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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • प्रवचन सुरभि 78 - तन पाकर - तनो नहीं

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    यदि मोक्षमार्गी बने रहना चाहते हो तो आठ प्रकार के मद, जो कि आप लोगों को मोक्ष मार्ग से स्खलित करने वाले हैं, उनसे दूर रहें। आठवाँ मद शरीर को लेकर है। प्राय: लोग शारीरिक सुरक्षा के लिए मद करते हैं। वपु यानि शरीर कहा है। शरीर की कीमत है या आत्मा की कीमत है, इसके बारे में सोचना है। शरीर तो शरारती है, पर आत्मा के पास गुण है, वह शरीफ है। शरीर को वही व्यक्ति महत्व देता है जो वास्तविक आत्मा का विकास नहीं करना चाहता है। अनादि से बंधन का अनुभव जो हो रहा है, वह शरीर को लेकर है। आत्मा को दुख शरीर के कारण है। शरीर का होना ही संसारी प्राणी के लिए दुख का मूल है। शरीर पृथक् होने पर आत्मा मुक्त हो जाता है।

     

    जो शरीर को लेकर मद करेगा, वह मुक्ति नहीं चाहेगा। वह शरीर को रखना चाहेगा और शरीर छूटने से पहले दूसरे शरीर का इन्तजाम करेगा। आप लोग शरीर की सुरक्षा के लिए कैसे-कैसे काम करते हैं। घर में पंखा है सर्दी में उसे चलाते भी नहीं, और उसे फेंकते भी नहीं, दूसरे को हाथ भी नहीं लगाने देते, वह पंखा ज्येष्ठ माह में काम का है। ज्येष्ठ माह में गरम कपड़े पेटी में बन्ध कर रख देते हैं। जो मुक्ति चाहता है वह शरीर की सुरक्षा नहीं चाहेगा। शरीर की सुरक्षा का मतलब संसार की सुरक्षा है। आठों मदों को अपनाने से शरीर तो अनादि से मिल रहा है। बाल्यावस्था आती है और चली जाती है, जवानी भी आती है और चली जाती है पर वृद्धावस्था आती है और समेट कर ले जाती है। समय-समय पर उत्पाद, व्यय, श्रौव्य हो रहा है। एक सत्ता के ये तीन पहलू हैं, वे समय समय पर प्रकट होते रहते हैं।

     

    दीपक का अभाव होने पर प्रकाश का अभाव हो जाता है, और अन्धकार छा जाता है। अन्धकार और प्रकाश दोनों पुद्गल की दशा है। अत: पुद्गल का अभाव नहीं होता। तीर्थकरों के शरीर में छोटा मोटा परिवर्तन होता है। जन्म के समय बालक परन्तु मुक्ति के समय बड़ा शरीर होता है। हमारी आँखों को परिवर्तन नहीं दिखता। उनका शरीर बिगड़ता नहीं है, पर परिवर्तन तो होता है। मानतुंगाचार्य ने भी भत्तामर स्तोत्र में स्तुति करते हुए कहा है कि -

     

    यैः शांतरागरुचिभिः  परमाणुभिस्त्वं

    निर्मापितस्त्रि - भुवनैकललामभूत।

    तावंत एव खलु तेप्यणवः पृथिव्यां

    यत्ते समानमपरं न हि रूपमस्ति ॥ १२ ॥

    हे भगवान! आपके समान रूप अन्यत्र नहीं है क्योंकि आपने पूर्व में ऐसा सुकृत पुण्य अर्जन किया है कि कांति के परमाणु आपके शरीर में समाये हुए हैं। आपके शरीर से दूसरे की तुलना नहीं की जा सकती। भगवान महावीर ने पूर्व में १६ कारण भावना भाई थीं उस वक्त ऐसा शरीर मिले कि मद न कर मोक्ष का संपादन करूं । दुनियाँ में विहार कर मोहग्रस्त जीवों को उपदेश दे सकूं। महावीर ने जितनी शक्ति मांगा उससे स्वयं का व दुनियाँ का भला चाहा, तभी उन्हें उत्तम संहनन के साथ कान्ति युक्त शरीर मिला, उन्होंने शरीर को लेकर मान का, मद का अनुभव नहीं किया।

     

    कामदेव के शरीर में तो परिवर्तन आता है, पर तीर्थकर के शरीर में जो जात रूप होता है, परिवर्तन नहीं होता, अन्तिम समय तक रहता है। उनके दाढ़ी मूंछ भी नहीं आती। कामदेव के ये बातें लागू नहीं है।मनोज्ञ शरीर को लेकर भी महावीर ने मद नहीं किया, पर कांति को दुनियाँ के सामने प्रकट करने के लिए दिगम्बर अवस्था धारण की और शरीर को परिश्रम में लगाकर केवलज्ञान की प्राप्ति की। उन्होंने ऐसे शरीर को पाकर भी भोगों में उसे न लगाकर योग को धारण किया।

     

    एक व्यक्ति कुरूप है, इसलिए शादी नहीं होती और एक सुरूप व्यक्ति शादी नहीं करना चाहता, दोनों में फरक है। उन्होंने (महावीर) सुरूप होकर भी भोगों में नहीं योग में शरीर को लगाया। शरीर को ठेस नहीं पहुँचाई। उन्होंने आहार विहार भी किया, शारीरिक शक्ति ऐसी थी कि निहार नहीं होता था, मल पैदा नहीं होता था, यह उत्कृष्ट शक्ति थी, जो दिव्य शरीर वालों के होती है। महावीर ने शरीर को वास्तविक तप में ही लगाया। एक क्षण भी भोगों की ओर मन नहीं लगाया। अनादि काल से प्राणी खाता, पीता, सोता आया है, भोग-विलास में रमता भोगता आया है, पर महावीर ने कभी भी पूर्व जीवन के भोगों को स्मरण नहीं किया विलासिता को याद नहीं किया। सुरूप शक्ति को तप के लिए काम में लिया। आप सुरूप बनने के लिए स्नो पाउडर, साबुन लगाते हैं लेकिन जो रूप है, वह तो रहेगा। महावीर ने मद का त्याग कर निर्मद को अंगीकार किया। उन्होंने २५०० वर्ष पूर्व आठों मदों को छोड़कर सिद्ध अवस्था को प्राप्त किया। आप पर्याय बुद्धि के बारे में विचार न करो। पर्याय दृष्टि ठीक नहीं है, द्रव्यदृष्टि ही ठीक है। द्रव्य का मतलब रुपये पैसे नहीं। आत्मिक दृष्टि को स्थान दो।

     

    महावीर ने सत् की ओर लक्ष्य रखा उस सत्र में परिवर्तन विकार, दोष नहीं है। उसमें उत्पाद, व्यय, श्रीव्य नहीं है। उसके बारे में महावीर ने विचार किया तो ८ मद गल गये। हम लोगों की दृष्टि वैकालिक सत्ता की ओर जाती ही नहीं, और पर्यायों को देखकर मद की प्रादुभूति हो जाती है। द्रव्य शक्ति निर्विकार है, वह वीतरागता को लिए है, समता का भण्डार है। कहा है कि-

     

    सत्ता नहीं जनमती उसका न नाश,

    पर्याय का जनन केवल और हास।

    पर्याय है लहर, वारिधि सत्य सत्ता,

    ऐसा सदैव कहते गुरुदेव वक्ता ॥

    रात-दिन सत्ता का अवलोकन करने वाले गुरुदेव जो कि आरम्भ-परिग्रह से दूर है वैकालिक सत्ता का वे ही अवलोकन करते हैं। संसारी प्राणी आनन्द का अनुभव, सुख शांति चाहता है, पर उसे सुख शांति नहीं मिलती, उसकी दृष्टि से आगे सृष्टि बनती जाती है। वह पर्यायों की ओर दृष्टि जाने के कारण ही दुख पाता है। अथाह समुद्र को लेकर अध्ययन करने पर कमी बेसी नहीं होती, पर मंद बुद्धि वाले लोग सागर को न देखकर लहर को देखते हैं। लहर तो हर समय परिवर्तित होती रहती है, वह हर समय उसी स्थान पर नहीं रहती। संसारी प्राणी को मालूम नहीं वर्तमान पर्याय उत्पाद,व्यय, श्रौव्य को लेकर है। वह वर्तमान पर्याय की सुरक्षा के लिए प्रबन्ध करता है। जिसे दुनियाँ के दृश्य को देखकर सत्ता के बारे में विचार हो जाये, उसे ही स्वयंभू कहते हैं। दिखाने में दूसरे को व स्वयं को दुख होता है। एक समय में उत्पाद व्यय धौव्य में परिवर्तन होता है। कहते हैं -

     

    प्रत्येक काल उठता मिटता पदार्थ,

    जो धौव्य भी प्रवहमान वही यथार्थ

    योगी उसे समझते, लखते सदीव,

    आनंद का अनुभव, वे करते अतीव ॥

    समय-समय पर मिट रहा, उठ रहा है, योगी उसे देखकर आनन्द का अनुभव करते हैं। हर्ष विषाद का अनुभव नहीं करते। आनन्द तो परमानन्द है। संसारी प्राणी आनन्द की अनुभूति नहीं करता पर मिटने पर विषाद का तथा उठने पर हर्ष का अनुभव करते हैं। जिस प्रकार बच्चा खिलौना टूटने पर रोता है, पर पिताजी नहीं रोते, बल्कि उसे समझाते हैं, उसी प्रकार मैं आपको समझाता हूँ, आप बच्चे से भी बच्चे बन गये। आप पर्याय, नश्वर चीज पर विश्वास लाते हैं। अनन्त शक्ति भी उठने मिटने को नहीं रोक सकती। समुद्र में लहर को कोई भी नहीं रोक सकता।

     

    काल अकृत्रिम है, रत्न राशि की भाँति कालाणु बिखरे पड़े हैं, हरेक क्षेत्र में उनका आवास है, उन बिखरे द्रव्यों में परिवर्तन कर देते हैं। आपको मात्र लिखना नहीं, लखना है। लिखने में परिश्रम दूसरे की सहायता पड़ती है, पर लखना स्वभाव है, उसमें दूसरे की सहायता की जरूरत नहीं। जो लखने लग जाये वही वास्तविक साधु है। लिखने पर तो भाषास्पद बन जाता है। शब्दों को बाँधना शोभा नहीं, ज्ञान को बाँधना नहीं। आपने बन्धन को, पर्यायों को तो अच्छा माना, पर त्रैकालिक सत्ता को नहीं। गुरुदेव पर्याय को भुलाकर पाठक को सत्ता दिखा देते हैं। लहर को देखेंगे तो रागद्वेष रूपी अन्दर की लहर आएगी। आप सोचें की सागर उठता मिटता नहीं, लहर ही उठती मिटती है। सागर के अवलोकन करने पर लहर आ जाएगी, फिर लहर पर राग द्वेष नहीं होगा। लहर (पर्याय) को देखने पर सत्ता ओझल हो जाएगी। जब आयु समाप्त होगी, तब परमाणु इस प्रकार बिखर जायेंगे जैसे पारा बिखर जाता है और अन्त में राख भी उड़ जायेगी। व्यय उत्पाद क्षणिक हैं, सत्ता घूम रही है, उसके बारे में सोचना है। शरीर बिखरने पर उपदेश सुनने की क्षमता नहीं रहेगी। अत: आत्मा को शुद्ध बनाने की चेष्टा करो। शरीर को लेकर मद, अभिमान न करो तीर्थकर भगवान्, साधु परमेष्ठी कहते हैं कि मद आदि तेरा स्वभाव नहीं है। अत: उन्हें छोड़ो। आठों मदों को छोड़कर संसार नश्वरता के बारे में कर्म की विचित्रता के बारे में, अध्ययन करें और केवलज्ञान की प्राप्ति करें।


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    शरीर को लेकर मद, अभिमान न करो तीर्थकर भगवान्, साधु परमेष्ठी कहते हैं कि मद आदि तेरा स्वभाव नहीं है। अत: उन्हें छोड़ो। आठों मदों को छोड़कर संसार नश्वरता के बारे में कर्म की विचित्रता के बारे में, अध्ययन करें और केवलज्ञान की प्राप्ति करें।

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