सम्यक दर्शन के ४ अंगों के बारे में संक्षेप में वर्णन आपने समझा। पाँचवाँ अंग है, उपगूहन, इसका अर्थ है छिपाना। संसारी जीव सुख चाहता है, दुख दूर करना चाहता है। अपने अन्दर में विकास तब होता है, जब दूसरों के दोषों को न देखें और गुणों के ग्राह्य बनें। दुनियाँ के दोष सामने लाना, अपनी मूर्खता है। हम अनादि काल से दूसरे के दोष देखते आये हैं, पर ऐसा नहीं सोचते कि दोष हम सभी ने किए हैं। संसारी दूसरों के दोषों को ढूँढ़ता है। पर जो संसार की ओर पीठ कर दे, अपने दोषों को न छिपाकर दुनियाँ के सामने आलोचना निंदा के द्वारा रखे तथा दूसरे के दोष छिपावे यही उपगूहन अंग है। गुणों की उपलब्धि के लिए भगवान् को नमस्कार किया जाता है। लेकिन गुणों को नहीं चाहते हुए दोषों का भण्डार बन जाते हैं। यही अनादि से परिणति हो रही है। कहा है कि :-
दुर्जन स्वभाव तुम सुनो कदलीवन में ऊँट।
जैसे रसाल छोड़ के ढूँढ़े बबूल ढूँठ ॥
काँटे को खाने वाला ऊँट रसाल को नहीं खाता, यह उसका स्वभाव बन गया। काँटा चुभ जाये तो परवाह नहीं, उसे उसी में रस आता है। दुर्जन व्यक्ति ने भी टेढ़ी चाल को अपना रखा है, वह अपनी निधि को नहीं खोजता, प्रयोजनभूत तत्व की गंध को नहीं पकड़ता। हम दूसरों की कमियों को, दोषों को ढूँढते हैं। छद्मस्थ में तो कमियाँ रहेंगी ही, क्षयोपशम ज्ञान के द्वारा गल्तियाँ तो होगी आप गल्तियों को छोड़ दो। कदलीवन की सुरक्षा के लिए काँटों की बाड़ तो लगायेंगे। जब तक छदमस्थ है तब तक दोष रहेंगे। छद्मस्थ अवस्था से छूटना चाहते हो और केवल ज्ञान की ओर प्रयास करना चाहते हो, तो उपगूहन अंग को पालें। श्रुतज्ञान को, उपगूहन को अपना लेंगे तो ज्यादा दिन संसार नहीं रहेगा। उपगूहन दोषों का निवारक होता है ग्राहक नहीं रहता। आप लोग कटाक्षों के भय से सिद्धान्त को छोड़ देते हैं पर दुख को नहीं छोड़ते। आपको सुख इसलिए नहीं हो रहा है क्योंकि आप अपनी बात रखने के लिए क्रोध, लोभ, भीरुत्व, हास्य को अपना लेते हैं। इसे छोड़ने पर सत् की प्राप्ति होगी। हमारी दृष्टि मात्र दोषों की ओर है, उपगूहन अंग की ओर नहीं। छद्मस्थ अवस्था में वही विद्वान् है जो सिद्धान्त के अनुरूप चल कर दोषों को न अपनाते हुए श्रुतज्ञान को रखता है।
श्रुतज्ञान केवलज्ञान तक पहुँचाने वाला माध्यम है। चर्म चक्षुओं के द्वारा दोष और पर्यायें सामने आती हैं पर ज्ञान चक्षुओं द्वारा पर्यायों के अलावा निर्विकार रूप भी सामने आता है। श्रोता वह नहीं है जो जोंक की तरह खराब खून को चूस लेता है, अच्छे खून को नहीं छेड़ता। श्रोता वही जो खराब चीजों को छोड़कर असली चीजों को पकड़े। हंस के समान बने, जो दूध-पानी के मिश्रण में पानी को छोड़कर शक्ति के द्वारा दूध को ग्रहण करता है। इसी प्रकार श्रोता दोषों को टालते हुए उपगूहन को अपनावे । हेय उपादेय की शक्ति श्रुतज्ञान में है, श्रुताज्ञान में नहीं। चलनी के पास आटा नहीं रहता, भूसा रहता है। अत: चलनी न बनो। आटे रूपी गुण को आप ग्रहण कर लें और जो दोष रूपी भूसा है उसे छोड़ दे। यह बात जब होगी, तभी जीवन में विकास होगा।
ऐसा कोई व्यक्ति संसार में नहीं जो गुणवान ही हो। जो गुणवान ही है वह संसार से ऊपर उठा होगा, संसार में नहीं रहेगा। कुछ न कुछ कमियाँ सब में हैं। भगवान् कुन्द-कुन्द भी कहते हैं कि मुझमें भी कमियां हैं। पर दोष के प्रति दृष्टि नहीं है। दोष की तरफ दृष्टि न होना भी संवर है। जब आस्रव आएँगे नहीं तो निर्जरा के लिए देर नहीं। आने वालों की सीमा नहीं होती आए हुए की सीमा है। अनन्त का जो तांता है उससे डरना है। संवर के तत्व के साथ उपगूहन होता है। संवर तो आपका भी हो रहा है पर गुणों का संवर और दोषों का आस्रव हो रहा है। अत: दोषों का संवर और गुणों के आस्रव की आवश्यकता है। निर्दोषी और अदोषी में अन्तर है। भगवान् को वीतरागी कहा है, अरागी नहीं। निर्दोष होने के लिए उपगूहन की आवश्यकता है। हमारी ऊँट की तरह चाल है। हम केले के वन की ओर न देखकर बबूल की ओर देखते हैं। हाथी के समान बनो जो केले को खाता है। संसार में रहते हुए वीतरागी मुनि हाथी के समान केले का रसास्वादन करते हैं, काँटों की ओर नहीं देखते। कहा भी है -
संवेदना स्वयं की कितनी अनोखी,
तू एक बार उसको चख देख चोखी।
सारी व्यथा सहज से पल में मिटेगी,
आरोग्य पूर्ण नव चेतना मिलेगी ॥
एक बार आत्मा के बारे में विचार करें तो काँटों का अनुभव नहीं होगा, वहाँ शूल नहीं रहेंगे। त्रिशूल सम्यक दर्शन, ज्ञान, चारित्र होगा। हमने आज तक अपनी निधि का आस्वादन, संवेदन, साक्षात्कार नहीं किया। गुणों की गवेषणा करो अब तो, ताकि बेड़ा पार हो जाये। सबसे ज्यादा समय दोषों के अन्वेषण में लग रहा है, गुणों के अन्वेषण में नहीं। जब गुणों का अन्वेषण होगा तो वस्तु तत्व की ओर चले जायेंगे। जब गुणों का समादर करोगे तो हर-एक व्यक्ति के गुण आएँगे। दोषों की ओर दृष्टि नहीं होगी तो समय भी ज्यादा खर्च न होगा। हम अपने आपको उच्च, उच्चतर, उच्चतम बनाना चाहते हैं पर बंध नीच गोत्र का करते हैं। क्योंकि दोषों को अपनाते हैं, दूसरों की निंदा करते हैं। हमें हंस के, हाथी के समान बनना है, ऊँट, जोंक, चालनी के समान नहीं बनना है। उच्च गोत्र में बाहरी निमित्त भी पड़ता है। दूसरे को दोषी बनाना, निंदा करना, अपनी निंदा करना है। दूसरे की ओर दोषों के लिए एक ऊंगली उठाने पर चार उगलियाँ अपनी ओर उठती हैं।
महावीर भगवान् मौन रहे। मौन का मतलब स्वीकृति नहीं। ‘मौनम् सम्मति लक्षणम्' नहीं, बल्कि ‘मौनम् सन्मति लक्षणम्' है। उन्हें कोई गधा या पागल भी कह दे तो भूत नैगम संज्ञा की अपेक्षा से गधा पागल कहना ठीक ही है, ऐसा विचारा। इन सभी विकारों से हटकर उन्होंने संवेदना को जीवन में उतारा तो दुख, आपत्तियाँ क्षण भर में टल गयी और अनन्त सुखी बने। स्वसंवेदन अनोखी चीज है। सुख की व्याप्ति विषयों के साथ नहीं स्वसंवेदन में है। विषयों में पञ्चेन्द्रिय विषय के अलावा तथा इनसे बड़ा 'मान-सम्मान' भी विषय है। इससे ऊपर उठने पर स्वसंवेदन है। गुणों का अन्वेषण करने पर सम्यक दर्शन निर्मल, निर्मलतर निर्मलतम् होगा अनन्त काल तक विश्राम होगा, सुख का अनुभव होगा। स्वसंवेदन में क्षणिक सुख नहीं अनन्त समय तक सुख है, कोई व्यथा नहीं। समय धीरे-धीरे जा रहा है, पूर्ण जीवन को वृथा न खोओ जरा (वृद्धावस्था) में कषाय तृष्णा तो बढ़ेगी पर इन्द्रिय क्षमता नहीं रहेगी। अत: अब चेत जाओ और शेष जीवन को संयम में, गुण ग्राहकता में बिताओ।