दान विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- दानादि करने से पाप घटता है, पुण्य बंधता रहता है एवं मोह भी कम होता जाता है।
- जिस घर में मुनि को आहारदान नहीं दिया जाता वह घर, मरघट के समान है।
- दाने-दाने पर खाने वाले का नाम के साथ दाने-दाने पर देने वाले का भी नाम लिखा होता है।
- दान देने का अर्थ है, सागर में से पानी निकालना। सागर का पानी निकालने से कभी कम नहीं होता वैसे ही दान देने से धन कभी कम नहीं होता।
- दान करने से धन नहीं घटता बल्कि पुण्य क्षीण होने से धन घटता है।
- दान देने से तो पुण्य की वृद्धि होती है और लक्ष्मी (धन, दौलत) पुण्य की दासी है।
- जो दान देते समय लेखा-जोखा नहीं रखता, उसके यहाँ धन की कभी भी कमी नहीं आती।
- धन का जो बांध है, उसे विधानादि के माध्यम से रिसाना चाहिए वरन् खतरा पैदा हो सकता है।
- धन का त्याग संसार त्याग व मोक्ष प्राप्ति का उपाय है।
- यदि हमारी मन, वचन एवं काय की चेष्टाओं के निमित्त से किसी को मोक्षमार्ग मिलता है तो इससे बढ़कर और कोई लाभ नहीं, आज इससे बड़ी और कोई साधना नहीं है, उपलब्धि नहीं है।
- दूसरे के जीवन में भी यह आत्मवैभव का श्रद्धान हो जावे ऐसा दान चैतन्य दान है।
- सम्यकदर्शन-ज्ञान-चारित्र का दान अनमोल दान है।
- दान करें पर अभिमान न करें वरन् उस दान का सही फल प्राप्त नहीं होगा, कर्म निर्जरा नहीं होगी, दान अपने आप में वैयावृत्त नाम का तप है।
- दान, पुण्य के द्वारा अपने पापों की गंदगी धो लो।
- पात्र के योग में दाता का पाप पुण्य में बदल जाता है या पाप नष्ट हो जाता है।
- जैसे जल खूनादि को धो देता है वैसे ही दान, गृहस्थी सम्बन्धी कार्यों से उपार्जित सुदृढ़ कर्मों को नष्ट कर देता है।
- मन में विशुद्धि पैदा होना दानादि का तात्कालिक फल है।
- अभयदान प्राप्त होना ही दान का सही फल है।
- शुद्धि का अर्थ-दाता शरीर से निरोग हो एवं अपवाद से रहित हो वही शुद्ध दाता है यही दाता की बाह्य शुद्धि है।
- दान देने में पास तो सभी हो जाते हैं पर शत/प्रतिशत अंक सभी को नहीं मिल पाते।
- दान देने से राग छूट गया यही तो साक्षात् फल मिल गया एवं संवर निर्जरा हो गयी। यह सब श्रद्धान का फल है। दान देने से कर्मो की संवर व निर्जरा होती है ऐसा श्रद्धान रखना चाहिए।
- दानादि तो श्रावक के कर्तव्य हैं, उनके प्रदर्शन का सवाल ही नहीं उठता।
- दान के विषय में कहा है कि दायें हाथ से दिया तो बायें हाथ को भी पता न लगे।
- दान, प्रतिदान की भावना रखकर नहीं देना चाहिए। जैसे तंत्र, मंत्र मिल जाएगा, ऐसे भाव रखकर दान देना प्रतिदान की भावना कहलाती है।
- धर्मामृत की प्राप्ति हो ऐसी भावना से दान देना चाहिए, धन प्राप्ति के लिए नहीं।
- पात्र, साधुजन यथाजात बालक के समान होते हैं। उन साधुओं को भी बालकों जैसा विधि विधान से आहारदान देना चाहिए।
- ज्ञानदान को उपकरण दान के रूप में स्वीकारा है। सम्यकदर्शन में कारणभूत जिनायतन भी उपकरण दान में आते हैं।
- शास्त्र, पुस्तक को तो मात्र मनुष्य ही पढ़ सकता है लेकिन प्रतिमा का, वीतराग मुद्रा का दर्शन तिर्यंच भी कर सकता है और सम्यकदर्शन भी प्राप्त कर सकता है।
- आहारदान तब तक काम करता है जब तक भूख दुबारा न लगे पर जिनायतन में दिया गया दान अनंतकालीन मिथ्यात्व को धो देता है।
- मनुष्य का कार्य एक जंगली सुअर ने कर दिया और वह आवास दान में प्रसिद्ध हो गया।
- पूर्व दान, त्याग, तप के माध्यम से इस भव में माहात्म्य वैभवादि प्राप्त होता रहता है। जैसे जब तक पेड़ है तब तक उससे छाया, फल आदि मिलते रहेंगे।
- मान/सम्मान के लिए नहीं बल्कि दान का सही उपयोग हो इसलिए दान दिया जाता है।