीव का हित-अहित निष्कषाय और कषाय पर निर्भर है। इस संसारी प्राणी का हित धर्म के अलावा तथा अहित अधर्म (पाप) के अलावा किसी में नहीं है। जब निष्कषाय भाव जागृत हो जाएँगे, तब सारी पर्यायें नष्ट हो जाएँगी। धर्म के आधार से श्वान भी विकास को प्राप्त होकर पूज्य बन जाता है, पर यदि श्रेष्ठ पुरुष भी कषायी हो जाये तो नीच बन सकता है। आत्मा का हित अहित किसमें है ? यह विचारो कि आत्मा के अहित विषय-कषाय और हित वैराग्य ज्ञान है। आप कषायों को अच्छा और निष्कषाय को कष्ट का कारण मानते हैं। जब आप को यह विश्वास हो जाएगा कि राग द्वेष जो कर रहे हैं, वे दुख का कारण हैं, तो आप लोग राग-द्वेष कषाय को छोड़ देंगे। विषय को विष के समान और कषाय को कसाई के समान जब समझ लेंगे, तो जिस प्रकार आप जहर (विष) और कसाई से दूर रहने की कोशिश करते हैं। उसी प्रकार विषय कषाय से दूर रहने की चेष्टा करेंगे। तभी आत्मा पर विश्वास कर प्रभु के बताए पथ पर अग्रसर होंगे। आप सुकौशल मुनि की कथा को सुनकर वैराग्य नहीं बढ़ाते। दुर्लभतम नर जन्म मिला इसमें भोग विलास की ही बातें हो तो जीवन में अन्धकार ही बढ़ेगा। भेद ज्ञान होने पर ही वह अन्धकार मिटेगा। आपने वीतराग पथ को दुख का मूल ही माना, लेकिन अब इसे सुख का कारण समझने पर भी इसे पकड़ने की चेष्टा नहीं कर रहे हैं। जिस प्रकार बच्चा बार-बार दीपक को पकड़ना चाहता है, लेकिन एक बार दीपक से हाथ जल जाने पर वह दीपक को नहीं पकड़ना चाहेगा। आपका हाथ अभी जला नहीं विषय रूपी दाह से इसीलिए आनन्द का अनुभव कर रहे हैं। जिस प्रकार दाद खुजली को खुजाने पर पहले तो मजा आता है, पर बाद में ज्यादा खुजाने पर खून भी निकल जाता है, बीमारी बढ़ जाती है। इसी प्रकार विषय कषाय दुख की ओर ले जाते हैं। कहा भी है कि- पर्याय को क्षणिक को लख मूढ़ रोता, सामान्य को निरखता, बुध तुष्ट होता। विज्ञान की विकलता दुख क्यों न देगी, तृष्णा न क्षार जल से मिटती बढ़ेगी। आप समझते हैं कि विषयों से तृष्णा नहीं बढ़ेगी। अगर १ किलो जल में १ किलो नमक मिला दे तो उसे पीने से प्यास नहीं बुझेगी। विषयों का विमोचन कर विषयों को मिटा सकते हैं। २ दिन तक तो भूखे व्यक्ति को भूख लगेगी उसके बाद भूख नहीं लगेगी। रोटी खाने से मात्र २-४ घण्टे भूख मिटा सकते हैं। विषयों को भोगेंगे तो तृष्णा बढ़ेगी। अग्नि में ईधन डालने पर अग्नि बुझेगी नहीं, उद्दीप्त होगी। कर्म के उदय से फल मिटता है, उसमें वीतरागी, समता के धारक हर्ष-विषाद नहीं करते। खारे जल से प्यास मिटेगी नहीं, उद्दीप्त होगी। आप लोग समझते हुए भी नहीं समझ रहे हैं। एक बार विज्ञान जागृत हो जाएगा तो भी ज्यादा कहने की जरूरत नहीं। आपको एक बार भी अनुभव हुआ कि विषय विष के समान है। सामने वाले को गुस्सा तभी आता है, जब विरोध होता है। चुप रहने पर सामने वाला भी चुप होकर बैठ जायेगा। जब तक आपको नरकों की वेदना याद नहीं आती, तब तक विषय कषाय छूटते नहीं। भेदविज्ञान के उपरांत व्यक्ति विषय कषाय की तरफ नहीं जाता। अगर जाना भी पड़े तो जिस प्रकार आप घृणा योग्य स्थान पर नाक पकड़ जल्दी वहाँ से जाना चाहेंगे, उसी प्रकार वह भी जाएगा। यह लोभी जीव वैराग्य दृश्य को देखकर भी विषयों की ओर ही जाता है। मनुष्य गति मिलने पर भी भेद विज्ञान न हो तो कुछ नहीं होता। विषयों में बहुत मजा मानता है, ठण्डी-ठण्डी लहर का अनुभव करता है। मोह का साम्राज्य तब तक होता है, जब तक अच्छे को बुरा और बुरे को अच्छा मानता है। जिनेन्द्र भगवान हैं, स्वाध्याय के लिए शास्त्र है, पर परिणति विषय कषायों की ओर जा रही है, अत: विषयों में आसक्ति कम होनी चाहिए। एक बार अन्दर से चिंगारी बाहर आ जाये, भेद विज्ञान जागृत हो जाये तो मोह रूपी अन्धकार नहीं रहेगा। मोह मद पी रखा है, तभी दूसरे ने आप पर अधिकार जमा रखा है। ज्योत्सना जगे, तम टले नव चेतना है, विज्ञान-सूरज छटा तब देखना है। देखे जहाँ परम पावन है प्रकाश, उल्लास हास, सहसा लसता विलास। विज्ञान रूपी सूर्य के उदय होने पर जीवन में बसन्त-सी बहार आ जाती है, सुख का अनुभव होने लगता है। जिसके जीवन में ऐसा प्रकाश नहीं है, वह कहीं भी चला जाये उसे अन्धकार ही मिलेगा। अन्धे के सामने अन्धेरा है, सवेरा देखने के लिए उसके पास आँखें नहीं है। ये यन्त्र, शास्त्र वैराग्य के दृश्य हैं। बोध आ जाये तो क्रोध मिट जाएगा। आपमें क्रोध की बाढ़ आ रही है, विषय को भोगने की आकांक्षा है। प्रतिकूल वस्तु को अनुकूल मत समझो, अपनी दृष्टि को मांजो। जब तृष्णा में विकास होगा तो विज्ञान की विकलता दुख ही देगी, जीवन में रुदन रहेगा। क्योंकि उसका ज्ञान जब विपरीत है तो उसके विपरीत फल मिल रहा है। अज्ञान दुख का मूल कारण है, विज्ञान सुख का कारण है। हेय को छोड़ना होगा और उपादेय को पाना होगा। सही रास्ते पर लग जायें तो समझो भेद विज्ञान हो गया। विषय-कषायों से मुख मोड़ो तभी आत्म-दर्शन होगा वरना तो दुख ही दुख है।
  4. विदाई बेला पर आचार्य समन्तभद्राचार्य जी कहते हैं कि अनादि से मिथ्या अंधकार फैला है आत्मा की शक्ति लुप्त हो रखी है, उसको प्रकाशमान करने के लिए ही महान् आत्माओं का जन्म लेना होता है। स्व के साथ पर का उद्धार भी होता है। जब तक संसार में प्राणी रहता है, तब तक दूसरे के लिए ही कार्य होता है। एक बार वीतराग विज्ञानता आ जायेगी तो सभी जीवों के दुख दूर हो जाएँगे, उन्हीं के विचारों के अनुरूप तथा गुरुवर्य आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज का आशीर्वाद यह बल देता है कि स्व पर कल्याण हो, जीवन का यही लक्ष्य बना रहे। मिथ्यांधकार का नाश हो, प्रकाश का अन्त न हो, मल दोष न हो, शक्ति नष्ट न हो। हम अनन्त शक्ति के धारक बनें, दुनियाँ को मार्ग मिले। अन्धकार वही है जो मिथ्या है। भ्राँति महान् खतरे की चीज है। विपरीत बुद्धि संसार में दुख देने वाली है। महाराज श्री ने अन्तिम समय में यहीं इसी जिले में जीवन व्यतीत किया, उनके पार्थिव शरीर का विमोचन भी इसी जिले में हुआ, चातुर्मास भी इसी जिले में हुए। लोगों का भाग्य था तब ही आचार्य श्री का यहीं रहना हुआ। यहाँ के लोगों का भाग्य है कि मैंने दूर जाकर भी यहाँ चातुर्मास किया। अब आपको जीवन के लक्ष्य के बारे में सोचना चाहिए। धर्म ध्यान व प्रभावना की दृष्टि से अजमेर जिला उत्कृष्ट है। इस अजमेर क्षेत्र में मुझे धर्म ध्यान हुआ, उसे मैं भूल नहीं सकता। नदी के पानी के रुकने पर पानी के स्वाद में कमी आ जायेगी। बादल एक जगह रहेंगे तो एक बार बरसकर रुक जाएँगे बारिश नहीं होगी। बादलों के हवा के द्वारा आगे जाने पर नये बादल आएँगे और बरसात होगी। नवीनता आती जाएगी, उत्साह बढ़ता जायेगा। अभी जीवन का वास्तविक मौलिक, पुनीत अवसर आया है, जिसे प्राप्त करने के लिए आपने बहुत प्रयत्न किया होगा। २५००वें निर्वाणोत्सव के लिए कहीं विरोध नहीं है। जहाँ भी कार्य हो रहे हैं, अद्भुत हो रहे हैं। शक्ति को न छिपाकर इसी में लगाना है। यह मुझे विश्वास है कि आप अपनी पूरी शक्ति इसमें लगाएँगे। एक साल तक कार्यक्रम चलाते रहे तो जीवन भर चलाने की कोशिश करेंगे इससे अलौकिक प्रभावना होगी। आपका भी अवश्य कल्याण हो जाएगा। महावीर के गुणगान, कीर्ति, यश फैलाने के लिए जीवन के अन्तिम समय तक व्यस्त रहें। मैंने गुरु महाराज के परोक्ष में २ चातुर्मास किए, मैं अन्त में उनको याद करता हूँ और यह दोहा कहता हूँ। तरणि ज्ञानसागर गुरो, तारो मुझे ऋषीश। करुणा कर करुणा करो, कर से दो आशीष।
  5. यदि मोक्षमार्गी बने रहना चाहते हो तो आठ प्रकार के मद, जो कि आप लोगों को मोक्ष मार्ग से स्खलित करने वाले हैं, उनसे दूर रहें। आठवाँ मद शरीर को लेकर है। प्राय: लोग शारीरिक सुरक्षा के लिए मद करते हैं। वपु यानि शरीर कहा है। शरीर की कीमत है या आत्मा की कीमत है, इसके बारे में सोचना है। शरीर तो शरारती है, पर आत्मा के पास गुण है, वह शरीफ है। शरीर को वही व्यक्ति महत्व देता है जो वास्तविक आत्मा का विकास नहीं करना चाहता है। अनादि से बंधन का अनुभव जो हो रहा है, वह शरीर को लेकर है। आत्मा को दुख शरीर के कारण है। शरीर का होना ही संसारी प्राणी के लिए दुख का मूल है। शरीर पृथक् होने पर आत्मा मुक्त हो जाता है। जो शरीर को लेकर मद करेगा, वह मुक्ति नहीं चाहेगा। वह शरीर को रखना चाहेगा और शरीर छूटने से पहले दूसरे शरीर का इन्तजाम करेगा। आप लोग शरीर की सुरक्षा के लिए कैसे-कैसे काम करते हैं। घर में पंखा है सर्दी में उसे चलाते भी नहीं, और उसे फेंकते भी नहीं, दूसरे को हाथ भी नहीं लगाने देते, वह पंखा ज्येष्ठ माह में काम का है। ज्येष्ठ माह में गरम कपड़े पेटी में बन्ध कर रख देते हैं। जो मुक्ति चाहता है वह शरीर की सुरक्षा नहीं चाहेगा। शरीर की सुरक्षा का मतलब संसार की सुरक्षा है। आठों मदों को अपनाने से शरीर तो अनादि से मिल रहा है। बाल्यावस्था आती है और चली जाती है, जवानी भी आती है और चली जाती है पर वृद्धावस्था आती है और समेट कर ले जाती है। समय-समय पर उत्पाद, व्यय, श्रौव्य हो रहा है। एक सत्ता के ये तीन पहलू हैं, वे समय समय पर प्रकट होते रहते हैं। दीपक का अभाव होने पर प्रकाश का अभाव हो जाता है, और अन्धकार छा जाता है। अन्धकार और प्रकाश दोनों पुद्गल की दशा है। अत: पुद्गल का अभाव नहीं होता। तीर्थकरों के शरीर में छोटा मोटा परिवर्तन होता है। जन्म के समय बालक परन्तु मुक्ति के समय बड़ा शरीर होता है। हमारी आँखों को परिवर्तन नहीं दिखता। उनका शरीर बिगड़ता नहीं है, पर परिवर्तन तो होता है। मानतुंगाचार्य ने भी भत्तामर स्तोत्र में स्तुति करते हुए कहा है कि - यैः शांतरागरुचिभिः परमाणुभिस्त्वं निर्मापितस्त्रि - भुवनैकललामभूत। तावंत एव खलु तेप्यणवः पृथिव्यां यत्ते समानमपरं न हि रूपमस्ति ॥ १२ ॥ हे भगवान! आपके समान रूप अन्यत्र नहीं है क्योंकि आपने पूर्व में ऐसा सुकृत पुण्य अर्जन किया है कि कांति के परमाणु आपके शरीर में समाये हुए हैं। आपके शरीर से दूसरे की तुलना नहीं की जा सकती। भगवान महावीर ने पूर्व में १६ कारण भावना भाई थीं उस वक्त ऐसा शरीर मिले कि मद न कर मोक्ष का संपादन करूं । दुनियाँ में विहार कर मोहग्रस्त जीवों को उपदेश दे सकूं। महावीर ने जितनी शक्ति मांगा उससे स्वयं का व दुनियाँ का भला चाहा, तभी उन्हें उत्तम संहनन के साथ कान्ति युक्त शरीर मिला, उन्होंने शरीर को लेकर मान का, मद का अनुभव नहीं किया। कामदेव के शरीर में तो परिवर्तन आता है, पर तीर्थकर के शरीर में जो जात रूप होता है, परिवर्तन नहीं होता, अन्तिम समय तक रहता है। उनके दाढ़ी मूंछ भी नहीं आती। कामदेव के ये बातें लागू नहीं है।मनोज्ञ शरीर को लेकर भी महावीर ने मद नहीं किया, पर कांति को दुनियाँ के सामने प्रकट करने के लिए दिगम्बर अवस्था धारण की और शरीर को परिश्रम में लगाकर केवलज्ञान की प्राप्ति की। उन्होंने ऐसे शरीर को पाकर भी भोगों में उसे न लगाकर योग को धारण किया। एक व्यक्ति कुरूप है, इसलिए शादी नहीं होती और एक सुरूप व्यक्ति शादी नहीं करना चाहता, दोनों में फरक है। उन्होंने (महावीर) सुरूप होकर भी भोगों में नहीं योग में शरीर को लगाया। शरीर को ठेस नहीं पहुँचाई। उन्होंने आहार विहार भी किया, शारीरिक शक्ति ऐसी थी कि निहार नहीं होता था, मल पैदा नहीं होता था, यह उत्कृष्ट शक्ति थी, जो दिव्य शरीर वालों के होती है। महावीर ने शरीर को वास्तविक तप में ही लगाया। एक क्षण भी भोगों की ओर मन नहीं लगाया। अनादि काल से प्राणी खाता, पीता, सोता आया है, भोग-विलास में रमता भोगता आया है, पर महावीर ने कभी भी पूर्व जीवन के भोगों को स्मरण नहीं किया विलासिता को याद नहीं किया। सुरूप शक्ति को तप के लिए काम में लिया। आप सुरूप बनने के लिए स्नो पाउडर, साबुन लगाते हैं लेकिन जो रूप है, वह तो रहेगा। महावीर ने मद का त्याग कर निर्मद को अंगीकार किया। उन्होंने २५०० वर्ष पूर्व आठों मदों को छोड़कर सिद्ध अवस्था को प्राप्त किया। आप पर्याय बुद्धि के बारे में विचार न करो। पर्याय दृष्टि ठीक नहीं है, द्रव्यदृष्टि ही ठीक है। द्रव्य का मतलब रुपये पैसे नहीं। आत्मिक दृष्टि को स्थान दो। महावीर ने सत् की ओर लक्ष्य रखा उस सत्र में परिवर्तन विकार, दोष नहीं है। उसमें उत्पाद, व्यय, श्रीव्य नहीं है। उसके बारे में महावीर ने विचार किया तो ८ मद गल गये। हम लोगों की दृष्टि वैकालिक सत्ता की ओर जाती ही नहीं, और पर्यायों को देखकर मद की प्रादुभूति हो जाती है। द्रव्य शक्ति निर्विकार है, वह वीतरागता को लिए है, समता का भण्डार है। कहा है कि- सत्ता नहीं जनमती उसका न नाश, पर्याय का जनन केवल और हास। पर्याय है लहर, वारिधि सत्य सत्ता, ऐसा सदैव कहते गुरुदेव वक्ता ॥ रात-दिन सत्ता का अवलोकन करने वाले गुरुदेव जो कि आरम्भ-परिग्रह से दूर है वैकालिक सत्ता का वे ही अवलोकन करते हैं। संसारी प्राणी आनन्द का अनुभव, सुख शांति चाहता है, पर उसे सुख शांति नहीं मिलती, उसकी दृष्टि से आगे सृष्टि बनती जाती है। वह पर्यायों की ओर दृष्टि जाने के कारण ही दुख पाता है। अथाह समुद्र को लेकर अध्ययन करने पर कमी बेसी नहीं होती, पर मंद बुद्धि वाले लोग सागर को न देखकर लहर को देखते हैं। लहर तो हर समय परिवर्तित होती रहती है, वह हर समय उसी स्थान पर नहीं रहती। संसारी प्राणी को मालूम नहीं वर्तमान पर्याय उत्पाद,व्यय, श्रौव्य को लेकर है। वह वर्तमान पर्याय की सुरक्षा के लिए प्रबन्ध करता है। जिसे दुनियाँ के दृश्य को देखकर सत्ता के बारे में विचार हो जाये, उसे ही स्वयंभू कहते हैं। दिखाने में दूसरे को व स्वयं को दुख होता है। एक समय में उत्पाद व्यय धौव्य में परिवर्तन होता है। कहते हैं - प्रत्येक काल उठता मिटता पदार्थ, जो धौव्य भी प्रवहमान वही यथार्थ योगी उसे समझते, लखते सदीव, आनंद का अनुभव, वे करते अतीव ॥ समय-समय पर मिट रहा, उठ रहा है, योगी उसे देखकर आनन्द का अनुभव करते हैं। हर्ष विषाद का अनुभव नहीं करते। आनन्द तो परमानन्द है। संसारी प्राणी आनन्द की अनुभूति नहीं करता पर मिटने पर विषाद का तथा उठने पर हर्ष का अनुभव करते हैं। जिस प्रकार बच्चा खिलौना टूटने पर रोता है, पर पिताजी नहीं रोते, बल्कि उसे समझाते हैं, उसी प्रकार मैं आपको समझाता हूँ, आप बच्चे से भी बच्चे बन गये। आप पर्याय, नश्वर चीज पर विश्वास लाते हैं। अनन्त शक्ति भी उठने मिटने को नहीं रोक सकती। समुद्र में लहर को कोई भी नहीं रोक सकता। काल अकृत्रिम है, रत्न राशि की भाँति कालाणु बिखरे पड़े हैं, हरेक क्षेत्र में उनका आवास है, उन बिखरे द्रव्यों में परिवर्तन कर देते हैं। आपको मात्र लिखना नहीं, लखना है। लिखने में परिश्रम दूसरे की सहायता पड़ती है, पर लखना स्वभाव है, उसमें दूसरे की सहायता की जरूरत नहीं। जो लखने लग जाये वही वास्तविक साधु है। लिखने पर तो भाषास्पद बन जाता है। शब्दों को बाँधना शोभा नहीं, ज्ञान को बाँधना नहीं। आपने बन्धन को, पर्यायों को तो अच्छा माना, पर त्रैकालिक सत्ता को नहीं। गुरुदेव पर्याय को भुलाकर पाठक को सत्ता दिखा देते हैं। लहर को देखेंगे तो रागद्वेष रूपी अन्दर की लहर आएगी। आप सोचें की सागर उठता मिटता नहीं, लहर ही उठती मिटती है। सागर के अवलोकन करने पर लहर आ जाएगी, फिर लहर पर राग द्वेष नहीं होगा। लहर (पर्याय) को देखने पर सत्ता ओझल हो जाएगी। जब आयु समाप्त होगी, तब परमाणु इस प्रकार बिखर जायेंगे जैसे पारा बिखर जाता है और अन्त में राख भी उड़ जायेगी। व्यय उत्पाद क्षणिक हैं, सत्ता घूम रही है, उसके बारे में सोचना है। शरीर बिखरने पर उपदेश सुनने की क्षमता नहीं रहेगी। अत: आत्मा को शुद्ध बनाने की चेष्टा करो। शरीर को लेकर मद, अभिमान न करो तीर्थकर भगवान्, साधु परमेष्ठी कहते हैं कि मद आदि तेरा स्वभाव नहीं है। अत: उन्हें छोड़ो। आठों मदों को छोड़कर संसार नश्वरता के बारे में कर्म की विचित्रता के बारे में, अध्ययन करें और केवलज्ञान की प्राप्ति करें।
  6. आचार्य श्री सातवें तप मद के बारे में आज वर्णन करते हैं। तप का अर्थ है अशुद्ध से शुद्ध बनने का उपाय। अशुद्ध पदार्थ को शुद्ध बनाने के लिए तपाया जाता है। मिट्टी को तपाकर शुद्ध बनाकर घड़ा बनाया जाता है, तभी वह घड़ा जल धारण कर सकता है। दूध में से घृत निकालने के लिए तपाना जरूरी है, पाषाण में से सोना निकालने के लिए तपाना जरूरी है, उसी प्रकार आत्मा को शरीर से अलग करने के लिए तप है। शरीर से आत्मा तप द्वारा अलग हो सकती है। अशुद्धि से शुद्धि तप द्वारा ही होती है। तप। पाथेय का काम करता है। तभी शुद्ध बुद्ध हम बनेंगे जब अपने आपको तप द्वारा तपा लें। तप रूपी अग्नि के द्वारा कर्मरूपी ईधन को नष्ट कर सकते हैं, तभी आत्मा निर्बन्ध हो जाता है। तप को पाथेय के रूप में लें तो ठीक है, वरना यह अपने लिए भी हानिकारक हो जाता है। अग्नि से खाना पकाते हैं, पर असावधानी से अन्य कुछ भी जैसे हाथ पांव आदि भी जल सकते हैं। तप अग्नि के समान है। तप से कर्म भी जल जाते हैं, पर अविवेक होने पर आत्मा भी जल सकती है। तप को साधन बनावेंगे, विशुद्धि को लक्ष्य रखेंगे तो तप ठीक काम करेगा। आचार्यों ने १२ प्रकार के तप आत्मा को विशुद्ध बनाने के लिए बताये हैं। पर साथ में यह भी कहा है कि-भव की वांछा नहीं होनी चाहिए। इन तपों के साथ में भव की वांछा अशुद्धि प्रदान करती है। भव की वांछा न होने पर तप के द्वारा शुद्धि की ओर आगे बढ़ सकते हैं। सांसारिक सामग्री की वांछा रखने पर आप कर्मों को नहीं तपाएँगे, बल्कि आत्मा को तपाएँगे। तप साधन होकर भी बाधक बन जायेगा। वांछा न होने पर आत्मा निखर उठता है, कर्म मल छूट जाता है। आचार्य अमितगति जी भगवान की भक्ति करते हुए कहते हैं कि हे भगवान्! मैं शरीर से पृथक् होने के लिए तप कर रहा हूँ। अनादि से बंधन में हूँ, कारावास का अनुभव कर रहा हूँ। आपके प्रसाद से शरीर से पृथक् होऊँ, ऐसी शक्ति देवें। भव की वांछा होने पर कर्म शरीर को नहीं जलाएगा, आत्मा को जलाएगा, आत्मा दुख का अनुभव करेगा। आपकी दृष्टि बाहरी तप की ओर तो जाती है, पर आंतरिक तप की ओर नहीं जाती। आत्मा Direct बाहरी तप नहीं कर सकता। उपवास, व्रत आदि करने वाले हम नहीं हैं, जब ध्यान में यह आ जाएगा तो मद नहीं करेंगे। आप अपने भावों के ही कर्ता हैं, जब भावों में मद हो रहा हो तो उसे दूर करने की चेष्टा करनी है। अपनाना दूसरे द्रव्य का नहीं, अपने स्वभाव का होता है। अनादि से तप तो किया पर नैमितिक बाहरी तप ही किया, आभ्यंतर तप नहीं किया जो वास्तविक आत्मा का है। कर्मरूपी ईंधन तभी जलेगा, जब आभ्यंतर तप होगा। आपको शरीर के मल को दूर हटाना है या आत्मा के मल को दूर हटाना है? शरीर के मल को दूर करने से आत्मा का मल दूर न होगा। परमार्थ से बाहर साधक को न होना चाहिए। आत्मा का सम्बन्ध Direct किन-किन से है यह सोचना है। आभ्यन्तर तप लक्ष्य है और बाह्य तप साधन है। आभ्यन्तर से निर्जरा होती है। बाह्य तप से आभ्यन्तर तप में मजबूती निर्मलता आती है। आत्मा आभ्यंतर तप से निर्मल होगी। संसारी प्राणी भव सुख की वांछा को लेकर तप को अपनाता है। बाह्य निमित्त द्रव्य क्षेत्र काल को लेकर है। शरीर जिस समय नहीं चलता और क्षेत्र अनुकूल न हो तो बाह्य तप की ओर दृष्टिपात न कर मात्र आभ्यन्तर भावों को स्थिर एवं निर्मल बनाओ। आभ्यन्तर तप को लेकर कभी मद नहीं होता बाह्य तप को लेकर ही मद होता है। सम्यग्दर्शन पर मद नहीं होता, पर उसके अनुसार जब क्रिया करता है, तब अन्दर की ओर दृष्टि न होने पर बाह्य में मद हो जाता है। जब मद, अभिमान हो रहा हो तो समझ लो कि दृष्टि अन्दर नहीं गई। कहा है कि- दीवार है अमित जो अवरुद्ध द्वार क्यों ही प्रवेश निज में जब है विकार। कैसे सुने जबकि अंदर मुक्ति नार, बाहर ही बाहर से आप भगवान को पुकार रहे हैं, कह रहे हैं कि किवाड़ खोल दो, मैं आ रहा हूँ। लेकिन बीच में दीवारें है, जिससे बाहर की आवाज अन्दर नहीं पहुँचती है। आप स्वयं भी अन्दर प्रवेश नहीं कर रहे हैं, मात्र बाहर से ही आवाज लगा रहे हैं। जब तक दीवार है, पर्दा है विकार रूपी दीवार को आप जब तक नहीं तोड़ेंगे, तब तक अन्दर नहीं जा सकते। अन्दर जाने के लिए विकार रूपी रिबन को काटना पड़ेगा। बाहरी तप को लेकर यदि मद करेंगे तो तीन काल में भी अन्दर प्रवेश नहीं हो सकेगा, रहस्य समझ में नहीं आ सकेगा। अंतिम लक्ष्य अन्दर जाना होना चाहिए। बाहरी प्रक्रिया तो मात्र साधन है। अन्दर जाने पर निराकृत अवस्था प्राप्त हो जाएगी। आज तक हमने मदवान होकर तप किया, जिसके कारण नवग्रैवेयक तक जा आए। साधक कभी भी दूसरे के सामने प्रकट नहीं करता, वह तो साध्य को पकड़ने की चेष्टा करता है। वह सोचता है कि इस अनन्त संसार में किसे-किसे दिखाऊँ। इसमें तो अनन्त समय लग जाएगा वह तो स्वयं ही अपने अन्दर देखने लगता है। दिखाने में अन्य द्रव्यों से सम्बन्ध होता है, कुछ भव की इच्छा होती है। पर देखने में दूसरे की आवश्यकता नहीं। दिखाने में दूसरे को समझना पड़ेगा और अगर वह नहीं समझेगा तो उस पर क्रोध होगा, कषाय होगी और अपने देखने की क्रिया से भी च्युत हो जाना पड़ेगा। दूसरे को दिखाने में बाह्य तप ही तो मिलेगा पर अन्दर का तप नहीं दिखेगा। सद्बोध शिष्य दल को जब मैं दिलाऊँ। स्वामी निजानुभव को तब मैं न पाऊँ ॥ आचार्य पूज्यपाद समाधितन्त्र में कहते हैं कि शिष्य को भी जब तप को दिखाता हूँ तो अन्दर में शुद्धोपयोग को भूल जाता हूँ, मैं बाहर आ जाता हूँ। हमारी दृष्टि अन्दर की ओर नहीं जाती, महावीर को नहीं देख पाती, बाहरी मनोरम दृश्यों में फिसल जाती है, बाह्य तप ही दिख पाता है।विषयों की लालसा के साथ जीने वाले जीव भगवान् के समवसरण में जाकर भी केवलज्ञान को नहीं देखेंगे, वीतरागता को नहीं देखेंगे। मात्र छत्र, चमर देखेंगे, मन्द-मन्द पवन का अनुभव कर बाहरी दृश्यों को देखेंगे, बहुत बढ़िया महावीर जैसा शरीर चाहेंगे महावीर के पास केवलज्ञान था और हम बाहर रह गये। अन्दर प्रवेश के लिए विकार का अभाव होना चाहिए। विकार के अभाव होने पर किसी मन्दिर अथवा संघ की जरूरत नहीं होती। भव की वाँछा के साथ दुनियाँ के पदार्थ आपेक्षित हैं। किन्तु वास्तविक सम्यग्दृष्टि जो है, आभ्यन्तर की ओर दृष्टि करने वाला, बाहर नहीं देखेगा। आभ्यन्तर तप में जो साधन है उसे रखो, बाकी को छोड़ो। आत्मा के साथ सम्बन्ध न होने पर मद किसी न किसी रूप में रहेगा, आभ्यन्तर तप को नहीं चाहने पर बाह्य तप को चाहेगा और तब ही वह मद करेगा। अत: वे अज्ञानी हैं जो बहुत तप, परिश्रम करके भी अन्दर के मल को धोने की चेष्टा नहीं करते। बाहर से बर्तन साफ कर लिए पर अन्दर से साफ नहीं करने पर उसमें दूध फट जाएगा। आभ्यन्तर शुद्धि के साथ बाह्य शुद्धि सापेक्षित है। बाहर व अन्दर से पात्र को साफ करना जरूरी है। आभ्यन्तर तप में प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, व्युत्सर्ग, स्वाध्याय और ध्यान है। जिस प्रकार १६ बार सोने को तपाने पर उसकी शुद्धि होती है, उसी प्रकार ध्यान की शुद्धि होती है। ध्यानरूपी अग्नि से आभ्यन्तर द्रव्य को स्वच्छ बना देते हैं। जिसको दोषों के प्रति घृणा नहीं है, प्रायश्चित नहीं है, बड़ों के प्रति विनय नहीं है, तो उसका जीवन यूँ ही चला जाता है। महावीर के झण्डे के नीचे आकर भी जीवन को सार्थक नहीं बनाया, संताप को दूर नहीं किया। वास्तविकता को लेकर तप करोगे तो कर्म से मुक्त हो जाओगे। कमी तप में नहीं है, भगवान् महावीर का रास्ता अप्रमाण नहीं है। पर अपने पास कमी है, हमने विपरीत दिशा को पकड़ कर रखा है। अत: तप का मद नहीं करना है, तप को जीवन का अंग बनाना है और तप से आत्मा को उज्ज्वल बनाना है। शुद्ध बनने पर, उज्ज्वल बनने पर आत्मा फिर कभी भी अनन्तकाल तक अशुद्ध नहीं बनेगी अत: उसे शुद्ध बनाने का प्रयास करो।
  7. जो ज्ञान, पूजा, कुल, जाति और बल को लेकर मद करता है, वह सम्यक दर्शन को दूषित व नेश्तनाबूद करता है। अब आचार्य ऋद्धि के बारे में कहते हैं। सुकृत का फल ऋद्धियाँ है। एक ऐसी शक्ति विद्यमान हो जाती है, जिससे अच्छे व बुरे कार्य कर सकते हैं। आज तक हमने ऋद्धियों का दुरुपयोग ही किया। ऋद्धि प्राप्त करके उसका उपयोग सांसारिक कार्यों में जो करता है, वह मोक्ष की ओर नहीं बढ़ पाता। कलंकित हो जाता है, वास्तविक मार्ग को छोड़कर बाहर की ओर दृष्टि कर देता है। आचार्यों ने ऋद्धियों को दूर रखा है। वे ऋद्धियाँ उत्पन्न होने के बाद भी लक्ष्य दूसरी ओर रखते हैं। क्षणिक ऋद्धियों को प्राप्त करने की चेष्टा नहीं करते। ऋद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं तथा जो ऋद्धियाँ प्राप्त करने की चेष्टा करता है, दोनों में फरक है। प्राप्त करने की चेष्टा में लक्ष्य दूसरा होता है। और अपने आप प्राप्त हो जायें तो लक्ष्य उस ओर नहीं रखते, विचार नहीं लाते। आज संसारी प्राणी ऋद्धियों को जीवन का लक्ष्य बना रहे हैं। ऋद्धियों से संसार पर प्रभाव पड़ सकता है, शक्ति प्रकट हो सकती है, नाम, कीर्ति गुणगान हो सकता है। इसमें पड़कर जीवन को भी समर्पित कर दिया जाता है। आज तक हमने उपासना बहुत की और नव ग्रैवेयक तक भी गये पर अविनश्वर सुख की प्राप्ति नहीं हुई। जब ऋद्धियों को भूल जाएँगे तब यह सुख प्राप्त होगा। श्रुत की आराधना करने पर दसवें अंग तक पहुँचने पर लगभग ७०० विद्यायें एक साथ सेवा में खड़ी हो जाती है। आज हम शक्ति का, ज्ञान का दुरुपयोग करते हैं तो फल भी उल्टा ही मिलता है। शक्तियाँ भी भिन्न प्रकार की होती हैं। वृद्धावस्था में इन्द्रियाँ शिथिल हो जाती, पर विचार की-अनुभव की शक्ति चरम सीमा पर होती है, गम्भीरता भी ज्यादा होती है। यह लौकिक क्षेत्र की बात है, धार्मिक क्षेत्र की नहीं। अत: शक्ति का सदुपयोग हो दुरुपयोग नहीं। जब बाहर में रस आने लगता है, लौकिक की ओर देखता है तो आध्यात्मिक दृष्टि खत्म हो जाती है। ध्यान चरम सीमा पर होता है तो श्रुत की प्राप्ति तथा बाद में केवल ज्ञान की भी प्राप्ति हो जाती है। किसान घास फूस को लक्ष्य कर खेती नहीं करता, धान को लक्ष्य कर खेती करता है। धान के साथ उसे घास भी मिल जाता है। धान के द्वारा खुद का और घास के द्वारा जानवर का पेट भरता है। ऋद्धियों को सांसारिक कार्यों में उपयोग करने से आत्मिक विकास रुक जाता है। जब ऋद्धियों की अपेक्षा, उसके फल की आकांक्षा न रखकर आगे बढ़ेंगे तो प्रभावना वीतरागता से होगी, उतनी असंख्यात ऋद्धियों से भी नहीं होगी। सम्यक दृष्टि भी प्रभावना अंग का धारक तब कहलाता है, जब मनोवेग (मनोरथ) को रोक कर ज्ञान रथ पर आरूढ़ हो जाता है। प्रवृत्ति बिल्कुल रुक जाये,ओझल हो जाये। शारीरिक, मानसिक और वाचनिक चेष्टा जब रुक जाती है, तब ही वास्तविक प्रभावना है। ख्याति लाभ पूजा तथा सांसारिक बातों को रोक कर तथा ऋद्धियों को गौण कर ध्यान में आगे बढ़ाना है। अगर ज्ञान रूपी रथ पर आगे बढ़ना असाध्य हो जाये तो ज्ञान दर्शन की शक्ति को, ऋद्धियों को धर्म की प्रभावना में लगाया जाये। बड़ी हानि से बचने के लिए छोटी हानि को मंजूर करते हैं। ज्यादा (पूर्ण) बन्ध का प्रसंग आ जाये तो छोटा, थोड़ा बंध हो जाये तो कोई बात नहीं, पर वापस उसी स्थिति को प्राप्त करने का लक्ष्य होना चाहिए। ऋद्धि का प्रयोग करना जो जाने, उसे बता देना तो ठीक भी है, वरना बन्दर के हाथ में हुकूमत देना जैसा होगा। ऋद्धियाँ भी सीमा में रहती हैं। सम्यक दृष्टि के लिए सीधा काम करती हैं लेकिन उनका दुरुपयोग करने पर उल्टा फल भी देती हैं, दुखदायी हो जाती है। आज अगर निष्कषायी, निष्क्रोधी नहीं बन सकते तो अनन्तानुबन्धी का अभाव तो कर सकते हैं। सद् ऋद्धि दूसरे के कल्याण के लिए पर असद् ऋद्धि दूसरे व अपना भी नाश कर देती है। जो व्यक्ति कषायी, अज्ञानी है, वह ऋद्धियाँ पाकर भी दूसरों का अकल्याण ही करेगा। आज तक हमने कुऋद्धियाँ पाकर दुरुपयोग कर स्थावर तन ही धरा। सम्यक दर्शन के, विवेक के अभाव में विषयों की लालसा में ऋद्धियाँ तो प्राप्त की पर फल उल्टा ही मिला। विवेक व सम्यक दर्शन के साथ ही सुख शांति मिलती है। जो ऋद्धियों पर मद करेगा, दूसरों को आकर्षित करना चाहेगा तो सम्यक दर्शन में दोष लगाएगा तथा चरम सीमा पर मद करेगा तो सम्यक दर्शन से च्युत हो जायेगा। बात-बात पर कषाय करना आत्मा को कष्ट पहुँचाना है, उसे विदीर्ण करना है। स्वर्गों में स्वर्गीय सम्पदा भोगते हुए गुलाम बना रहना पड़ता है, उसमें माफी छुट्टी नहीं है। जो सम्यक दर्शन से दूर है, उसे ऐसा मानसिक दुख होता है। वास्तविक ऋद्धि तो वीतराग है, जिससे केवल ज्ञान प्राप्त हो सकता है, वह अनन्त है, अविनश्वर है। वीतराग की ऋद्धि को लक्ष्य बनाकर आगे बढ़ेंगे तो अनादि का दुख छूट जाएगा और अविनश्वर सुख की प्राप्ति होगी। सांसारिक ऋद्धियों के लिए अनन्त समय बीत गया और केवलज्ञान की ऋद्धि के लिए अन्तर्मुहूर्त चाहिए। सम्यक दर्शन, ज्ञान, वीतरागता ही ऋद्धि है बाकी सब विषयों की वृद्धि हैं, उनसे केवलज्ञान नहीं होगा। अत: ऋद्धियों पर मद नहीं करना चाहिए। केवलज्ञान प्राप्त करने के साधनों को अपनावें और शक्ति का सदुपयोग करें।
  8. आज बल मद के बारे में बताना है। संसार अवस्था में अनेक प्रकार का बल माना जाता है, जैसे मनोबल, वचन बल, काय बल, इन्द्रिय बल, धन बल इत्यादि हैं। इनको लेकर अभिमान करना अनन्त बल यानि आत्मा के बल को खोना है। ये मनोबल हरेक के लिए प्राप्य नहीं है। मनोबल का वास्तविक लाभ कर्म मल को धोने के लिए होता है। मन के बिना मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकते तथा उसके बारे में विचार भी नहीं कर सकते। प्रयोजन भूत तत्व के बारे में विचार मन के द्वारा होता है। अन्तिम पर्याप्ति मन:पर्याप्ति ही है, ये जब प्राप्त हो जाये तो मोक्ष मार्ग के लिए ज्यादा पूँजी की जरूरत नहीं। जब आत्मा के अनन्त बल के बारे में विचार करते हैं तो मन-वचन और काय बल को इसके काम में ले आते हैं। आप वचन बल, काय बल को प्रमुखता देते हैं, आत्म बल को भूल जाते हैं और शरीर की सुरक्षा की ओर लग जाते हैं। आपको मनोबल की सुरक्षा करनी है। मनुष्य जीवन की सुरक्षा नहीं, आत्मा की सुरक्षा करनी है। मनुष्य जीवन आत्मा का जीवन नहीं है। मनुष्य जीवन मिला, वह वैकालिक नहीं रहेगा, यह आत्मा का स्वभाव नहीं है, कर्म फल का परिपाक है। तीनों बलों को मोक्ष साधन में काम में लाना चाहिए। आत्मा का अनन्त बल इसके पीछे रुका है। जब आत्मा के बल की सुरक्षा करेंगे तब तीनों बलों की सुरक्षा नहीं मात्र समादर करेंगे। आत्मा के अनन्त बल की प्रादुभूति के लिए इन तीनों बलों की सुरक्षा करनी है। मन बल, वचन बल व काय बल सीमित है, अनन्त नहीं है। आप इन तीनों सीमित को पकड़कर अनंत को खो रहे हैं और अंत को प्राप्त कर रहे हैं। इन तीनों बलों को आपने अनन्त बार प्राप्त किया पर अनन्त का अनुभव नहीं किया, अनन्त का लक्ष्य नहीं बनाया। वही जीवन सुखमय शांतमय है, जिन्होंने अनन्त को लक्ष्य रखा। इन तीनों का आत्मा के साथ वैकालिक संबंध नहीं है। एकेन्द्रिय में मनोबल व वचन बल नहीं रहता है तथा काय बल में भी जीव के लक्षण दृष्टि में नहीं आते हैं। अत: हम लोगों को सोचना है कि अनन्त का बल पाकर भी अनन्त का अनुभव हमने क्यों नहीं किया। एक कार्य की निष्पति के लिए अनेक कारण अपेक्षित है। मोक्ष मार्ग प्राप्त करने योग्य सामग्री निमित मिला, बाह्य कारण भी मिला, पर आभ्यन्तर उपादान कारण में यह लक्ष्य ही नहीं बना कि अनन्त को प्राप्त करना है। वही व्यक्ति मन, वचन, काय, धन बलों को सुरक्षित रखता है जो अनन्त का लक्ष्य नहीं रखता वह सांसारिक पर्यायों की सुरक्षा का लक्ष्य रखता है और उन्हीं के संवर्धन के लिए आज शिक्षा हो रही है। अनन्त को प्राप्त करने का प्रयास कहीं नहीं हो रहा है। नाश की ओर शक्ति बढ़ रही है, विकास की ओर नहीं। पतन की ओर जाने के लिए प्रयास की जरूरत नहीं पड़ती, पर विकास के लिए प्रयास की जरूरत है। आज भवन बनाने के लिए नहीं, तोड़ने के लिए प्रयास चल रहा है। आपने दुर्लभता से मिली चीजों के साथ अनन्त का विचार नहीं किया। जब पूर्वभव में यही विचार किया तो ये चीजें, बल मिला, मनुष्य पर्याय मिली। अल्पारंभ व अल्प परिग्रह को आपने पूर्व जन्म में अपनाया तब तो मनुष्य जन्म मिला, अब आप बहु आरम्भ बहु परिग्रह को अपनाकर नारकी बनने की कोशिश कर रहे हैं। जिस प्रकार सूर्योदय से पूर्व आभा, उजाला होने की पूर्व सूचना है उसी प्रकार बहु आरम्भ, बहु परिग्रह, अति संक्लेश परिणाम नरक गति का उदय होने की आभा, पूर्व सूचना है। पूर्व में अल्प आरम्भ अल्प परिग्रह रखकर सोचा कि मनुष्य जन्म पाकर मोक्ष प्राप्त करने के लिए पुरुषार्थ करूंगा, लेकिन यहाँ मनुष्य भव पाकर आप इस बार नहीं, अगली बार उद्धार करने की बात विचार कर आज नगद कल उधार वाली बात चरितार्थ कर रहे हैं। मिली वस्तु को उपयोग में न लाकर भावी अव्यक्त पर्याय की इच्छा करना मूर्खता है। जो वर्तमान का समादर करता है, वही भावी का समादर करेगा। जो वर्तमान में डावांडोल है, उसका भविष्य अन्धकारमय है। उसका अनन्त इन्तजार कर रहा है, पतन उसका निश्चित है। आप यथोचित उपयोग न लाकर अनन्त बल को प्राप्त नहीं करना चाहते और मन, वचन, काय बल को लेकर मद करते हैं। अनन्त बल पर मद नहीं होता है। यह अनन्त बल आत्मा का स्वभाव है। विभाव, भिन्न पदार्थ को लेकर अभिमान होता है। अनन्त के सामने अंत की कीमत नहीं। अनन्त का विचार करने वाला अन्त के सीमित बल की ओर नहीं देखेगा। हमारे जीवन का अन्त होने जा रहा है, पर हम साधन जुटाते जा रहे हैं और अनन्त का विचार नहीं कर रहे हैं। मनुष्य उपकार करने में सर्वश्रेष्ठ है। वह मोक्षमार्ग को प्राप्त कर सकता है। समंतभद्राचार्य ने अभयदान में श्रेष्ठ तिर्यञ्च को माना है, वह अपने काय बल को भी न्यौछावर कर देता है। समय-समय पर आये प्रासंगिक संकटों को दूर कर लेने की प्रक्रिया का नाम दान है। जिसको जिस समय जिस वस्तु की जरूरत है, उसे वही समर्पण कर देना अभयदान है। सुरक्षा के लिए बल को काम में लें, लड़ें तो स्वर्ग मिल सकता है। और दूसरे को मिटाने के लिए लड़े, बल का उपयोग करें तो नरक होता है। जो नहीं लड़े, पर मुनि बनकर केवल ज्ञान प्राप्त कर उपदेश देकर स्वयं तो मोक्ष पाता ही है और अनन्त जीवों का अनन्त संसार काट देता है। जिसने सुरक्षा के बारे में विचार किया उसे अवश्य मुक्ति मिलेगी। जहाँ मन बल या वचन बल या काय बल किसी को भी जरूरत हो उसका प्रयोग हो। वचन व काय बल का प्रयोग नहीं कर सकते तो मन बल का प्रयोग सब का कल्याण चाह कर हो सकता है। सिंह की गति पाँचवें नरक तक, पर मनुष्यरूपी सिंह की गति, सातवें नरक तक है। मनुष्य बलवान है, वह सातवें नरक तक जा सकता है तो पुरुषार्थ कर मोक्ष तक भी जा सकता है। और सिंह भी अणुव्रत धारण कर १६ वें स्वर्ग तक जा सकता है, बल का उपयोग विकास की ओर लगाकर आगे बढ़ सकता है। महिलाएँ भी व्रतादिधारण कर स्त्री पर्याय को छेदकर स्वर्गीय संपदा प्राप्त कर वहाँ से मनुष्य बनकर मोक्ष प्राप्त कर सकती हैं। मुक्ति के लिए पुरुष वेद जरूरी है। पर मुक्ति-शक्ति के दुरुपयोग करने पर नहीं मिलेगी। नरक में मात्र नपुंसक वेद ही होता है। आज तक हमने पंचमगति को नहीं अपनाया। बल का मद किया, यह मद अध:पतन का प्रतीक है। अत: क्षणिक पौदूलिक पर्यायों को लेकर मद न करें, बल का सदुपयोग कर उपकार करो और जीवन को विकसित बनाओ।
  9. मोक्षमार्ग के प्रथम अंग सम्यक दर्शन में दोष लगाने वाले, उसको अधूरा रखने वाले मदों के बारे में वर्णन, विश्लेषण गत तीन-चार दिनों से हो रहा है। आज जाति मद का वर्णन करना है। व्यवहारिक क्षेत्र में निमित्त नैमितिक सम्बन्ध रहता है। यह भी रहस्य को लिए हुए है। जब किसी का Operation होता है, तब खून की जरूरत पड़ने पर खून का निरीक्षण होता है, सम्बन्धी का खून लिया जाता है, ताकि वही सत्व गुण मिल जाये। जो माता-पिता में गुण, सत्व रहते हैं, वे संतान में कम होकर आते हैं और सात आठ भव बाद संबंध टूट जाता है। विवाह करते समय भी इस बात का ध्यान रखते हैं, गोत्र आदि मिलाते हैं और Difference रखते हैं। कुल और जाति का शरीर पर प्रभाव पड़ता है। जिस बात को आचार्यों ने वर्षों पूर्व लिखा, उसे वर्तमान में देख सकते हैं। जाति काल का विरोध नहीं, उस व्यवहार क्षेत्र के बारे में चर्चा नहीं। यहाँ पर धार्मिक क्षेत्र में चर्चा करनी है। अन्दर आत्मा के वर्णन में कोई व्यवस्था सम्बन्ध नहीं, सभी पर्यायों को गौण कर आत्मा के बारे में विचार करेंगे। अनादिकाल से जीव के बारे में चर्चा, अध्ययन किया ही नहीं, मात्र कुल जाति की ही चर्चा की। धार्मिक क्षेत्र में जाति कुल का निषेध नहीं तो स्थान भी नहीं दिया, आवश्यकता नहीं समझी। आत्मा का विकास करना आत्मा जब चाहेगा तो शरीर संबंधी पदार्थों को गौण करेगा। शरीर को ही जब व्यक्ति अपना भोग्य पदार्थ मानता है तब इसे सामाजिक व्यवस्थाओं के बन्धन में रहना पड़ता है। माँ के, पिताजी के कहने पर चलना पड़ेगा, विवाह होने पर पत्नी के कहे अनुसार चलना पड़ेगा। हाँ में हाँ मिलानी पड़ेगी। जब शरीर को भोग्य पदार्थ नहीं माना, पर समझ लेते हैं, तब सभी कार्य गौण हो जाएँगे। मोक्ष मार्ग में शारीरिक भोग नहीं मानसिक विषय नहीं, प्राप्तव्य चीज आत्मा है। मोक्ष मार्ग पर चलना चाहते हो तो बाहरी शारीरिक भोग आदि को भूल जाओ। जिस क्षेत्र में जाना ही नहीं, उसकी निंदा या स्तुति करो कोई जरूरी नहीं। जिस पदार्थ को नहीं चाहते हो तो उसकी जानकारी व कीमत जानने की आवश्यकता नहीं। वे पदार्थ देखने में आते हुए भी नहीं देखना है, विचार नहीं करना है। जिसे चाहना है, उससे मतलब रखना है। मोक्ष मार्ग में प्रवृत्त व्यक्ति दुनियादारी की चीजों को नहीं चाहेगा, भूल जायेगा और जहाँ अन्य व्यक्ति प्रशंसा करेगा तो वहाँ नहीं रहेगा। अत: जाति-कुल मद को गौण कर दो, भूल जाओ, प्रशंसा गुणगान जहाँ हो वहाँ मत जाओ। मिथ्यादृष्टि के साथ रहना मिथ्याशास्त्र को पढ़ना तथा मिथ्यात्व की उपासना करने से मोक्ष मार्ग को भूल जाओगे। शरीर के लिए जो जाति-कुल मद हैं, वे मोक्ष पथिक के लिए खतरनाक हैं। जो मोक्ष मार्ग को नहीं चाहते हैं, उनके लिए तो शास्त्र उपदेश जरूरी नहीं है। सर्वप्रथम उधर निदान, लक्ष्य, प्रतिज्ञा, दृष्टि होनी चाहिए, जिसे प्राप्त करना है। रोगी को देखते समय निदान कर औषध दी जाती है। हमें भी निदान करना है कि क्या चाहिए। हमें सुख चाहिए तो सुख से दूर रखने वाले तथा दुख लाने वाले पदार्थों से आप अवश्य डरेंगे। रोगी को अपथ्य छोड़ना पड़ेगा, वरना दवाई का असर नहीं होगा और एक बीमारी दूर होकर दूसरी बीमारी हो जायेगी। एक आकुलता मिटने पर १० सामने खड़ी हो जायेगी। सिगड़ी में आप पानी गरम कर रहे हैं। अगर हवा ऊपर करेंगे तो पानी गरम नहीं होगा, और हवा नीचे करेंगे तो जल्दी गरम हो जाएगा। हवा सिगड़ी को लग रही है, पर ऊपर करने पर बाधक और नीचे करने पर साधक है। आप सुख चाहते हैं तो सोचो जो कर रहे हैं वे दुख के कारण हैं या नहीं। चार संज्ञा लगी है। संज्ञा का मतलब इच्छा है। आपकी इच्छा दुख के लिए कारण बन रही है। अतः मदों को छोड़कर निर्मद बनकर वस्तु के बारे में विचार करना होगा। सुख की प्राप्ति के प्रयास में अनन्त भव निकल गये लेकिन सुख नहीं मिला। जब समीचीन प्रयास होगा तो मोक्ष मार्ग पर आरूढ़ हो जाओगे। मद की सामग्री भव भव में नहीं मिले चाहे भव नहीं कटे। आज पूजन की सामग्री में भी मद आ गया। नीचे दिखाने का नाम मद है। मद की सामग्री न मिलेगी तो पूजन की सामग्री मिल ही जायेगी। भावों में निर्मलता है, निर्मद है तो सब मिलेगा। आज आपको भावों में भगवान् से नहीं पड़ोसी से डर रहता है, नाम नीचे न रह जाये, अनादर न हो जाये, मेरे पास कुछ नहीं है। लेकिन भगवान् के पास, निकट वही बैठ सकता है जो निर्मद है, जिसके पास कुछ नहीं है। आप तो मात्र श्वेताम्बर बने हैं, दिगम्बर बने ही नहीं। दिगम्बर तो मुनि हैं। पूजन में भी मद का अभाव अनिवार्य है। निर्मदी निर्विकारी संतोषी बनो। लौकिक क्षेत्र में मद को लेकर आगे पीछे चलता है, पर धार्मिक क्षेत्र में निर्मद होकर आगे बढ़ते हैं। उच्चता, आदर निर्मद होने में है। जाति आत्मा की नहीं, जाति शरीर को लेकर है। यह जाति नाम कर्म है। आप एक इन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय जिनके मन नहीं है, उनसे बड़े हैं, पर पंचेन्द्रिय से स्पर्धा करते हैं, स्पर्धा ही नहीं-ईष्या करते हैं। एक इन्द्रिय से पंचेन्द्रिय से पंच इन्द्रिय संज्ञी उच्च है। आप मद करते हैं साधर्मी भाइयों से। पर क्यों मद करते हैं ? आपके पास व उनके पास सब चीज बराबर है, कोई छोटा बड़ा नहीं है। जाति का सम्बन्ध धर्म से नहीं है। जैन, धर्म से तथा जाति, कर्म से संबंध रखने वाले हैं। जाति नाम कर्म सबके उदय में है, उसको लेकर मद करना मूर्खता है। अहिंसा का पालन करते समय हिंसा को छोड़ने के लिए सर्वप्रथम संज्ञी पंचेन्द्रिय जो मोक्ष को प्राप्त करने वाले पात्र हैं, उसकी सुरक्षा करो। सर्वप्रथम पुरुष-स्त्रियाँ, फिर तिर्यञ्च और फिर स्थावर की सुरक्षा कही है। आप सर्वप्रथम आलू को तो छोड़ देंगे पर सामने पञ्चेन्द्रिय है, उसको साबुत निगल जायेंगे। सर्व प्रथम संज्ञी पंचेन्द्रिय के साथ मद छोड़ो, फिर जीव के विकास को दृष्टि में रखकर तिर्यञ्च आदि की रक्षा करो। आप साथी को लेकर मद करते हैं। जवान-जवान से, वृद्ध-वृद्ध से तथा महिला-महिला से मद करती है। अत: मद को छोड़ो। यह मद साधर्मी भाईयों को लेकर होता है। जैनेतर को लेकर नहीं। जो साधमीं भाई से द्वेष रखता है, वह किसी की भी रक्षा नहीं कर सकता। सर्वप्रथम आप त्रस जीवों में साधमों की चिंता मिटाओगे तो धर्म का विकास होगा। तिर्यञ्च की रक्षा से उतनी धर्म की भावना नहीं होती जितनी साधर्मी की सुरक्षा से। जहाँ गिराने का लक्ष्य है वहाँ कुछ भी नहीं कर सकते। गिराने व बचाने के लिए ज्यादा समय की जरूरत नहीं। जब साधर्मी से प्रेम होगा तो संकट में भी सुरक्षा होगी। जब मद है तो गिराने की दृष्टि होगी। अत: जाति कुल का मद नहीं करना। पहले पंचेन्द्रिय जाति की सुरक्षा न हो, मनुष्य जाति की रक्षा हो। मनुष्य से मद छोड़कर साथी बना लें। पुरुष ही मोक्ष प्राप्त करने में अग्रणी है।
  10. आज कुल मद के बारे में बताना है। जो कुल को मुख्यता देकर मान करता है, वह मदवान कहलाता है। म्यान और तलवार दो चीज हैं। तलवार को रखने का स्थान म्यान है। तलवार काम की चीज है। यह जीव म्यान में तलवार की भांति शरीर में रह रहा है। यह जीव आत्मा की कीमत नहीं करता पर शरीर यानि म्यान की कीमत करता है, सेवा करता है उसकी प्रशंसा, सुरक्षा, संवर्धन चाहता है। जो कुल को ही महत्व देता है, वह शारीरिक जड़ पर्याय को ही अच्छा मानने लगता है,उससे बड़ा मूर्ख कोई नहीं है। हमारा उच्च कुल है, हमारे दादा, परदादा सिंहासन पर थे या हैं इससे मैं उच्च कुल का हूँ, इसीलिए अभिमान करें, यह ठीक नहीं। संतान के क्रम से आते हुए जो अच्छा बुरा आचरण है, उसका नाम है गोत्र। जो उच्च कार्य करता है, वह अच्छा, और जो बुरा कार्य करता है, वह नीच कहलाता है। यह गोत्र कर्म कैसे बनता है। कोई कहे कि धनवान साहूकार उच्च कुलीन है सो यह बात नहीं। वह तो साता वेदनीय कर्म से मिले धन से धनवान बना है न कि उच्च कुल की अपेक्षा से। शरीर से स्वच्छ, हृष्ट पुष्ट है, वह भी भोगान्तराय कर्म से खा पी रहा है न कि उच्चकुल की अपेक्षा से। जो बुद्धिमान है, वह भी ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से बुद्धिवान है न कि उच्चकुल की वजह से। जो दीर्घायु है वह भी उच्चकुलीन नहीं है, क्योंकि नरक में ३३ सागर की आयु वाला भी होता है, जो उच्च गोत्र वाला नहीं फिर उच्च कुलीन कौन-सा बनता है ? तो बताया है कि जिनका आचरण अच्छा है जिनका सम्बन्ध आर्यों के साथ रहता है, वह उच्च का बन्ध कर रहा है तथा उसके उच्च का उदय भी है। हम बातों-बातों में मद करते हैं। वास्तव में मद जड़ की पर्यायों को लेकर होता है। शारीरिक पर्यायें यदि पूर्व में कुलीन न हों तो भी सच्चे चारित्र के संसर्ग से उच्च कुलीन हो जायेगा। भरत चक्रवर्ती के ३२ हजार रानियाँ म्लेच्छ खण्ड की होती है, वे भी भरत के संसर्ग से उच्च कुलीन हो जाती हैं। आत्मा में जब उज्ज्वल भाव जाग्रत होते हैं तो उसका प्रभाव शरीर पर भी पड़ता है। जैसे-जैसे उज्ज्वल भाव को मनुष्य अपनाता है तैसे-तैसे उसका शरीर भी उज्ज्वल बनता जाता है। जब शुद्धोपयोग स्थिर रह जायेगा तब शरीर भी परम औदारिक हो जायेगा, वह सप्तधातुओं से दूर हो जायेगा, तथा उसमें निगोदिया जीव नहीं रहेंगे। बिल्कुल अचित, शुद्ध बन जायेगा। आत्मा में परिणाम उज्ज्वल हो तो उसे कुलीन कहना पड़ेगा। प्राय: संसारी प्राणी शरीर को अपना मानता है, उसमें ही सुख मानता है। आचार्यों ने इसीलिए कहा है कि शरीर को लेकर जो ग्लानि, मद होते हैं, वे आत्मा के स्वभाव नहीं है। जब आत्मा में विचार, मनन, चिंतन किया जाये तो शरीर गौण हो जाता है। शरीर उसी स्थान पर ही है, पर धार्मिक क्षेत्र में उसका ज्यादा सम्बन्ध नहीं रहता। जीव का उद्धार शरीर पक्ष गौण होने पर होगा। कुल मद, गोत्र मद गौण होने पर आप उद्धार कर सकते हैं। गोत्र कर्म पर अभिमान समाप्त होना चाहिए। अभिमान मोह को लेकर होता है। सम्यग्दर्शन, ज्ञान, मोक्ष मार्ग, आत्मा के विकास के लिए मोहनीय कर्म का क्षयोपशम जरूरी है। ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम मोक्षमार्ग के लिये कारण नहीं है। मोहनीय कर्म का क्षयोपशम जरूरी है। अनन्तानुबंधी का क्षयोपशम होने पर सम्यग्दर्शन पैदा होता है। अत: अनन्तानुबन्धी मद नहीं करना चाहिए। शरीर की सुरक्षा के लिए जो भाव हैं, वे मद नहीं हैं। भोगभूमि में उच्चकुल आदि का विचार नहीं होता यहाँ मनुष्यों में होता है। भोगभूमि में अत्याचार, अनाचार नहीं होता पर वे उनके त्यागी नहीं होते। मिथ्यादर्शन व सम्यग्दर्शन दोनों के साथ उच्च नीच का विचार नहीं है। अत: इस गोत्र कर्म को मिटाने के लिए कार्य करना है। गोत्र पर अभिमान करने पर फिर गोत्र कर्म का बंध होता है, उसके अगुरु लघुत्व का प्रादुर्भाव नहीं होता। ऊँचा नीचा गोत्र कर्म के अधीन है। अत: उस पर अभिमान नहीं होना चाहिए। आत्मा के उज्ज्वल भाव को उच्चकुलीन माना है। सबका भला चाहने वाले का कुल भी उच्च व पूजनीय बन जाता है। बंधन करना खुद के साथ दूसरे के लिए भी बंधन होता है। रोने वाला खुद भी रोता है, तथा दूसरे को भी रुला देता है, दुखी बना देता है। महावीर ने पृथ्वी को कुटुम्ब नहीं माना पर पृथ्वी पर रहने वालों को कुटुम्ब माना। वही माता-पिता कृतार्थ हो जाते हैं जिनका बालक अष्ट कर्मों को नष्ट करने के लिए मोक्ष मार्ग को अपनाता है। लेकिन आप अपने आपको धन्य समझते हैं, बेटे बेटियों की शादी करने में, क्योंकि गोत्र को सुरक्षित रखना चाहते हैं। लेकिन धर्माचार्य जो ग्रन्थ लिखते समय अष्ट कर्मों से वेष्टित थे, फिर भी उन्होंने अष्ट कर्मों को संसार का कारण माना। ये कर्म राग द्वेष के द्वारा होते हैं, और राग द्वेष अच्छा बुरा मानने पर होते हैं। महावीर ने जब संसार को अच्छा नहीं माना तो उनके उपासक अच्छा क्यों मानते हैं? महावीर ने तो मोक्ष को अच्छा माना। आप लोग अपने बच्चों की जल्दी-जल्दी शादी करके गले में माला डालकर दो पाये से चार पाये वाला बना देते हैं। दो पैर वाले को कौन बाँध सकता है, पर चार पैर वाले के तो पट्टा बाँध देते हैं। उसे चतुर्भुज बना देते हैं, यानि चारों गतियों का मालिक बना दिया। चार पैर, चार हाथ रखकर मोक्ष का संपादन नहीं कर सकता। गोत्र कुल को सुरक्षित रखने को विवाह करता है। संसार में आत्मा भटकता आ रहा है। अनंतों बंधन कट जाये जब जागृत अवस्था में आत्मा हो, नींद नहीं लगी हो, गाढ़ नींद मत लगने दो। क्योंकि जो मोह नींद में सो जाये तो धार्मिक गूंज उसके कानों तक नहीं पहुँच सकती, क्योंकि वह भावों के विकल्पों में बंधा हुआ है कुल को आभूषण मानता है। सिद्धों के ८ गुण भी ८ कर्मों के अभाव में होते हैं। आप ८ कर्मों व उनके फलों को सुरक्षित रखना चाहते हैं, यही भूल है। आठ कर्म तो भिन्न हैं ही, पर उनको माध्यम बनाकर निमित रूप से फल मिलता है वह भी आत्मा से भिन्न है। पर आप कर्म व उनके फलों की अनुभूति चाहते हैं। साता व असाता के उदय में हर्ष-विषाद, राग-द्वेष होता ही है। आप कर्म व उनके फलों को भिन्न मानकर गौण करो, तभी आत्मा की अनुभूति होगी। मद के अभाव में अनुभूति होगी। वह दुखी रहेगा जो कर्मों की ओर दौड़ रहा है, उनके फलों को चाह रहा है। भगवान् कर्म का उदय नहीं लाते वे तो निष्पक्ष हैं। पक्षपात से दूर, हर्ष विषाद से दूर हैं, वे कर्मों से दूर हैं, वे कर्मों को जीवन में नहीं लाते। सम्यक दृष्टि को कर्मों से दुख होता है, वह कर्मों को व उनके फलों को नहीं चाहकर मोक्ष को चाहता है। आत्मिक परिणामों को चाहता है। मद अपने से भिन्न परिणामों को लेकर होता है। आत्मिक परिणाम में मद नहीं है। अत: चैतन्य शक्ति के बारे में विचार करो, कर्मों को, मदों को फेंक दो। जिस प्रकार स्वादिष्ट पदार्थ बहुत ज्यादा गर्म होने पर हाथ में रखने पर फेंक देते हो, उसी प्रकार कर्म व फलों को भी फेंक दो। जब कर्म बाँधते समय मुहूर्त नहीं तो छोड़ते समय भी मुहूर्त नहीं है। कर्म व फल भिन्न हैं, दूसरे के अधीन हैं। इन पर, मदों पर हर्ष-विषाद न करो, राग-द्वेष न करो, तभी वीतरागता के भाव जागृत होंगे और आप पूज्य हो जाओगे।
  11. कल ज्ञान मद के बारे में सुना। आज दूसरा जो पूजा मद है, उसके बारे में कहना है। किसी एक अवस्था को लेकर यह व्यक्ति जिस क्षेत्र में रहता है, वहाँ के लोगों से पूजा, सत्कार, विनय चाहता है। अपने गुण गान चाहता है। यही मद है। लेकिन प्राणी को यह मालूम नहीं कि अपनी पूजा, यश, कीर्ति वास्तव में किस में निहित है। पूजा, लाभ के पीछे पड़ने से ये चीजें छूट जाती हैं। जो पूजा कीर्ति चाहता है, वह अपने आपको नहीं पहचानता। मानाभिभूत मुनि आतम को न जाने, तो वीतराग प्रभु को वह क्या पिछाने ? जो ख्याति लाभ निज पूजन चाहता है, ओ! पाप का वहन ही करता वृथा है। आपने संसार का विनाश हो (छूट जाये) उसके अनुरूप कार्य किया ही नहीं। जिस प्रकार का कर्म करेंगे, उसका वैसा ही फल मिलेगा। ख्याति लाभ पूजा न कोई देता है, न कोई लेता है, ये सब काल्पनिक विषय हैं। वास्तविक मोक्षार्थी वही है, जो इन क्षणिक पर्यायों को दुख का कारण मानता है। श्रेयोमार्गी वही कहलाता है, जो क्षणिक पर्यायों को सुखकर नहीं मानता, वह मानसम्मान, ख्याति-लाभ को नहीं चाहता, वह तो किए कर्मों को नेस्तनाबूत (समाप्त) करना चाहता है।वह सोचता है कि कल जिसकी पूजा हो रही थी। आज उसे गाली दी जा रही है, कल जिसका अपमान हो रहा था, आज वही सम्मान पा रहा है। वह इन क्षणिक पर्यायों में हर्ष-विषाद नहीं करता, वह जानता है अनेक जन्मों के किए कर्मों के फलों को भुगतना पडेगा, कर्म सिद्धान्त में भूल नहीं होती। कर्म जिस सीमा में बंधेगा, वह उसी सीमा में उदय में आकर फल दिये बिना नहीं रह सकता है। जब उस श्रेयोमार्गी को विश्वास हो जाता है, तो इनमें हर्ष विषाद नहीं करता। हर्ष विषाद मान कषाय को लेकर होता है। मान कषाय जब गृद्धता को लेकर होती है, तब मद पैदा होता है। अत: हे जीव! समझ! तेरा हित अहित किसमें है? अहित से बचना ही हित की ओर अग्रसर होना है। ऐसा कोई व्यक्ति नहीं जो गर्त या अग्नि में पैर रखेगा। वह शरीर को बचाने की चेष्टा करेगा। घर में अग्नि लग जाने पर सामग्री को छोड़कर जीवन को बचाना चाहेगा। सुजान हित चाहता है, वह मद आदि को, दुख को बंधन का कारण मानता है। जो सुख, स्वाधीनता प्रदान करने वाला है, उसे जल्दी-जल्दी प्राप्त करने की चेष्टा करेगा। हाथ में एक तरफ विषय सामग्री हो और चाहे कि मोक्ष मार्ग मिल जाये, यह नहीं हो सकता है। जो हाथ में विषय पकड़ रखा है, उसे छोड़ दी, वही मोक्ष मार्ग है। वास्तविक हित जिसमें है, उसकी सुरक्षा के लिए कोशिश करनी है। ख्याति, लाभ, पूजा में पड़कर वास्तविक नाम को नहीं खोना है, वास्तविक नाम आत्माराम है। यह पूजा मद खतरनाक है। वित गृहस्थ के लिए इतना खतरनाक नहीं है, जितना मद है। मदिरा का असर तो सीमित होता है, कम नशा भी होता है। लेकिन मद का प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता। मद की सामग्री शराब, गाँजा आदि मादक पदार्थ नहीं हैं। मद आत्मा की नशीली चीज है। आत्मा को नशा चढ़ जाये तो अमृत भी पिला दो तो भी नशा नहीं उतरेगा। मद का नशा चढ़ने पर ही ज्ञान शक्ति खत्म हो जाती है। अत: आत्मा पर नशा चढ़े ऐसे मद से बचने की आवश्यकता है। मद का नशा ४ तरह से होता है। सबसे पहले युवावस्था का नशा। कहते हैं कि गधा पच्चीसी लगी है। सो २५ साल तक की उम्र में गधे के समान आचरण प्राय: करके हो जाता है। युवावस्था होने के साथ रूप मिल जाये तो और भी लहर आ जाती है, फिर वित्त मिल जाये और अंत में हुकूमत भी मिल जाये तो वह पागल हुए बिना नहीं रहेगा। आप भी वित्त, रूप, युवावस्था हर दम चाहते हैं। लेकिन अपने आप चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ जायेंगी, कंचन सी काया मिट जाएगी तब जो इसमें रस लेता है, वह घबराऐगा, उदास हो जाएगा। घर से उदास नहीं होगा, धर्म से उदास होगा। जिन्हें वास्तविक ये चार चीजें नहीं चाहिए, वही सुजान है। जो संसार सामग्री को चाहता है, वह मोक्ष को नहीं चाहता, संसार को चाहता है। मोक्ष मार्गी हुकूमत को नहीं चाहता। आप अपनी Credit परसनेलिटी, नाम चाहते हैं। आत्माराम को आराम को नहीं चाहते, यही भूल भरी बात है। आप वास्तविक रहस्य को समझते ही नहीं। जो पूजा को नहीं चाहता है, वही पूजक बनने वाला है। ज्ञान उत्पन्न होने के बाद हेय से बचने और उपादेय का संकलन करेगा। विवेक होने के बाद हेय का संकलन व विकास नहीं हो सकता। कोई रोगी रोग से दूर होना चाहे और दवा भी न लेवे तो रोग दूर नहीं हो सकता। शरीर व वचन पर बंधन हो सकता है, पर विचार पर कोई बंधन पट्टी नहीं है, विचार के लिए आँख खुली है। गलत भाव आ जाएँ तो कान पकड़ ली। शरीर के कान नहीं पकड़ना है, बल्कि उसके लिए पश्चाताप, प्रतिक्रमण करो। गृहस्थ और मुनि दोनों मोक्ष मार्गी हैं। जिस प्रकार एक बच्चा पहली कक्षा में दूसरा एम.ए. में पढ़ता है पर कहलायेंगे विद्यार्थी ही। पढ़ाने में फरक हो सकता है पर शिक्षक में नहीं। समंतभद्राचार्य का विषय गृहस्थ को लेकर और कुन्दकुन्द का मुनि को लेकर था। समंतभद्राचार्य ने गृहस्थों को सम्बोधित करने तथा कुन्दकुन्द ने मुनियों को सम्बोधित करने का कार्य किया। मद मोक्षार्थी के लिए बाधक है। वर्तमान में मद के जो भाव हैं, उनसे घृणा होना ही पश्चाताप है। वित्त को लेकर मद नहीं चाहेंगे। वित्त तो शरीर के लिए माध्यम हो सकता है। वित्त आने पर शरीर चले, नहीं भी चले, पुरुषार्थ करने पर भी फल मिले ही, यह बात नहीं है। विधि प्रतिकूल होने पर पुरुषार्थ भी ठण्डे पड़ जाते हैं। रूप हुकूमत को लेकर अभिमान नहीं करना चाहिए, ये क्षणिक है, कर्म का उदय है तब ये मिलते हैं। ऐसे कर्म भी उदय में आ सकते हैं कि जो आपके यहाँ नौकर हैं, उनके यहाँ जाकर भी आपको सेवा करनी पड़े। इसमें जो सुजान है, वे हर्ष विषाद नहीं करते। हरिश्चन्द्र राजा का उदाहरण आपके सामने है, हरिश्चन्द्र ने राजा होकर भी हरिजन के घर नौकरी की। जो कर्म को समझता है, वह हर्ष विषाद नहीं करता। अभी आपके पास ज्ञान है। जब ज्ञान धन लुट जायेगा तो कर्म फल को नहीं झेल सकोगे। अत: कर्म रूपी ऋण से अऋण होना चाहते हैं तो मद नहीं करें, तभी वास्तविक सुजान बन सकते हैं। छोटा बड़ा मोक्ष मार्ग में नहीं है। जो मद हर्ष विषाद से दूर हो गया, अपने आपमें स्थित है, वही पूज्य है।
  12. सम्यक दर्शन के लिए ८ अंगों का पालन, देव, शास्त्र, गुरु पर अटूट विश्वास तथा तीन मूढ़ताओं से दूर होना बताया है, तभी मोक्षमार्ग प्रशस्त बनता है। मान कषाय के वशीभूत होकर यह प्राणी अपने स्वभाव को भूल जाता है। मान जब बहुत गृद्धता को प्राप्त कर लेता है, तब मद के रूप में परिवर्तित हो जाता है। मन, वचन, काय से जब मान कषाय बाहर आती है तब वह मद हो जाती है। अनेक ग्रन्थों का मंथन कर दौलतरामजी ने छहढाला में कहा है कि सम्यक दर्शन में दोष लगाने वाला मद है। गंदे मुख को गंदे हाथ से साफ नहीं किया जाता है। बल्कि साफ हाथ से गंदे मुख को साफ किया जाता है। सम्यक दर्शन को निर्मल बनाने के लिए मद को हटाकर निरभिमानता को अपनाना चाहिए। आप लोगों का समय प्राय: करके मद की उन्नति में ही चला जाता है। मात्र खाने, पीने, यत्र, तत्र, विचरण करने अथवा मूछ ऊपर करने में ही आपको रस आता है। इनके वशीभूत होकर बहुमूल्य समय को गंवा देते हैं। जिसने आत्म स्वभाव का चिंतन किया है, वह इस बारे में नहीं सोचते हैं। ज्ञान विवेक होने पर इस प्रकार गड़ों से बचना है। आपको सोचना है कि विवेक को किस उपयोग में लाया जाये। आचार्य महोदय, जो कि मद से दूर हैं उनने सर्वप्रथम ज्ञान का मद बताया है। ज्ञान के मद के बारे में विवेचन लिख बोल कर भी नहीं कर सकते। ज्ञान कब मद होता है तथा कब मोक्ष मार्ग का कारण बनता है? जब ज्ञान बाहर की ओर दौड़ता है, नाम चाहता है, तब क्षणिक होता है। जब वही ज्ञान अपने आपको सुधारने में लग जाता है, तब सम्यक् ज्ञान कहलाता है। आज तक हमारा ज्ञान संसार का कारण बना और संसार दुख का कारण है। आप लोगों को शाब्दिक ज्ञान के लिए उपासना नहीं करनी है। शाब्दिक ज्ञान से आप मोक्ष मार्ग नहीं, संसार मार्गी कहलाओगे। शाब्दिक ज्ञान पुस्तकों में मिल सकता है, आत्मिक ज्ञान नहीं। आत्मिक ज्ञान शाब्दिक नहीं है, वह अन्दर ही उत्पन्न होता है, वह पौदूलिक नहीं है। शाब्दिक ज्ञान ध्येय नहीं, माध्यम है। पण्डितों के पास पोथियों का सीमित शाब्दिक ज्ञान होता है। अन्दर का ज्ञान पूर्ण होता है। ज्ञान दर्शन को मोक्ष मार्ग नहीं कहा, बल्कि सम्यक्र युक्त दर्शन ज्ञान चारित्र को मोक्ष मार्ग बताया है। शाब्दिक ज्ञान को नहीं, आत्मिक ज्ञान को टटोलना है। शब्दों के द्वारा ज्ञान को पकड़ते हैं तो स्खलन होता है। ज्ञान में स्खलन होगा तो शब्दों में भी स्खलन हो जाता है। ज्ञान कुछ ओर चाहता है, शब्द कुछ ओर चाहते हैं। रटने से अन्दर के भाव जागृत नहीं होंगे। प्रतीति सत्य वह है जो शब्दों पर लक्ष्य नहीं, भावों से प्रतीति होवे। शब्दों को पकड़कर मोक्ष मार्ग को तीन काल में भी नहीं अपना सकते। ज्ञान और शाब्दिक ज्ञान में अन्तर है। वास्तविक ज्ञान से शब्दों में अन्तर नहीं पड़ता है। अन्दर जो कुछ है, उसे ही बाहर लाने की चेष्टा होगी। आज वक्ता और श्रोता शब्दों को पकड़कर अन्दर के ज्ञान को महत्व नहीं देते। दूसरे को आकर्षित करने के लिए, यश, पूजा, आदर कीर्ति पाने के लिए जो ज्ञान है, वह वास्तविक ज्ञान, प्रभावना नहीं कहलाएगा। आप चाहते हैं, शब्दों का प्रयोग करना, भले ही भाव चले जायें तो परवाह नहीं। एक अंग्रेज को जैन धर्म के वास्तविक मर्म को समझाने के लिए अंग्रेजी में ही समझाना होगा न कि संस्कृत-हिन्दी में। ऐसा होना चाहिए कि भावों को ठेस न पहुँचे, सिद्धान्त में अन्तर न आवे चाहे शब्दों में परिवर्तन आ जाये। अन्दर का आशय समझाना है। शब्द भले ही भिन्न हों, पर आशय एक हो। शब्द जहाँ से निकल रहे हैं, उसका नाम ज्ञान है, उसका विकास करना है, उसको लेकर मद की प्रादुभूति नहीं होगी। शब्दों को लेकर मद पैदा होता है। स्वभाव का परिज्ञान ही ज्ञान है, उसको लेकर मद नहीं होता। जो मद में डूबे हैं वे नरक कुण्ड में ही पड़े रहेंगे। अत: निर्मद होकर, निरभिमान होकर अपने जीवन में विकास करना है, तभी आप अनन्त सुख का अनुभव कर सकते हैं। आचार्यों का लक्ष्य ग्रन्थों की रचना कर मद का, विद्वता का प्रदर्शन करना नहीं था वे तो उपयोग को स्थिर करने, उसे निर्मल, निर्मलतर, निर्मलतम् बनाने के लिए लिखते हैं। अत: उसी लक्ष्य को लेकर पढ़ें और आत्म कल्याण करें।
  13. दया विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार आगम का उल्लंघन करने वाला कभी भी दया का पात्र नहीं बन सकता, उसकी दशा हवा की संगति में आये बादलों की तरह हो जाती है। जिनवाणी की उपासना करने का अर्थ है, हृदय का दया से ओतप्रोत हो जाना। वासना का नहीं बल्कि दया, अहिंसा का आदर्श निर्णय होता है। जैसे नेमिनाथजी ने लिया था | दया के बिना धर्म की शुरुआत ही नहीं होती। दया धर्म के अभाव में कोई पूज्य नहीं बन सकता। दया धर्म का पालन करने वालों को देवता भी बार-बार नमस्कार करते हैं। अहिंसक की उपासना भी अहिंसा पूर्वक ही होनी चाहिए। जिसे मात्र वस्तु का स्वरूप ही धर्म लगता है और "दया विसुद्धो धम्मो" धर्म नहीं लगता वह अपने परिणाम आप ही जाने। यदि आपके पास दया है तो धर्म आपके पास है, वह आपकी रक्षा हमेशा करता रहेगा। दया धर्म की महिमा अपरम्पार है। राजा श्रेणिक ने मुनिराज पर उपसर्ग करने के बाद पश्चाताप करके तैतीस सागर की आयु को चौरासी हजार वर्ष में परिवर्तित कर दिया। अपने मन में दूसरे के प्रति करुणा के भाव उमड़ते रहना, धार्मिक बने रहने का अहसास देता रहता है। दया, करुणा, अनुकम्पा अंतरंग क्रियाएँ हैं और वह बाहर अपनी प्रतिक्रिया दिखा देती है। घोड़े को चलाने वाला व्यक्ति चाबुक मारते समय लगाम को छोड़ देता है, क्योंकि उसके अंदर भी दया के अंकुर हैं। यदि आप दया नहीं करते तो आपके हाथ भी पैर के रूप में (जानवर की तरह) कार्य करने लगेंगे। जिनशासन की प्रभावना विश्व भर में दया के माध्यम से ही हो सकती है। दया, दम के लिए और दम त्याग के लिए और त्याग, समाधि के लिए कारण है। दयावान के सामने शेर और गाय एक ही घाट पर पानी पीते रहते हैं। दया धर्म के कारण तिर्यञ्च भी जात्य बैर छोड़ देते हैं। दया (अभयदान) से बढ़कर और कोई दान नहीं होता। दया, अनुकम्पा सहित सम्यक्दर्शन ही सक्रिय सम्यक्दर्शन माना जाता है। दयापूर्वक किया गया तपश्चरण मोक्षरूपी वृक्ष का बीज है और सभी ऋद्धियों का कारण है। अहिंसा सभी व्रतों की माँ है, रत्नत्रय की खान है एवं समस्त जीवों का हित करने वाली है।
  14. सम्यक दर्शन, ज्ञान, चारित्र की समष्टि सो मोक्ष मार्ग है। हरेक क्षेत्र में समन्वय की नीति काम करती है। एक कार्य की निष्पति के लिए अनेक कारण अपेक्षित हैं। इसीलिए आचार्यों ने मोक्ष मार्ग में सम्यक दर्शन, ज्ञान, चारित्र इन तीनों अंगों को कारण माना। हमारी शक्ति नष्ट नहीं हुई है, पर बिखरी हुई है, वह एक साथ हो जाये तो काम बन सकता है। आत्मा के पास ज्ञान, दर्शन, चारित्र का अभाव नहीं है, पर शक्ति बँटी हुई है। आचार्यों का ग्रन्थ लिखने का यही उद्देश्य था कि जो शक्ति बाहर बिखर रही है, उसे अन्दर लगा दिया जाये, तो काम बन सकता है। संसारी प्राणी की नीति बंटवारे में रही है, संग्रह में नहीं। संग्रह करेगा भी तो अकेला रहकर। शक्ति को केन्द्रीभूत करो, जब तक शक्ति केन्द्रीभूत नहीं होगी तब तक ध्यान भी नहीं होगा। ध्यान के लिए दर्शन ज्ञान चारित्र पूर्ण रूपेण एक होने चाहिए। आप लोगों की शक्ति यदि एक घर में रह जाये तो गाँव पर प्रभाव पड़ सकता है। कोई तकलीफ नहीं देगा अलग रहने पर किसी विशेष कार्य को नहीं कर सकते। नाचने, बजाने व गाने वाला तीनों एकता में होंगे तो ही आनन्द आयेगा, वरना नहीं। पृथक्-पृथक् परिणमन में रुचि, रस नहीं आता, हानि ही होती है। आप लोग शारीरिक, वाचनिक व मानसिक शक्ति को दिन भर बांटते रहते हैं, इनको एक रूप कर दें तो तीन लोक को जीत सकते हैं। हम अपने बल की उपयोगिता न करके दुख पा रहे हैं, भटक रहे हैं। अनेकान्त का मतलब एकता है। अनेकांत दृष्टि एकता का प्रतीक है। अनेकान्त का मतलब शक्ति को इधर उधर खर्च न कर समीचीन रूप में काम में लेवें। एकांतपने को लेकर जो चलते हैं, वे स्व का और पर का घात करते हैं। एक दूसरे का उपकार करने वाले, एक दूसरे का मूल्यांकन करने वाले स्व का और पर का कल्याण करने वाले हैं। बिजली जो हर समय काम आती है, उसका क्या रहस्य है? करेंट तभी आता है जब एकता को धारण करते हैं। दोनों तारों का सम्बन्ध होने पर बिजली प्राप्त होगी। Connection मिलने पर उजाला होगा। एकांत व अनेकांतवादी मिल जाये तो सुख ही सुख है। एकांतवादी आपस में नहीं मिल पायेंगे। शरीर के पास शरीर बैठने से काम नहीं होगा। मन के पास मन बैठने से काम होगा। मन का सम्बन्ध आत्मा के साथ है। धार्मिक क्षेत्र में भी शरीर-वचन के Control में होने के बाद मन का कंट्रोल न हो तो ज्ञान शक्ति को उपयोग में नहीं ला सकते। सुख की इच्छा करने वाले के लिए हरेक क्षेत्र में एकता की बड़ी आवश्यकता है। आप लोगों का बल जब बँट जायेगा तो कीमत नहीं रहेगी। दूसरों का महत्व कम करने के कारण ही आज भारत में जैनियों की संख्या धीरे-धीरे कम होती जा रही है। केवल पैसे से ही काम नहीं होता। जब तक आप समाज में रहेंगे, तब एक दूसरे का कार्य अपेक्षित है। पड़ोस में वैरी भी होगा तो भी आपकी सुरक्षा ही होगी। जंगल में एकांत स्थान में जहाँ पड़ोसी न होंगे तो नींद भी नहीं आएगी। हरेक व्यक्ति एक दूसरे की हरेक दृष्टि से सहायता करता रहता है। भारत में एकता का अभाव होने पर ही ब्रिटिश लोग आए और राज्य किया। एकता का अभाव महान् दुख का कारण है। सम्यक दर्शन, ज्ञान, चारित्र की एकता के लिए बार-बार आचार्य महोदय प्रयास कर रहे हैं। एक गाड़ी के दो पहियों में से एक का स्कू ढीला होने पर दूसरे का स्कू भी ढीला हो जाएगा और चल न सकेगा। बैल भी एक ही तरफ चलेंगे तो गाड़ी चलेगी। अत: जब तक हम शक्ति को केन्द्रीभूत नहीं करेंगे तब तक कुछ नहीं होगा। सूर्य की किरणों में शक्ति निहित है, पर फैली हुई है, जब एक स्थान पर केन्द्रित कर दी जाये तो यह प्रकाश जला भी देगा। लकड़ी से लकड़ी टकराएगी तब भी अग्नि होगी। एक ही स्थान पर जोर से पानी गिरने पर ही बिजली होती है। अभेदपने को अपनाने पर, एक दूसरे के मिलने पर ही तीसरी चीज पैदा होती है। लेकिन आपके दर्शन ज्ञान चारित्र पर मोह का साम्राज्य हो रहा है। जब ये तीनों मिल जायेंगे तो मोह भाग जायेगा। समष्टि, मिलने या केन्द्रीभूत का नाम ही ध्यान है। इसके लिए प्रयास करना है, तभी केवल ज्ञान रूपी बिजली पैदा होगी। शक्ति का सदुपयोग ही सम्यक दर्शन और शक्ति का दुरुपयोग मिथ्यादर्शन है। सम्यक दर्शन से सुख और मिथ्यादर्शन से दुख होता है। शारीरिक मानसिक चेष्टा से विश्व के ऊपर महावीर के उपदेशों का प्रभाव पड़ेगा। अभी तो सिर्फ आप इस कार्य के लिए शारीरिक व वाचनिक चेष्टा ही कर रहे हैं। धर्मचक्र का समादर शक्ति को एक करके करना। तन, मन, धन लगाकर कार्य करना है। निर्वाण महोत्सव के अन्दर यह एक महत्वपूर्ण कार्य है। यह धर्म चक्र सब जगह जाकर प्रभाव डालेगा, इसके द्वारा बहुमुखी प्रचार होगा। आप उसे देखकर, तन-मन-धन लगाकर अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। अपने जीवन में यह अनमोल घड़ी आई है। अभीक्षण ज्ञानोपयोग को दुनियाँ के सामने रखने की चेष्टा ही प्रभावना है। तप भी प्रभावना का अंग है। भगवान् महावीर के रूप को तप के द्वारा सामने रखना। आकर्षित करने योग्य कार्य, धर्म के समीप लाने योग्य कार्य करने वाला व्यक्ति पूजा कर प्रभावना कर सकता है। ऐसा करने पर अहिंसा तत्व को हरेक व्यक्ति जान सके, अपना सकेगा। धर्म चक्र आपके यहाँ भी आएगा, यह सौभाग्य की बात है। जब आवे तब बहुत एकता की आवश्यकता है।
  15. दान विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार दानादि करने से पाप घटता है, पुण्य बंधता रहता है एवं मोह भी कम होता जाता है। जिस घर में मुनि को आहारदान नहीं दिया जाता वह घर, मरघट के समान है। दाने-दाने पर खाने वाले का नाम के साथ दाने-दाने पर देने वाले का भी नाम लिखा होता है। दान देने का अर्थ है, सागर में से पानी निकालना। सागर का पानी निकालने से कभी कम नहीं होता वैसे ही दान देने से धन कभी कम नहीं होता। दान करने से धन नहीं घटता बल्कि पुण्य क्षीण होने से धन घटता है। दान देने से तो पुण्य की वृद्धि होती है और लक्ष्मी (धन, दौलत) पुण्य की दासी है। जो दान देते समय लेखा-जोखा नहीं रखता, उसके यहाँ धन की कभी भी कमी नहीं आती। धन का जो बांध है, उसे विधानादि के माध्यम से रिसाना चाहिए वरन् खतरा पैदा हो सकता है। धन का त्याग संसार त्याग व मोक्ष प्राप्ति का उपाय है। यदि हमारी मन, वचन एवं काय की चेष्टाओं के निमित्त से किसी को मोक्षमार्ग मिलता है तो इससे बढ़कर और कोई लाभ नहीं, आज इससे बड़ी और कोई साधना नहीं है, उपलब्धि नहीं है। दूसरे के जीवन में भी यह आत्मवैभव का श्रद्धान हो जावे ऐसा दान चैतन्य दान है। सम्यकदर्शन-ज्ञान-चारित्र का दान अनमोल दान है। दान करें पर अभिमान न करें वरन् उस दान का सही फल प्राप्त नहीं होगा, कर्म निर्जरा नहीं होगी, दान अपने आप में वैयावृत्त नाम का तप है। दान, पुण्य के द्वारा अपने पापों की गंदगी धो लो। पात्र के योग में दाता का पाप पुण्य में बदल जाता है या पाप नष्ट हो जाता है। जैसे जल खूनादि को धो देता है वैसे ही दान, गृहस्थी सम्बन्धी कार्यों से उपार्जित सुदृढ़ कर्मों को नष्ट कर देता है। मन में विशुद्धि पैदा होना दानादि का तात्कालिक फल है। अभयदान प्राप्त होना ही दान का सही फल है। शुद्धि का अर्थ-दाता शरीर से निरोग हो एवं अपवाद से रहित हो वही शुद्ध दाता है यही दाता की बाह्य शुद्धि है। दान देने में पास तो सभी हो जाते हैं पर शत/प्रतिशत अंक सभी को नहीं मिल पाते। दान देने से राग छूट गया यही तो साक्षात् फल मिल गया एवं संवर निर्जरा हो गयी। यह सब श्रद्धान का फल है। दान देने से कर्मो की संवर व निर्जरा होती है ऐसा श्रद्धान रखना चाहिए। दानादि तो श्रावक के कर्तव्य हैं, उनके प्रदर्शन का सवाल ही नहीं उठता। दान के विषय में कहा है कि दायें हाथ से दिया तो बायें हाथ को भी पता न लगे। दान, प्रतिदान की भावना रखकर नहीं देना चाहिए। जैसे तंत्र, मंत्र मिल जाएगा, ऐसे भाव रखकर दान देना प्रतिदान की भावना कहलाती है। धर्मामृत की प्राप्ति हो ऐसी भावना से दान देना चाहिए, धन प्राप्ति के लिए नहीं। पात्र, साधुजन यथाजात बालक के समान होते हैं। उन साधुओं को भी बालकों जैसा विधि विधान से आहारदान देना चाहिए। ज्ञानदान को उपकरण दान के रूप में स्वीकारा है। सम्यकदर्शन में कारणभूत जिनायतन भी उपकरण दान में आते हैं। शास्त्र, पुस्तक को तो मात्र मनुष्य ही पढ़ सकता है लेकिन प्रतिमा का, वीतराग मुद्रा का दर्शन तिर्यंच भी कर सकता है और सम्यकदर्शन भी प्राप्त कर सकता है। आहारदान तब तक काम करता है जब तक भूख दुबारा न लगे पर जिनायतन में दिया गया दान अनंतकालीन मिथ्यात्व को धो देता है। मनुष्य का कार्य एक जंगली सुअर ने कर दिया और वह आवास दान में प्रसिद्ध हो गया। पूर्व दान, त्याग, तप के माध्यम से इस भव में माहात्म्य वैभवादि प्राप्त होता रहता है। जैसे जब तक पेड़ है तब तक उससे छाया, फल आदि मिलते रहेंगे। मान/सम्मान के लिए नहीं बल्कि दान का सही उपयोग हो इसलिए दान दिया जाता है।
  16. परमार्थ से संबन्ध रखने वाले शास्त्र, तपस्वी, परमार्थरूप देव, ये तीनों संसारी प्राणियों के लिए औषध के समान हैं। संसारी प्राणी रोगी के समान हैं, उसे समीचीन औषध मिल जाये तो रोग चला जाएगा। समीचीन औषध के अभाव में ही यह रोग अनादि से लगा है। ज्ञान और विश्वास दोनों जरूरी हैं। जो खुद रोगी है, वह दूसरों का इलाज नहीं कर सकता है। उसी प्रकार संसारी प्राणी संसारी जीव को रास्ता नहीं बता सकता, वह तो खुद बीमार, रोगी है। संसारी जीव पर देव, शास्त्र, गुरु का प्रभाव पड़ता है। अपनी आत्मा के स्वभाव को भूल जाना और दूसरे पदार्थ को पकड़ना चोरी है। हम अनादिकाल से दूसरे पदार्थों को पकड़ने के कारण चोर ही बने हैं, साहूकार नहीं बने। दूसरे पदार्थों से संबंध रखना चोरी तथा अपनी निधि को भूल जाना अज्ञान है। हमारी दृष्टि पारमार्थिक नहीं बनी। वैराग्य धारण करने के बाद मुनिराज विश्व का कल्याण हो, ऐसी बात सोचते हैं। अत: परमार्थ की, वीतरागता की उपासना करो। सांसारिक कार्यों को पूर्ण करने के लिए धर्म का आलंबन नहीं होना चाहिए। यदि सांसारिक कार्यों के लिए देव-शास्त्र गुरु का नाम लेंगे तो संसार वृद्धि ही होगी, संसार का नाश नहीं। जब एक जीवन में ही १८ नाते तक भी हो जाते हैं तो अनेक भवों के नातों का तो कहना ही क्या ? जो नग्न दिगम्बर हैं, वे किसी से नहीं डरेंगे, उनके पास तो सिवाय पिच्छिकाकमण्डलु के कुछ नहीं। अगर आप पिच्छिका-कमण्डलु लेंगे तो आप भी मुनि बन सकते हैं। हम रात दिन शरीर, राज्य, धन, घर के पीछे पड़े हुए हैं। वीतराग मुनि जहाँ भी जाते हैं, तो समझ लो उस जगह के जीवों का उद्धार होने वाला है। महाराज के द्वारा परमार्थ की कमाई होगी, अर्थ की कमाई नहीं। यह जीव राग के विकास योग्य पदार्थों के समार्जन में लगा है। दिगम्बर वीतराग मुद्रा स्वपर कल्याण कारक है। जवानी तो शरीर की अवस्था है, पुद्गल का खेल है। जब अन्दर आत्मचिंतन, तत्व का चिंतन चलता है, तब ये पर्यायें नजर नहीं आती। आप लोगों का थकने योग्य कार्य हो रहा है। परमार्थ भूत तत्व देव शास्त्र गुरु की उपासना से अनादि से किए अनर्थ दूर हो जाएँगे। परमार्थ को जब वीतरागी मुनि समझाएँगे तो सब संसारी को चोर ही बताएँगे। मुनि जीवन मिलने के उपरांत भी संसारी जीव का कार्य स्वाधीनता पर आघात पहुँचाने वाला हो रहा है। परमार्थ की उपासना करने वाले मुनिराज महान् से महान् पापी को भी तिरा देते हैं। आपको ऐसा जीवन में कोई समय नहीं मिला जिसमें खाये, पीये, सोये नहीं हों। अब समंतभद्राचार्य आपको वीतरागता की ओर ले जाने की चेष्टा कर रहे हैं। आप देव-शास्त्र-गुरु की स्तुति, स्तुत्य बनने के लिए करें। उपासना करनी है, उपास्य बनने के लिए, न कि उपासक ही बने रहने के लिए। अनंत बार हरेक पर्यायें मिल चुकीं पर वीतराग रूप पर्याय नहीं मिली। अर्थ का समार्जन करते समय परमार्थ को मत भूलो, वरना फिर ८४ लाख योनियों में भटकते रहोगे, उपदेश भी नहीं मिलेगा। जो संकलन कर रहे हो वो तो मिल जाएगा। आत्मकल्याण के लिए ज्यादा समय नहीं चाहिए, जीवन निर्माण के लिए ज्यादा समय चाहिए। भवन निर्माण के लिए मात्र विचार ही करते रहे तो जीवन चला जाएगा,इंजीनियर अल्प समय में ढूँढ़ो और निर्माण करो। चातुर्मास में सुनकर जीवन निर्माण में लगो और अपने आप चातुर्मास करो, अभी तो १२ मास संसारी कार्यों में लगे हो। समय की कीमत करो। वीतराग देव, जिनवाणी, गुरु की उपासना कर जीवन को राग से हटाने पर वीतरागमय बन जाओगे।
  17. दर्शन विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार ‘‘प्रदर्शन तो उथला है दर्शन गहराता है”।
  18. सम्यक दर्शन का आठवां एवं अन्तिम अंग प्रभावना है। धर्म की प्राप्ति के लिए विशेष तौर से जो प्रयत्न किया जाये, उसका नाम प्रभावना है। जिस प्रकार शरीर की स्थिति के लिए अन्न-जल, वस्त्र जरूरी है, उसी प्रकार जीवात्मा के जीवन को चलाने के लिए उसके योग्य खुराक मिलनी चाहिए। मनुष्य के जीवन के लिए केवल अन्न-जल आदि ही जरूरी नहीं है, इनसे तो शरीर की सुरक्षा हो सकती है। किन्तु आत्मा का जीवन उसके योग्य भाव मिलने पर चलता है। आज तक हमने शरीर पुष्ट होने के लिए तो भावना भाई पर प्रभावना नहीं चाही। प्रभावना में शक्ति लगाकर अज्ञान रूपी अन्धकार को मिटा सकते हैं। प्रकाश के बिना जैसे हमारी गति रुक जाती है, उसी प्रकार ज्ञान के बिना सुख शांति नहीं। हमारे जीवन में इतना अन्धकार फैला है कि उसका अभाव हुआ ही नहीं। उसका अभाव ज्ञान से होगा। जिन शासन को अपने जीवन के साथ अपनाते हुए दूसरे को भी दिखावें। महावीर ने सच्चाई का मार्ग दूसरे को दिखाया खुद उस पर चलकर। जो अनादि से मिथ्या अन्धकार फैला है उसे हटाने के लिए सम्यक दर्शन ज्ञान, चारित्र को बताया। जिनशासन की महत्ता बताने के लिए आचार्यों ने जीवन के अंत समय तक चेष्टा की है, तभी यह जिनशासन अक्षुण्ण रूप से चला आ रहा है। जिनशासन की सुरक्षा गृहस्थों व मुनियों ने की है। जब तक धर्म के प्रति आस्था नहीं होती, तब तक धर्म की सुरक्षा भी नहीं होती। अज्ञान रूपी अन्धकार को निकालने के लिए जो प्रयास किया जाता है, उसका नाम अहिंसा है। मुनिराज किसी से अपेक्षा व उपेक्षा नहीं रखते, यही मुनियों के द्वारा प्रभावना है। कार्य के बिना रहना बहुत मुश्किल है। बिना कार्य किए रहना रागी-द्वेषी गृहस्थ का काम नहीं चलता। जब तक काम रहेगा तब तक चैतन्य की शक्ति जागृत नहीं होती। कार्य जब नहीं करेंगे, शरीर की चेष्टा कम हो जाएगी, बोलना कम हो जाएगा, विचार कम हो जायेंगे, तभी वास्तविक सुख मिलने लगेगा। अशुभ कार्य से निवृत्ति शुभ कार्य को अपनाकर हो सकती है, पर गृहस्थ शुभ कार्यों से निवृत्ति नहीं ले सकता, वह सत् कार्य करेगा ही। जिनके मन में किसी प्रकार का विकार नहीं है, वे ही दुनियाँ में जो चाहे कार्य कर सकते हैं। वे चाहते हैं सबको अन्दर का प्रकाश मिले, ज्ञान का उदय हो। अन्धकार दूर हो। अन्दर की एक किरण से तीन लोक जग मगा उठेगा। हमारे द्वारा यही अप्रभावना हो रही है कि अपनी निधि, प्रकाश को देखा नहीं, प्रकट ही नहीं किया। अहिंसा के उपासक में धर्म की प्रभावना की मन में उत्कंठा रहती है। मोक्ष मार्ग की, आत्म धर्म की प्रभावना हो, इस हेतु को लेकर आचार्यों ने ग्रन्थ लिखे जिसे पढ़कर, अध्ययन कर दूसरे भी लाभ उठावें। विद्वान्, सज्जन, महान् व्यक्तियों की यही शारीरिक, मानसिक, वाचनिक चेष्टा होती है कि सबका उपकार हो। महावीर ने अन्तिम समय तक खूब प्रभावना की। केवल ज्ञान तो कइयों को प्राप्त होता है, पर दिव्य ध्वनि हरेक को प्राप्त नहीं होती। मुझे तो ज्ञान मिल गया, पर दुनियाँ को प्रशस्त मार्ग दिखा दूँ ताकि सब मोक्ष मंजिल पहुँचे। १६ कारण भावना भाकर तीर्थकर प्रकृति का बन्ध हो सकता है। इससे करोड़ों अरबों जीवों का उद्धार हो सकता है। महावीर ने मिथ्यात्व रूपी अन्धकार को निकाल कर प्रकाश दिया, उनकी दिव्यध्वनि का आलम्बन लेकर गणधरों ने ग्रन्थों की रचना की। पूर्वजनों ने कितनी कितनी धर्म प्रभावना की, इसकी प्रशंसा किए बिना नहीं रह सकते। पौदूलिक अन्धकार से तो आप डर जाते हैं, पर मिथ्या अन्धकार से कितनी आत्मा की हत्या हो रही है उससे नहीं डरते। महावीर स्वामी चेष्टा कर स्वयं तो अन्धकार से दूर हो गये पर वे चाहते थे कि सबका मिथ्या अन्धकार दूर हो जाये और मंजिल प्राप्त करे। महावीर ने अपने ज्ञान का लाभ सबको दिया। हम अपनी प्रभावना के द्वारा किसी को लाभ किसी को हानि पहुँचाना चाहते हैं। पर सब को लाभ होना चाहिए। वास्तविक प्रभावना मुनि वीतरागी करते हैं। सम्यक दर्शन प्राप्त होने के बाद दण्ड भी देते हैं तो घमण्ड चूर करने के लिए न कि आत्मा को चूर करने के लिए। शिक्षा दीक्षा में यही दृष्टि रहती है कि समीचीन रास्ता बताया जावे। कुरास्ता, कुविचार छूट जाये, यही दृष्टि हमारे में हो। प्रभावना नाम के पीछे नहीं, काम के लिए हो। नाम तो सिर्फ महावीर का, धर्म का हो अपना नहीं। नदी प्रवाह के समान अहिंसा धर्म है। अहिंसा धर्म महावीर का नहीं। महावीर ने भी इसे अपनाया था। महावीर के पहले वो था, अनादि से है। इसे ज्यों ही अपना लेंगे, तो कल्याण हो जायेगा। यह अहिंसा धर्म अव्यक्त रूप से है। हम चाहेंगे तब अहिंसा धर्म, प्रभावना अंग को अपना सकते हैं। यह अभी साढ़े अठारह हजार वर्ष तक रहेगा। आप लोगों का कर्तव्य है, जीवन जब तक मिला है, तब तक प्रभावना करें, ऐसा ठेका ले लो। पूर्ण विकास अभी नहीं तो मोक्ष के रास्ते पर कदम रखेंगे तो मंजिल के पास पहुँच सकते हैं। मुनि अथवा गृहस्थ होकर धर्म प्रभावना करें। जीवन में जो ज्ञान प्राप्त हुआ है उसे बढ़ाते चले जाये तो एक दो भव में मुक्ति को प्राप्त कर सकते हैं, ऐसा विश्वास करने पर ही मुक्ति मिलेगी। बिना प्रमाद के मोक्षमार्ग को अपनाने पर मंजिल पास होती जायेगी। एक अंग को अपनाने पर भी सम्यक दर्शन टिक सकता है, सुख की प्राप्ति हो सकती है। आठों अंग चले गये तो सम्यक दर्शन नहीं रहेगा, अंग के बिना अंगी की पहचान नहीं। अत: एक न एक अंग को तो धारण करो।
  19. तीर्थंकर विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार तीर्थंकरों के घर में वियोगकृत दु:ख नहीं होता। २४ तीर्थंकरों के नाम पर २४ परिग्रह छोड़ दो। तुम भी आगे चलकर तीर्थंकर बन सकते हो। अरहंत भगवान् का शरीर सप्तधातु से रहित होता है। इसका अर्थ यह नहीं लेना चाहिए कि उनके शरीर में हड़ी संहनन आदि समाप्त हो जाते हैं, बल्कि ऐसा अर्थ लेना चाहिए कि उनके शरीर में सड़न/गलन नहीं होती। परमौदारिक केवली भगवान् के शरीर में निगोदिया जीव नहीं रहते। भव्य जीवों को मार्ग दिखाने के लिए तीर्थंकर भगवान् स्वयं उद्यत रहते हैं। तीर्थंकर भगवान् का परहित सम्पादन ही एक मात्र कार्य रह जाता है। तीर्थंकर भगवान् को जगत् मुमुक्षु कहा जा सकता है। तीर्थंकर भगवान् ने भी आचारांग मार्ग पर चलकर ही सिद्धत्व रूप फल प्राप्त किया है। तीर्थंकर भगवान् ने भी इस चारित्र को स्वीकारा है। धन्य हैं वे लोग जो इस महाव्रत का पालन करते हैं। तीर्थंकर बालक अवस्था (गृहस्थावस्था) में कभी भी आहारदान नहीं देते, फिर भी सभी को पूजा और दान का उपदेश देते हैं। ८ वर्ष की उम्र के बाद तीर्थंकर देश संयमी जैसे हो जाते हैं।
  20. तत्त्व विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार तत्व ज्ञान होने से आत्मा में विश्वास जागृत हो जाता है और शरीर कमजोर होने पर भी साधना में उत्साह बना रहता है। स्वाध्याय करने से तत्व ज्ञान प्राप्त होता है और तत्व ज्ञान प्राप्त होने से कहीं भी रही विषय रुचते नहीं हैं, वैराग्य बना रहता है। तत्व ज्ञानी बाह्य वस्तुओं को छोड़ते समय विस्मय करता है, न मद करता है और न ही शोक करता है। तत्व पथ का अर्थ है, परमेष्ठी के चरणों की शरण। यही पथ है और यही पथ्य है। तत्वज्ञान के संस्कार स्वर्गों में, भव-भवान्तरों में, काम करते रहते हैं और बुरे भाव भी ऐसे ही प्रभाव डालते हैं।
  21. आज सम्यक दर्शन के वात्सल्य अंग के बारे में विचार करना है। जब संसारी प्राणी एक दूसरे से परस्पर प्रेम भाव रखता है, अर्थात् जीव जीव को पहचानता है वास्तविक दृष्टि से जान लेता है वह सम्यक दृष्टि हो जाता है। यह पहचान मात्र शब्दों से नहीं, अन्दर से हो। जब सम्यक दृष्टि तत्व चिंतन में लगता है, तब उसकी दृष्टि में कोई भी जीव किसी भी रूप में आ जाये तो भी वह विरोध भाव नहीं रखता। चाहे वह अनिष्ट करने वाला हो तब भी वह सब जीवों में मैत्री भाव रखेगा। जिस प्रकार सूर्योदय को देखकर कमल खिल जाता है उसी प्रकार वह गुणवान को देखकर उल्लास, आनन्द मनाएगा। ईष्र्या भाव कदापि नहीं रखेगा, क्योंकि ईष्र्या की तरफ दृष्टि होने पर गुण छूट जाते हैं। और दुखी, संत्रस्त, अनाथ, भयभीत को देखकर करुणा भाव धारण करेगा। वह सोचेगा कि यह भी जीव है, अपने स्वभाव से विमुख है, अत: इसे भी सुखी बना दूँ, दुख दूर कर दूँ। इसके लिए वह खुद न दुखी होता न खुश होता है, वह ऐसी प्रक्रिया करेगा कि दुखी का दुख दूर कर देगा। रोने वाले के साथ रोने के बजाये उसे धीरता बंधावेगा, अभय देगा। जो प्रतीक है उसके बीच में हाथ दिखाया है। हाथ भय का प्रतीक भी है तो अभय का प्रतीक भी है। हमें दुखीजनों को देखकर वास्तविक दुख को मिटाना चाहिए। मानसिक और शारीरिक दुख तो है ही, पर एक आध्यात्मिक दुख भी है। इस आध्यात्मिक दुख के कारण ही संसारी प्राणी अनादि से दुखी है। जहाँ तक बन सके, तन मन धन से यथा योग्य सामने वाले के दुख को दूर करें, यही वात्सल्य अंग है। इस अंग को अपनाने वाले की दृष्टि ऐश आराम, तन-धन की ओर नहीं होगी पर दूसरे के दुख को दूर करने की ओर जायेगी। वह रुदन करने वाले का रुदन बन्द करेगा, अभय दान देगा, उसे वास्तविक ज्ञान प्राप्त करायेगा। आत्मा की ओर दृष्टि जाएगी। जीव दूसरे जीव को तब देखता है, जब वात्सल्य को अपनाता है। ‘उपयोगो लक्षणम्' कहने से दुख दूर नहीं होगा। उपयोग खराब भी तो हो जाता है। आप पुत्रों, रिश्तेदारों से वात्सल्य करते हैं, वह वात्सल्य नहीं है, क्योंकि वहाँ पाने की अपेक्षा लगी है। जहाँ अपेक्षा है, वहाँ वात्सल्य नहीं, मोह है, स्वार्थ है, मोह की परिणति है। कसाई बकरे को खिलाता है, पिलाता है, वह वात्सल्य नहीं, क्योंकि एक महीने बाद उसे काट देगा। मोह के साथ अपेक्षा के साथ कोई कार्य न होकर वात्सल्य, करुणा के साथ हो। करुणा शारीरिक या वाचनिक नहीं है, यह जीव का एक भाव है। करुणा के अभाव में मोह पैदा होता है और मोह के अभाव में करुणा जागृत होती है। कहा भी है कि :- रग रग से करुणा झरे, दुखी जनों को देख। चिर रिपु लख ना नैन में, चिता रुधिर की रेख ॥ आज तक वास्तविक रूप में हमारे अन्दर करुणा बही ही नहीं दुखी जनों को देखकर के। वह करुणा ऊपर से नहीं अन्दर से होनी चाहिए। मोह के साथ सम्बन्ध नहीं होना चाहिए, बल्कि करुणा वात्सल्य के साथ हो। दुनियाँ मर जाये, मेरी पूर्ति हो यह स्वार्थ परायणता है। सीता के वियोग में राम रोने लगे, क्योंकि पाणिग्रहण करते समय प्रतिज्ञा की थी, एक दूसरे की रक्षा करेंगे, एक को दुखी देखकर, दूसरा भी दुखी होगा। यह एक सम्बन्ध है, किन्तु आज तो धन से सम्बन्ध होता है, आत्मा के साथ नहीं। सम्बन्ध होना चाहिए विकास के लिए, विषय तो कुछ समय के लिए आपेक्षित हो सकते हैं। राम ने प्रतिज्ञा की थी कि जब तक शरीर में प्राण होंगे, तब तक सीता की सुरक्षा करूंगा, इसीलिए राम दुखी हुए। आज भी वैसी प्रतिज्ञा तो होती है, पर वैसा भाव नहीं होता। विषयों में रच पच जाते हैं, विषय ध्येय बन जाते हैं, ऐसा होने पर वात्सल्य भाव नहीं होता। माँ (गाय) चाहती है कि बछड़ा ज्यादा दूध पीले ताकि जल्दी जल्दी बड़ा हो जाये, पर आप चाहते हैं कि दूध ज्यादा न पी ले। चेष्टा दोनों की अलग है। वात्सल्य वास्तव में गाय के पास है। जब विषयों को ध्येय नहीं बनाते हैं, तब जीव के विकास की ओर दृष्टि जाती है, दूसरे की सुरक्षा करते हैं, जब ऐसा नहीं है तो कसाई के समान है। दूसरा भले ही मर जाये, पर अपनी सुरक्षा हो। दूसरे को दुखी देखकर करुणा भाव अवश्य जागृत होना चाहिए। आप भोजन जरूर करें, पर आपके भोजन से दूसरा भूखा न मरे। आप सोचें कि मुझे खाना भी है, पर दूसरे को भी खाना है, यह सम्यक दृष्टि का लक्षण है। ऐसा नहीं कि सारा खाना मैं ही खा लें। कितना भी खा लोगे तो भी शाम को भूख लगेगी ही। रावण सीता को, उसके अन्दर की पीड़ा को नहीं देखता था, वह उसके शरीर को, रूप को देख रहा था। जब वात्सल्य हो जाता है तो जीव शरीर को नहीं, उसके अन्दर के भाव देखता है। धन तो जड़ की पर्याय है। धर्म वात्सल्य, चेतन की पर्याय है। राम के मन वचन काय से जो भाव जागृत हो रहे थे, वे भाव रावण के नहीं थे। जब अन्दर दुख होगा तो दुख बाहर आएगा। आत्मा दुखी होगी तो शरीर सूखने लगेगा। अन्दर आमोद-प्रमोद है तो दुखी नहीं होता। शारीरिक चेष्टा को देखकर ही करुणा नहीं, भावों में करुणा हो। जहाँ करुणा है, वहाँ कुछ न कुछ अंश में मोह का अभाव है। गृहस्थ में भी मोह का अभाव जरूरी है, तभी जीव का परित्राण होगा। तत्वों में मुख्य तत्व जीव है, जब उसको जान लेंगे तो वास्तविक करुणा होगी, यही तत्वार्थ श्रद्धान है। सम्यक दर्शन की प्रादुभूति तो सातवें नरक में भी होती है। सम्यक दर्शन से नरक, तिर्यञ्च, देवों में क्या हो रहा है ? यह नहीं देखना है। गृहस्थ को अपने को देखना है। कोई भी जीव चाहे वह राजा हो या महाराज हो, मिथ्यादर्शन के साथ ही मनुष्य गति में जन्म लेगा, बाद में सम्यक दर्शन को अपनाता है। धन से शरीर से वात्सल्य नहीं होता है। शरीर के साथ तो बहुत वात्सल्य सेवा की, पर शरीर करुणा वात्सल्य को नहीं जानता। करुणा का अनुभव करने वाला आत्मा है। अत: आत्मा पर, जीव पर करुणा करो। हरेक जीव वास्तविक तत्व को जान सकता है, केवलज्ञान को प्राप्त कर सकता है। सभी परिवार, देश व संसार के लोग क्षेम का अनुभव करें। उपदेश जीव के लिए है, पुद्गल के लिए नहीं। आचार्यों ने जीव को पहचानने की कला इतनी मजबूती से दिखाई, जो प्रयास किया, वह श्लाघनीय है। जो ज्ञान धारा पुद्गल की ओर थी उसे अपने नियंत्रण में किया। अन्धे बहरे को भी सुनाकर, अनुभव कराकर सम्यक दर्शन को प्राप्त कराया। किसी को समझाना तब कठिन हो जाता है, जब उसके समझने योग्य इन्द्रियाँ न हों। मोह से जो पागल है, उनको भी आचार्यों ने सीख दी। लेकिन हम अपने आपको डेढ़ अक्कल वाला समझते हैं। हम सब कुछ इन्द्रियाँ व शाब्दिक ज्ञान को प्राप्त करके भी मोह नींद में सोये हुए हैं। जागते हुए भी नहीं चेतते। एक बार झलक पा लोगे तो बेड़ा पार हो जाएगा। इस जीव ने अनादि से उल्टी परिणति को अपना रखा है, यह अध्यात्म रस से दूर रहना चाहता है। आचार्य महोदय येन केन प्रकारेण उसे अध्यात्म रस पिलाना चाहते हैं। एक अंग को भी आप अपना लेंगे तो धीरे-धीरे सब अंग आ जाएँगे और सम्यक दर्शन प्राप्त हो जायेगा। यह विषय कषाय को गौण करने पर प्रादुभूत होगा। अनन्तानुबन्धी का अभाव होने पर होगा। इसे प्राप्त कर लेंगे तो कल्याण हो जायेगा।
  22. प्राज्ञ का अर्थ विशेष रूप से जानने वाले यानि विद्वान्, पण्डित, ज्ञानी है। सम्यक दर्शन के छठे अंग स्थितिकरण की सुरक्षा ज्ञानियों के द्वारा होती है। स्वयं की स्थिति को सम्भालते हुए दूसरे को स्खलित होते समय ऊपर उठावे, यही विद्वानों का काम है। नीचे गिरे को ऊपर उठाना ही वास्तविक काम है। उसके लिए पूरी शक्ति लगानी पड़ती है, अपने पैरों को मजबूत रखना पड़ता है। विद्वान् वह है, जो शक्ति न होने, प्रमाद से अथवा अज्ञान की वजह से नीचे गिर रहा है, उसे निष्प्रमादी होकर ऊपर उठावे। प्राज्ञ धर्म के साथ सम्बन्ध रखता है। स्खलन अधर्म है, स्थिति धर्म है। प्राज्ञ स्थिति को चाहता है, स्खलन को नहीं। गिरा व्यक्ति वह है जो उठ रहा था-पर नीचे गिर गया। ऊपर उठते हुए नीचे गिर गया, उसे ज्ञानी ही ऊपर उठायेगा। प्रागभाव और प्रध्वंसा भाव, ये दोनों हुआ करते है। ऐसा कोई व्यक्ति नहीं जिसके समय-समय पर भावों में परिवर्तन नहीं होता रहता है। संयम को अपनाने वाले व्यक्ति के भावों में भी परिवर्तन हो सकता है, अज्ञान व प्रमाद से। पास होने की चेष्टा करने वाला व्यक्ति फैल (नापास) भी हो जाता है, पर वह उस व्यक्ति से तो अच्छा है जो परीक्षा में बिल्कुल नहीं बैठता। नापास को भी विषयों में नम्बर मिले, यूं कह सकते हैं, जितने चाहिए उतने न मिले। M.A. में एक छात्र फैल हो गया तो वह M.A. की अपेक्षा नापास है पर B.A. की अपेक्षा से तो पास है। वह दुबारा प्रयत्न करके पास हो सकता है। थोड़ी कमी को दूर करने के लिए ज्यादा समय की जरूरत नहीं। सप्लीमेंट्री वाले छात्र को साल भर तक पढ़ने की जरूरत नहीं, महीने २ महीने में परीक्षा देकर पास हो सकता है। भावों में परिवर्तन आते ही हैं। जो ऊपर उठता है वह किसी न किसी आदर्श को लेकर उठता है। जो आदर्श नहीं रखता, वह एक दृष्टि से गिरा हुआ ही है। ज्ञानियों की उपयोगिता ज्ञानियों के लिए नहीं बल्कि अज्ञानियों के लिए है। जिसका मुख स्वच्छ व साफ है, उसके लिए दर्पण की जरूरत नहीं, दर्पण की कीमत वहाँ है, जिसके मुख पर कालिमा है। सामथ्र्य जिसके पास है वह स्खलित के सामने आदर्श उपस्थित करे। परिणामों में स्खलनता व विकास जल्दी-जल्दी होता है। व्यक्ति एक अन्तर्मुहूर्त में मिथ्यात्व को पार कर सिद्धालय में विराजमान हो सकता है। परिणामों की बड़ी विचित्रता है। अत: हमेशा जागृत रहना चाहिए। पता नहीं किस समय प्रमाद के वश पतन हो जाये और जागृत होने पर विकास हो जाये। दीक्षा, नियम दिये नहीं जाते, लिए जाते हैं। हृदय में भाव जागृत होने पर व्यक्ति दीक्षा लेता है। एक राजा ने सात बार दीक्षा ली और सात बार वापस घर चला गया। आठवीं बार दीक्षा लेते ही पाँच मिनट में ही ऐसे भाव हुए कि केवल ज्ञान प्राप्त हो गया। चार पाये को तो आप बाँध सकते हैं, पर दो पाये को नहीं बाँध सकते। चौपाये के भी गले में पट्टा ही तो बाँध सकते हैं, पर विचारों को तो नहीं बाँध सकते। जीव ने अनन्त बार शादी की है। राजा ने अगर सात बार घर जाकर शादी की तो सात बार दीक्षा भी तो ली और प्राग्भाव, प्रध्वंसाभाव के द्वारा अनन्त संसार का छेद किया। आत्मा की शक्ति अलौकिक है, अतींद्रिय है, पौदूलिक नहीं। केवलज्ञान अनन्त लोकाकाश के ज्ञान को भी हजम कर लेता है। यह ज्ञान प्राप्त करने की शक्ति आप सबमें है। कोई छोटा बड़ा नहीं है। पर्याय क्षणिक है। विशेषण पर्यायों में है अन्दर में नहीं। अन्दर सब समान है, ऐसा विचारने पर ही स्थितिकरण अंग अपनाएँगे। पुरुषार्थ करके भावों को स्थिर करो दृष्टि स्खलन की तरफ न रखो। स्खलित होना विद्वान् का काम नहीं। दूसरों को भी स्थितिकरण में रखो। गिरना नहीं है, चलते रहना है। इससे विद्वता, ज्ञान सामने आता है। धर्म के साथ वात्सल्य, प्रेम रखने वाला दूसरे को कभी भी मिथ्या दृष्टि देखना पसन्द नहीं करेगा। उसकी यही दृष्टि होगी कि दूसरा ऊपर उठे उसकी दृष्टि समीचीन बने। इसके लिए पुरुषार्थ करना है। दृष्टि पर आई हुई मलिनता को पुरुषार्थ से दूर करना है। अभव्य तथा भव्य तुम्हारी दृष्टि में नहीं। गुरु वही है जो आगे बढ़ रहा है। भगवान् ऋषभनाथ बैठे रहे और पोता उनका सिद्ध हो गया। अत: कौन ऊँचा कौन नीचा है? ऐसा विकार स्खलन के लिए कारण है। त्रेकालिक सत्ता को देखो, हरेक में वही सत्ता है, हरेक विकास कर सकता है। सब अंगों में स्थितिकरण सबसे बड़ा है। सम्यक दृष्टि जब किसी का अनन्त संसार विच्छेद होता देखेगा तो आनन्द मनाएगा। स्थितिकरण में अपना व दूसरे का भी भला है। नीचे गिरे को उठाने पर सब प्रशंसा करेंगे।अगर दूसरे का स्खलन दूर न कर सको तो अपना स्खलन तो दूर करो। अपने द्वारा अपना इलाज हो जाने पर दूसरे की ओर दृष्टि होगी। जीव का साधर्म भाई जीव ही है, धन वैभव नहीं। सबसे बड़ा वह है जो दर्शन ज्ञान, चारित्र से स्खलन को प्राप्त हो रहे अन्य व्यक्ति को हिम्मत बंधा दे, स्थित कर दे, रोक दे। जहाँ स्खलन है, वहाँ मदद की जरूरत है। दर्शन से गिरकर जो अनन्त को बढ़ा रहा है, उसे मदद करना है। धन के अभाव में आज कल के व्यक्तियों का धर्म निभाना मुश्किल है। कहा है कि गृहस्थ के पास कोड़ी नहीं तो कोड़ी का है (किसी काम का नहीं) और साधु के पास कोड़ी है तो कोड़ी का है (साधु किसी काम का नहीं)। गृहस्थ में धर्म की जरूरत है तो धन की भी जरूरत है। आज धन के अभाव में कई व्यक्ति धर्म छोड़ चुके हैं। धन के अभाव में जो धर्म से च्युत हो रहा है। उसको देखकर के धनवान व्यक्ति उसकी मदद नहीं करता तो वह भी पापी है। टार्च से दूसरे को रोशनी दिखाने पर कमी नहीं आती। धन जो पुण्य के द्वारा प्राप्त किया है, अपने काम के साथ दूसरे के काम आ जाये दूसरा धर्म पर टिक जाये। यही धन के द्वारा स्थितिकरण अंग को सुरक्षित रखना है।
  23. त्याग विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार जिस बाह्य पदार्थ का हमने त्याग किया वह हमारा था ही नहीं, ऐसा भाव आना चाहिए तभी वह त्याग सार्थक होगा। वरन् त्याग का अभिमान हो सकता है। त्यागीजन नृत्य, वाद्य, संगीत में भाग नहीं ले सकते। व्रती श्रावक को भी उपवास के दिन स्नान आदि का त्याग करना चाहिए और गृहस्थ श्रावक को अनथौ का अर्थ थोक में नहीं बल्कि थोड़ा-सा होता है। शाम को थोड़ा-सा भोजन करना चाहिए। जब तक छोड़ने योग्य है, तब तक छोड़ते जाओ। जब शरीर मात्र रह जाये तो कायोत्सर्ग लगा लो, फिर मुक्ति दूर नहीं। जो त्याग करते हुए भी मद को नहीं छोड़ता वह कर्म बंध से नहीं बच सकता। धन से धर्म की प्रभावना नहीं होती बल्कि धन के त्याग से धर्म की प्रभावना होती है। त्याग तप के बारे में कंजूसी नहीं करना चाहिए और त्याग-तप के बदले में कुछ माँग भी नहीं रखनी चाहिए। स्वस्थ यानि अपने आपका त्यागकर दूसरे का कष्ट दूर हो, ऐसी भावना आना/भाना दान धर्म माना जाता है। जिनायतनों की सुरक्षा में भावना के साथ-साथ धन भी लगाइए आप दान दे रहे हैं लगा नहीं रहे हैं। कुछ ग्रहण हुआ/किया कि समझो ग्रहण लग गया। स्व का कभी त्याग होता नहीं और पर का त्याग, त्याग माना नहीं जाता। अपने ज्ञान-दर्शन-चारित्र का त्याग नहीं होता। पर का क्या त्याग ? पर तो था ही नहीं। गृहस्थ को भी आवश्यकता से अधिक परिग्रह नहीं रखना चाहिए, नहीं तो संसार सागर में डूबना होगा/पडेगा। जब शरीर से ममत्व रखना भी परिग्रह है फिर कौन अपना होगा ? जिसने त्याग की ओर कदम उठाया है, वह मोह पर प्रहार कर रहा है। मोह को हराने का एक ही उपाय है अपनी ओर आना। कुछ द्रव्य के वियोग में जीव को पीड़ा जैसी होती है पर उस वस्तु द्रव्य को कोई पीड़ा नहीं होती। धन का मोही वहीं अगले भव में कुंडली मारकर बैठ जाता है ताकि कोई उसका धन न ले सके। गृहस्थ का धन के बिना जीवन नहीं चलता लेकिन जिस धन के कारण जीवन अंधकार में चला जावे उससे क्या तात्पर्य ? थोड़ा-सा त्याग बीजारोपण की तरह हमेशा करते रहना चाहिए, जिससे भविष्य में पुण्य की फसल लहलहावेगी। राग का त्याग ही सही त्याग माना जाता है मात्र बाह्य परिग्रह का त्याग नहीं। जब राग छूट जाता है तब परिग्रह छूट ही जाता है। त्याग के संस्कार स्वर्गों में भी पाये जाते हैं, लौकान्तिक देव बन सकते हैं। परिग्रह त्याग का पाठ समझ में आ गया तो त्याग में लगे रहो दूसरों को भी लगाये रहो | धन कमाने की स्पर्धा की जगह धर्म कमाने की स्पर्धा में लगे रहो। प्रचलन में धन आवेगा तो बढ़ेगा। इच्छा का निरोध होते ही कर्म निर्जरा प्रारम्भ हो जाती है। इच्छाओं का निरोध एक मौलिक वस्तु है, अदभुत वस्तु है। राग संसार है तो त्याग मोक्षमार्ग है। पर को हाथ में ले रखा है इसलिए परास्त होते हो क्योंकि पराश्रय परास्त कर देता है। संयम के साथ-साथ दान भी आवश्यक होता है। अर्थ का लोभी जो होगा उसका संयम नहीं पलेगा । बांध में थोड़ा-सा पानी के लिए लीकेज रखा जाता है, आप भी थोड़ा-सा संविभाग करिए उसी को दान कहते हैं। प्रभावना के लिए अर्थ का दान/त्याग करना चाहिए। पर के साथ आत्मीयता रखना प्रमाद कहा है, जिसे आत्मीयता के साथ स्वीकार कर लिया फिर उसे छोड़ना कठिन होता है। यह बात कटु सत्य है लेकिन दातून कड़वी ही होती है। निश्चयी (निश्चय नय वाले) को त्याग कोई वस्तु ही नहीं है। पर वस्तु मेरी है, यह कहना भी उसे अच्छा नहीं लगता। पानी कहीं अन्यत्र से नहीं लाना है, उसके ऊपर पड़ी मिट्टी की परतों को हटाना है इसी प्रकार आत्मा को कहीं से लाना नहीं है, उसके ऊपर जो राग की परतें जमीं हैं, उन्हें हटाना है। त्याग हमारा स्वभाव है, यह मन में ठान लेना चाहिए। योजनाओं को मूर्तरूप देने के लिए बहुत कुछ त्याग, संकल्प की आवश्यकता होती है। संसार का रोग जिससे बढ़ रहा है, उसे छोड़ दो बस, दवाई की आवश्यकता ही नहीं। त्याग भी एक उद्देश्य को लेकर होना चाहिए, बिना उद्देश्य के किया गया बहुत बड़ा त्याग भी कुछ कार्यकारी नहीं होता। दान और वरदान की घोषणा के बाद वापस नहीं लिया जाता यह क्षत्रियों का काम है। त्याग को व्यवसाय का रूप नहीं देना चाहिए। द्वेष छोड़ने से सभी जीवों से मित्रता हो जाती है और राग छोड़ने से भगवान् की ओर बढ़ जाते हैं। जब विकार बाहर निकल जाता है, तब प्रकृति से मुलाकात होती है। पाँच पापों का त्याग कर दिया अब इसमें अहंकार का भी त्याग कर देना चाहिए। क्योंकि बाह्य त्याग अंतरंग की वृद्धि के लिए किया जाता है। जिस वस्तु से राग हो रहा है, उस वस्तु का त्याग करना अनिवार्य है।
  24. तपस्वी विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार काम की वंचना में तपस्वी नहीं आता। मान और अपमान की बू तपस्वी को छू ही नहीं सकती, बल्कि तपस्वी के चरणों में लगी धूल को इन्द्र मान छोड़कर अपने मस्तक पर लगा लेते हैं। तपस्वी की अपनी नहीं बल्कि धर्म की प्रभावना हो, ऐसी भावना रहती है।
  25. सम्यक दर्शन के ४ अंगों के बारे में संक्षेप में वर्णन आपने समझा। पाँचवाँ अंग है, उपगूहन, इसका अर्थ है छिपाना। संसारी जीव सुख चाहता है, दुख दूर करना चाहता है। अपने अन्दर में विकास तब होता है, जब दूसरों के दोषों को न देखें और गुणों के ग्राह्य बनें। दुनियाँ के दोष सामने लाना, अपनी मूर्खता है। हम अनादि काल से दूसरे के दोष देखते आये हैं, पर ऐसा नहीं सोचते कि दोष हम सभी ने किए हैं। संसारी दूसरों के दोषों को ढूँढ़ता है। पर जो संसार की ओर पीठ कर दे, अपने दोषों को न छिपाकर दुनियाँ के सामने आलोचना निंदा के द्वारा रखे तथा दूसरे के दोष छिपावे यही उपगूहन अंग है। गुणों की उपलब्धि के लिए भगवान् को नमस्कार किया जाता है। लेकिन गुणों को नहीं चाहते हुए दोषों का भण्डार बन जाते हैं। यही अनादि से परिणति हो रही है। कहा है कि :- दुर्जन स्वभाव तुम सुनो कदलीवन में ऊँट। जैसे रसाल छोड़ के ढूँढ़े बबूल ढूँठ ॥ काँटे को खाने वाला ऊँट रसाल को नहीं खाता, यह उसका स्वभाव बन गया। काँटा चुभ जाये तो परवाह नहीं, उसे उसी में रस आता है। दुर्जन व्यक्ति ने भी टेढ़ी चाल को अपना रखा है, वह अपनी निधि को नहीं खोजता, प्रयोजनभूत तत्व की गंध को नहीं पकड़ता। हम दूसरों की कमियों को, दोषों को ढूँढते हैं। छद्मस्थ में तो कमियाँ रहेंगी ही, क्षयोपशम ज्ञान के द्वारा गल्तियाँ तो होगी आप गल्तियों को छोड़ दो। कदलीवन की सुरक्षा के लिए काँटों की बाड़ तो लगायेंगे। जब तक छदमस्थ है तब तक दोष रहेंगे। छद्मस्थ अवस्था से छूटना चाहते हो और केवल ज्ञान की ओर प्रयास करना चाहते हो, तो उपगूहन अंग को पालें। श्रुतज्ञान को, उपगूहन को अपना लेंगे तो ज्यादा दिन संसार नहीं रहेगा। उपगूहन दोषों का निवारक होता है ग्राहक नहीं रहता। आप लोग कटाक्षों के भय से सिद्धान्त को छोड़ देते हैं पर दुख को नहीं छोड़ते। आपको सुख इसलिए नहीं हो रहा है क्योंकि आप अपनी बात रखने के लिए क्रोध, लोभ, भीरुत्व, हास्य को अपना लेते हैं। इसे छोड़ने पर सत् की प्राप्ति होगी। हमारी दृष्टि मात्र दोषों की ओर है, उपगूहन अंग की ओर नहीं। छद्मस्थ अवस्था में वही विद्वान् है जो सिद्धान्त के अनुरूप चल कर दोषों को न अपनाते हुए श्रुतज्ञान को रखता है। श्रुतज्ञान केवलज्ञान तक पहुँचाने वाला माध्यम है। चर्म चक्षुओं के द्वारा दोष और पर्यायें सामने आती हैं पर ज्ञान चक्षुओं द्वारा पर्यायों के अलावा निर्विकार रूप भी सामने आता है। श्रोता वह नहीं है जो जोंक की तरह खराब खून को चूस लेता है, अच्छे खून को नहीं छेड़ता। श्रोता वही जो खराब चीजों को छोड़कर असली चीजों को पकड़े। हंस के समान बने, जो दूध-पानी के मिश्रण में पानी को छोड़कर शक्ति के द्वारा दूध को ग्रहण करता है। इसी प्रकार श्रोता दोषों को टालते हुए उपगूहन को अपनावे । हेय उपादेय की शक्ति श्रुतज्ञान में है, श्रुताज्ञान में नहीं। चलनी के पास आटा नहीं रहता, भूसा रहता है। अत: चलनी न बनो। आटे रूपी गुण को आप ग्रहण कर लें और जो दोष रूपी भूसा है उसे छोड़ दे। यह बात जब होगी, तभी जीवन में विकास होगा। ऐसा कोई व्यक्ति संसार में नहीं जो गुणवान ही हो। जो गुणवान ही है वह संसार से ऊपर उठा होगा, संसार में नहीं रहेगा। कुछ न कुछ कमियाँ सब में हैं। भगवान् कुन्द-कुन्द भी कहते हैं कि मुझमें भी कमियां हैं। पर दोष के प्रति दृष्टि नहीं है। दोष की तरफ दृष्टि न होना भी संवर है। जब आस्रव आएँगे नहीं तो निर्जरा के लिए देर नहीं। आने वालों की सीमा नहीं होती आए हुए की सीमा है। अनन्त का जो तांता है उससे डरना है। संवर के तत्व के साथ उपगूहन होता है। संवर तो आपका भी हो रहा है पर गुणों का संवर और दोषों का आस्रव हो रहा है। अत: दोषों का संवर और गुणों के आस्रव की आवश्यकता है। निर्दोषी और अदोषी में अन्तर है। भगवान् को वीतरागी कहा है, अरागी नहीं। निर्दोष होने के लिए उपगूहन की आवश्यकता है। हमारी ऊँट की तरह चाल है। हम केले के वन की ओर न देखकर बबूल की ओर देखते हैं। हाथी के समान बनो जो केले को खाता है। संसार में रहते हुए वीतरागी मुनि हाथी के समान केले का रसास्वादन करते हैं, काँटों की ओर नहीं देखते। कहा भी है - संवेदना स्वयं की कितनी अनोखी, तू एक बार उसको चख देख चोखी। सारी व्यथा सहज से पल में मिटेगी, आरोग्य पूर्ण नव चेतना मिलेगी ॥ एक बार आत्मा के बारे में विचार करें तो काँटों का अनुभव नहीं होगा, वहाँ शूल नहीं रहेंगे। त्रिशूल सम्यक दर्शन, ज्ञान, चारित्र होगा। हमने आज तक अपनी निधि का आस्वादन, संवेदन, साक्षात्कार नहीं किया। गुणों की गवेषणा करो अब तो, ताकि बेड़ा पार हो जाये। सबसे ज्यादा समय दोषों के अन्वेषण में लग रहा है, गुणों के अन्वेषण में नहीं। जब गुणों का अन्वेषण होगा तो वस्तु तत्व की ओर चले जायेंगे। जब गुणों का समादर करोगे तो हर-एक व्यक्ति के गुण आएँगे। दोषों की ओर दृष्टि नहीं होगी तो समय भी ज्यादा खर्च न होगा। हम अपने आपको उच्च, उच्चतर, उच्चतम बनाना चाहते हैं पर बंध नीच गोत्र का करते हैं। क्योंकि दोषों को अपनाते हैं, दूसरों की निंदा करते हैं। हमें हंस के, हाथी के समान बनना है, ऊँट, जोंक, चालनी के समान नहीं बनना है। उच्च गोत्र में बाहरी निमित्त भी पड़ता है। दूसरे को दोषी बनाना, निंदा करना, अपनी निंदा करना है। दूसरे की ओर दोषों के लिए एक ऊंगली उठाने पर चार उगलियाँ अपनी ओर उठती हैं। महावीर भगवान् मौन रहे। मौन का मतलब स्वीकृति नहीं। ‘मौनम् सम्मति लक्षणम्' नहीं, बल्कि ‘मौनम् सन्मति लक्षणम्' है। उन्हें कोई गधा या पागल भी कह दे तो भूत नैगम संज्ञा की अपेक्षा से गधा पागल कहना ठीक ही है, ऐसा विचारा। इन सभी विकारों से हटकर उन्होंने संवेदना को जीवन में उतारा तो दुख, आपत्तियाँ क्षण भर में टल गयी और अनन्त सुखी बने। स्वसंवेदन अनोखी चीज है। सुख की व्याप्ति विषयों के साथ नहीं स्वसंवेदन में है। विषयों में पञ्चेन्द्रिय विषय के अलावा तथा इनसे बड़ा 'मान-सम्मान' भी विषय है। इससे ऊपर उठने पर स्वसंवेदन है। गुणों का अन्वेषण करने पर सम्यक दर्शन निर्मल, निर्मलतर निर्मलतम् होगा अनन्त काल तक विश्राम होगा, सुख का अनुभव होगा। स्वसंवेदन में क्षणिक सुख नहीं अनन्त समय तक सुख है, कोई व्यथा नहीं। समय धीरे-धीरे जा रहा है, पूर्ण जीवन को वृथा न खोओ जरा (वृद्धावस्था) में कषाय तृष्णा तो बढ़ेगी पर इन्द्रिय क्षमता नहीं रहेगी। अत: अब चेत जाओ और शेष जीवन को संयम में, गुण ग्राहकता में बिताओ।
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