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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • प्रवचन सुरभि 73 - कुल का मद

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    आज कुल मद के बारे में बताना है। जो कुल को मुख्यता देकर मान करता है, वह मदवान कहलाता है। म्यान और तलवार दो चीज हैं। तलवार को रखने का स्थान म्यान है। तलवार काम की चीज है। यह जीव म्यान में तलवार की भांति शरीर में रह रहा है। यह जीव आत्मा की कीमत नहीं करता पर शरीर यानि म्यान की कीमत करता है, सेवा करता है उसकी प्रशंसा, सुरक्षा, संवर्धन चाहता है। जो कुल को ही महत्व देता है, वह शारीरिक जड़ पर्याय को ही अच्छा मानने लगता है,उससे बड़ा मूर्ख कोई नहीं है। हमारा उच्च कुल है, हमारे दादा, परदादा सिंहासन पर थे या हैं इससे मैं उच्च कुल का हूँ, इसीलिए अभिमान करें, यह ठीक नहीं। संतान के क्रम से आते हुए जो अच्छा बुरा आचरण है, उसका नाम है गोत्र। जो उच्च कार्य करता है, वह अच्छा, और जो बुरा कार्य करता है, वह नीच कहलाता है।

     

    यह गोत्र कर्म कैसे बनता है। कोई कहे कि धनवान साहूकार उच्च कुलीन है सो यह बात नहीं। वह तो साता वेदनीय कर्म से मिले धन से धनवान बना है न कि उच्च कुल की अपेक्षा से। शरीर से स्वच्छ, हृष्ट पुष्ट है, वह भी भोगान्तराय कर्म से खा पी रहा है न कि उच्चकुल की अपेक्षा से। जो बुद्धिमान है, वह भी ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से बुद्धिवान है न कि उच्चकुल की वजह से। जो दीर्घायु है वह भी उच्चकुलीन नहीं है, क्योंकि नरक में ३३ सागर की आयु वाला भी होता है, जो उच्च गोत्र वाला नहीं फिर उच्च कुलीन कौन-सा बनता है ? तो बताया है कि जिनका आचरण अच्छा है जिनका सम्बन्ध आर्यों के साथ रहता है, वह उच्च का बन्ध कर रहा है तथा उसके उच्च का उदय भी है। हम बातों-बातों में मद करते हैं। वास्तव में मद जड़ की पर्यायों को लेकर होता है। शारीरिक पर्यायें यदि पूर्व में कुलीन न हों तो भी सच्चे चारित्र के संसर्ग से उच्च कुलीन हो जायेगा। भरत चक्रवर्ती के ३२ हजार रानियाँ म्लेच्छ खण्ड की होती है, वे भी भरत के संसर्ग से उच्च कुलीन हो जाती हैं। आत्मा में जब उज्ज्वल भाव जाग्रत होते हैं तो उसका प्रभाव शरीर पर भी पड़ता है। जैसे-जैसे उज्ज्वल भाव को मनुष्य अपनाता है तैसे-तैसे उसका शरीर भी उज्ज्वल बनता जाता है। जब शुद्धोपयोग स्थिर रह जायेगा तब शरीर भी परम औदारिक हो जायेगा, वह सप्तधातुओं से दूर हो जायेगा, तथा उसमें निगोदिया जीव नहीं रहेंगे। बिल्कुल अचित, शुद्ध बन जायेगा। आत्मा में परिणाम उज्ज्वल हो तो उसे कुलीन कहना पड़ेगा। प्राय: संसारी प्राणी शरीर को अपना मानता है, उसमें ही सुख मानता है।

     

    आचार्यों ने इसीलिए कहा है कि शरीर को लेकर जो ग्लानि, मद होते हैं, वे आत्मा के स्वभाव नहीं है। जब आत्मा में विचार, मनन, चिंतन किया जाये तो शरीर गौण हो जाता है। शरीर उसी स्थान पर ही है, पर धार्मिक क्षेत्र में उसका ज्यादा सम्बन्ध नहीं रहता। जीव का उद्धार शरीर पक्ष गौण होने पर होगा। कुल मद, गोत्र मद गौण होने पर आप उद्धार कर सकते हैं। गोत्र कर्म पर अभिमान समाप्त होना चाहिए। अभिमान मोह को लेकर होता है। सम्यग्दर्शन, ज्ञान, मोक्ष मार्ग, आत्मा के विकास के लिए मोहनीय कर्म का क्षयोपशम जरूरी है। ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम मोक्षमार्ग के लिये कारण नहीं है। मोहनीय कर्म का क्षयोपशम जरूरी है। अनन्तानुबंधी का क्षयोपशम होने पर सम्यग्दर्शन पैदा होता है। अत: अनन्तानुबन्धी मद नहीं करना चाहिए। शरीर की सुरक्षा के लिए जो भाव हैं, वे मद नहीं हैं। भोगभूमि में उच्चकुल आदि का विचार नहीं होता यहाँ मनुष्यों में होता है। भोगभूमि में अत्याचार, अनाचार नहीं होता पर वे उनके त्यागी नहीं होते। मिथ्यादर्शन व सम्यग्दर्शन दोनों के साथ उच्च नीच का विचार नहीं है। अत: इस गोत्र कर्म को मिटाने के लिए कार्य करना है। गोत्र पर अभिमान करने पर फिर गोत्र कर्म का बंध होता है, उसके अगुरु लघुत्व का प्रादुर्भाव नहीं होता। ऊँचा नीचा गोत्र कर्म के अधीन है। अत: उस पर अभिमान नहीं होना चाहिए। आत्मा के उज्ज्वल भाव को उच्चकुलीन माना है। सबका भला चाहने वाले का कुल भी उच्च व पूजनीय बन जाता है।

     

    बंधन करना खुद के साथ दूसरे के लिए भी बंधन होता है। रोने वाला खुद भी रोता है, तथा दूसरे को भी रुला देता है, दुखी बना देता है। महावीर ने पृथ्वी को कुटुम्ब नहीं माना पर पृथ्वी पर रहने वालों को कुटुम्ब माना। वही माता-पिता कृतार्थ हो जाते हैं जिनका बालक अष्ट कर्मों को नष्ट करने के लिए मोक्ष मार्ग को अपनाता है। लेकिन आप अपने आपको धन्य समझते हैं, बेटे बेटियों की शादी करने में, क्योंकि गोत्र को सुरक्षित रखना चाहते हैं। लेकिन धर्माचार्य जो ग्रन्थ लिखते समय अष्ट कर्मों से वेष्टित थे, फिर भी उन्होंने अष्ट कर्मों को संसार का कारण माना। ये कर्म राग द्वेष के द्वारा होते हैं, और राग द्वेष अच्छा बुरा मानने पर होते हैं। महावीर ने जब संसार को अच्छा नहीं माना तो उनके उपासक अच्छा क्यों मानते हैं? महावीर ने तो मोक्ष को अच्छा माना। आप लोग अपने बच्चों की जल्दी-जल्दी शादी करके गले में माला डालकर दो पाये से चार पाये वाला बना देते हैं। दो पैर वाले को कौन बाँध सकता है, पर चार पैर वाले के तो पट्टा बाँध देते हैं। उसे चतुर्भुज बना देते हैं, यानि चारों गतियों का मालिक बना दिया। चार पैर, चार हाथ रखकर मोक्ष का संपादन नहीं कर सकता। गोत्र कुल को सुरक्षित रखने को विवाह करता है।

     

    संसार में आत्मा भटकता आ रहा है। अनंतों बंधन कट जाये जब जागृत अवस्था में आत्मा हो, नींद नहीं लगी हो, गाढ़ नींद मत लगने दो। क्योंकि जो मोह नींद में सो जाये तो धार्मिक गूंज उसके कानों तक नहीं पहुँच सकती, क्योंकि वह भावों के विकल्पों में बंधा हुआ है कुल को आभूषण मानता है। सिद्धों के ८ गुण भी ८ कर्मों के अभाव में होते हैं। आप ८ कर्मों व उनके फलों को सुरक्षित रखना चाहते हैं, यही भूल है। आठ कर्म तो भिन्न हैं ही, पर उनको माध्यम बनाकर निमित रूप से फल मिलता है वह भी आत्मा से भिन्न है। पर आप कर्म व उनके फलों की अनुभूति चाहते हैं। साता व असाता के उदय में हर्ष-विषाद, राग-द्वेष होता ही है। आप कर्म व उनके फलों को भिन्न मानकर गौण करो, तभी आत्मा की अनुभूति होगी। मद के अभाव में अनुभूति होगी। वह दुखी रहेगा जो कर्मों की ओर दौड़ रहा है, उनके फलों को चाह रहा है।

     

    भगवान् कर्म का उदय नहीं लाते वे तो निष्पक्ष हैं। पक्षपात से दूर, हर्ष विषाद से दूर हैं, वे कर्मों से दूर हैं, वे कर्मों को जीवन में नहीं लाते। सम्यक दृष्टि को कर्मों से दुख होता है, वह कर्मों को व उनके फलों को नहीं चाहकर मोक्ष को चाहता है। आत्मिक परिणामों को चाहता है। मद अपने से भिन्न परिणामों को लेकर होता है। आत्मिक परिणाम में मद नहीं है। अत: चैतन्य शक्ति के बारे में विचार करो, कर्मों को, मदों को फेंक दो। जिस प्रकार स्वादिष्ट पदार्थ बहुत ज्यादा गर्म होने पर हाथ में रखने पर फेंक देते हो, उसी प्रकार कर्म व फलों को भी फेंक दो। जब कर्म बाँधते समय मुहूर्त नहीं तो छोड़ते समय भी मुहूर्त नहीं है। कर्म व फल भिन्न हैं, दूसरे के अधीन हैं। इन पर, मदों पर हर्ष-विषाद न करो, राग-द्वेष न करो, तभी वीतरागता के भाव जागृत होंगे और आप पूज्य हो जाओगे।


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