दया विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- आगम का उल्लंघन करने वाला कभी भी दया का पात्र नहीं बन सकता, उसकी दशा हवा की संगति में आये बादलों की तरह हो जाती है।
- जिनवाणी की उपासना करने का अर्थ है, हृदय का दया से ओतप्रोत हो जाना।
- वासना का नहीं बल्कि दया, अहिंसा का आदर्श निर्णय होता है। जैसे नेमिनाथजी ने लिया था |
- दया के बिना धर्म की शुरुआत ही नहीं होती।
- दया धर्म के अभाव में कोई पूज्य नहीं बन सकता। दया धर्म का पालन करने वालों को देवता भी बार-बार नमस्कार करते हैं।
- अहिंसक की उपासना भी अहिंसा पूर्वक ही होनी चाहिए।
- जिसे मात्र वस्तु का स्वरूप ही धर्म लगता है और "दया विसुद्धो धम्मो" धर्म नहीं लगता वह अपने परिणाम आप ही जाने।
- यदि आपके पास दया है तो धर्म आपके पास है, वह आपकी रक्षा हमेशा करता रहेगा।
- दया धर्म की महिमा अपरम्पार है। राजा श्रेणिक ने मुनिराज पर उपसर्ग करने के बाद पश्चाताप करके तैतीस सागर की आयु को चौरासी हजार वर्ष में परिवर्तित कर दिया।
- अपने मन में दूसरे के प्रति करुणा के भाव उमड़ते रहना, धार्मिक बने रहने का अहसास देता रहता है।
- दया, करुणा, अनुकम्पा अंतरंग क्रियाएँ हैं और वह बाहर अपनी प्रतिक्रिया दिखा देती है।
- घोड़े को चलाने वाला व्यक्ति चाबुक मारते समय लगाम को छोड़ देता है, क्योंकि उसके अंदर भी दया के अंकुर हैं।
- यदि आप दया नहीं करते तो आपके हाथ भी पैर के रूप में (जानवर की तरह) कार्य करने लगेंगे।
- जिनशासन की प्रभावना विश्व भर में दया के माध्यम से ही हो सकती है।
- दया, दम के लिए और दम त्याग के लिए और त्याग, समाधि के लिए कारण है।
- दयावान के सामने शेर और गाय एक ही घाट पर पानी पीते रहते हैं।
- दया धर्म के कारण तिर्यञ्च भी जात्य बैर छोड़ देते हैं।
- दया (अभयदान) से बढ़कर और कोई दान नहीं होता।
- दया, अनुकम्पा सहित सम्यक्दर्शन ही सक्रिय सम्यक्दर्शन माना जाता है।
- दयापूर्वक किया गया तपश्चरण मोक्षरूपी वृक्ष का बीज है और सभी ऋद्धियों का कारण है।
- अहिंसा सभी व्रतों की माँ है, रत्नत्रय की खान है एवं समस्त जीवों का हित करने वाली है।