आचार्य श्री सातवें तप मद के बारे में आज वर्णन करते हैं। तप का अर्थ है अशुद्ध से शुद्ध बनने का उपाय। अशुद्ध पदार्थ को शुद्ध बनाने के लिए तपाया जाता है। मिट्टी को तपाकर शुद्ध बनाकर घड़ा बनाया जाता है, तभी वह घड़ा जल धारण कर सकता है। दूध में से घृत निकालने के लिए तपाना जरूरी है, पाषाण में से सोना निकालने के लिए तपाना जरूरी है, उसी प्रकार आत्मा को शरीर से अलग करने के लिए तप है। शरीर से आत्मा तप द्वारा अलग हो सकती है। अशुद्धि से शुद्धि तप द्वारा ही होती है। तप। पाथेय का काम करता है। तभी शुद्ध बुद्ध हम बनेंगे जब अपने आपको तप द्वारा तपा लें। तप रूपी अग्नि के द्वारा कर्मरूपी ईधन को नष्ट कर सकते हैं, तभी आत्मा निर्बन्ध हो जाता है। तप को पाथेय के रूप में लें तो ठीक है, वरना यह अपने लिए भी हानिकारक हो जाता है। अग्नि से खाना पकाते हैं, पर असावधानी से अन्य कुछ भी जैसे हाथ पांव आदि भी जल सकते हैं। तप अग्नि के समान है। तप से कर्म भी जल जाते हैं, पर अविवेक होने पर आत्मा भी जल सकती है। तप को साधन बनावेंगे, विशुद्धि को लक्ष्य रखेंगे तो तप ठीक काम करेगा।
आचार्यों ने १२ प्रकार के तप आत्मा को विशुद्ध बनाने के लिए बताये हैं। पर साथ में यह भी कहा है कि-भव की वांछा नहीं होनी चाहिए। इन तपों के साथ में भव की वांछा अशुद्धि प्रदान करती है। भव की वांछा न होने पर तप के द्वारा शुद्धि की ओर आगे बढ़ सकते हैं। सांसारिक सामग्री की वांछा रखने पर आप कर्मों को नहीं तपाएँगे, बल्कि आत्मा को तपाएँगे। तप साधन होकर भी बाधक बन जायेगा। वांछा न होने पर आत्मा निखर उठता है, कर्म मल छूट जाता है। आचार्य अमितगति जी भगवान की भक्ति करते हुए कहते हैं कि हे भगवान्! मैं शरीर से पृथक् होने के लिए तप कर रहा हूँ। अनादि से बंधन में हूँ, कारावास का अनुभव कर रहा हूँ। आपके प्रसाद से शरीर से पृथक् होऊँ, ऐसी शक्ति देवें। भव की वांछा होने पर कर्म शरीर को नहीं जलाएगा, आत्मा को जलाएगा, आत्मा दुख का अनुभव करेगा।
आपकी दृष्टि बाहरी तप की ओर तो जाती है, पर आंतरिक तप की ओर नहीं जाती। आत्मा Direct बाहरी तप नहीं कर सकता। उपवास, व्रत आदि करने वाले हम नहीं हैं, जब ध्यान में यह आ जाएगा तो मद नहीं करेंगे। आप अपने भावों के ही कर्ता हैं, जब भावों में मद हो रहा हो तो उसे दूर करने की चेष्टा करनी है। अपनाना दूसरे द्रव्य का नहीं, अपने स्वभाव का होता है। अनादि से तप तो किया पर नैमितिक बाहरी तप ही किया, आभ्यंतर तप नहीं किया जो वास्तविक आत्मा का है। कर्मरूपी ईंधन तभी जलेगा, जब आभ्यंतर तप होगा। आपको शरीर के मल को दूर हटाना है या आत्मा के मल को दूर हटाना है? शरीर के मल को दूर करने से आत्मा का मल दूर न होगा। परमार्थ से बाहर साधक को न होना चाहिए।
आत्मा का सम्बन्ध Direct किन-किन से है यह सोचना है। आभ्यन्तर तप लक्ष्य है और बाह्य तप साधन है। आभ्यन्तर से निर्जरा होती है। बाह्य तप से आभ्यन्तर तप में मजबूती निर्मलता आती है। आत्मा आभ्यंतर तप से निर्मल होगी। संसारी प्राणी भव सुख की वांछा को लेकर तप को अपनाता है। बाह्य निमित्त द्रव्य क्षेत्र काल को लेकर है। शरीर जिस समय नहीं चलता और क्षेत्र अनुकूल न हो तो बाह्य तप की ओर दृष्टिपात न कर मात्र आभ्यन्तर भावों को स्थिर एवं निर्मल बनाओ। आभ्यन्तर तप को लेकर कभी मद नहीं होता बाह्य तप को लेकर ही मद होता है। सम्यग्दर्शन पर मद नहीं होता, पर उसके अनुसार जब क्रिया करता है, तब अन्दर की ओर दृष्टि न होने पर बाह्य में मद हो जाता है। जब मद, अभिमान हो रहा हो तो समझ लो कि दृष्टि अन्दर नहीं गई। कहा है कि-
दीवार है अमित जो अवरुद्ध द्वार
क्यों ही प्रवेश निज में जब है विकार।
कैसे सुने जबकि अंदर मुक्ति नार,
बाहर ही बाहर से आप भगवान को पुकार रहे हैं, कह रहे हैं कि किवाड़ खोल दो, मैं आ रहा हूँ। लेकिन बीच में दीवारें है, जिससे बाहर की आवाज अन्दर नहीं पहुँचती है। आप स्वयं भी अन्दर प्रवेश नहीं कर रहे हैं, मात्र बाहर से ही आवाज लगा रहे हैं। जब तक दीवार है, पर्दा है विकार रूपी दीवार को आप जब तक नहीं तोड़ेंगे, तब तक अन्दर नहीं जा सकते। अन्दर जाने के लिए विकार रूपी रिबन को काटना पड़ेगा। बाहरी तप को लेकर यदि मद करेंगे तो तीन काल में भी अन्दर प्रवेश नहीं हो सकेगा, रहस्य समझ में नहीं आ सकेगा। अंतिम लक्ष्य अन्दर जाना होना चाहिए। बाहरी प्रक्रिया तो मात्र साधन है। अन्दर जाने पर निराकृत अवस्था प्राप्त हो जाएगी।
आज तक हमने मदवान होकर तप किया, जिसके कारण नवग्रैवेयक तक जा आए। साधक कभी भी दूसरे के सामने प्रकट नहीं करता, वह तो साध्य को पकड़ने की चेष्टा करता है। वह सोचता है कि इस अनन्त संसार में किसे-किसे दिखाऊँ। इसमें तो अनन्त समय लग जाएगा वह तो स्वयं ही अपने अन्दर देखने लगता है। दिखाने में अन्य द्रव्यों से सम्बन्ध होता है, कुछ भव की इच्छा होती है। पर देखने में दूसरे की आवश्यकता नहीं। दिखाने में दूसरे को समझना पड़ेगा और अगर वह नहीं समझेगा तो उस पर क्रोध होगा, कषाय होगी और अपने देखने की क्रिया से भी च्युत हो जाना पड़ेगा। दूसरे को दिखाने में बाह्य तप ही तो मिलेगा पर अन्दर का तप नहीं दिखेगा।
सद्बोध शिष्य दल को जब मैं दिलाऊँ।
स्वामी निजानुभव को तब मैं न पाऊँ ॥
आचार्य पूज्यपाद समाधितन्त्र में कहते हैं कि शिष्य को भी जब तप को दिखाता हूँ तो अन्दर में शुद्धोपयोग को भूल जाता हूँ, मैं बाहर आ जाता हूँ। हमारी दृष्टि अन्दर की ओर नहीं जाती, महावीर को नहीं देख पाती, बाहरी मनोरम दृश्यों में फिसल जाती है, बाह्य तप ही दिख पाता है।विषयों की लालसा के साथ जीने वाले जीव भगवान् के समवसरण में जाकर भी केवलज्ञान को नहीं देखेंगे, वीतरागता को नहीं देखेंगे। मात्र छत्र, चमर देखेंगे, मन्द-मन्द पवन का अनुभव कर बाहरी दृश्यों को देखेंगे, बहुत बढ़िया महावीर जैसा शरीर चाहेंगे महावीर के पास केवलज्ञान था और हम बाहर रह गये। अन्दर प्रवेश के लिए विकार का अभाव होना चाहिए। विकार के अभाव होने पर किसी मन्दिर अथवा संघ की जरूरत नहीं होती।
भव की वाँछा के साथ दुनियाँ के पदार्थ आपेक्षित हैं। किन्तु वास्तविक सम्यग्दृष्टि जो है, आभ्यन्तर की ओर दृष्टि करने वाला, बाहर नहीं देखेगा। आभ्यन्तर तप में जो साधन है उसे रखो, बाकी को छोड़ो। आत्मा के साथ सम्बन्ध न होने पर मद किसी न किसी रूप में रहेगा, आभ्यन्तर तप को नहीं चाहने पर बाह्य तप को चाहेगा और तब ही वह मद करेगा। अत: वे अज्ञानी हैं जो बहुत तप, परिश्रम करके भी अन्दर के मल को धोने की चेष्टा नहीं करते। बाहर से बर्तन साफ कर लिए पर अन्दर से साफ नहीं करने पर उसमें दूध फट जाएगा।
आभ्यन्तर शुद्धि के साथ बाह्य शुद्धि सापेक्षित है। बाहर व अन्दर से पात्र को साफ करना जरूरी है। आभ्यन्तर तप में प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, व्युत्सर्ग, स्वाध्याय और ध्यान है। जिस प्रकार १६ बार सोने को तपाने पर उसकी शुद्धि होती है, उसी प्रकार ध्यान की शुद्धि होती है। ध्यानरूपी अग्नि से आभ्यन्तर द्रव्य को स्वच्छ बना देते हैं। जिसको दोषों के प्रति घृणा नहीं है, प्रायश्चित नहीं है, बड़ों के प्रति विनय नहीं है, तो उसका जीवन यूँ ही चला जाता है। महावीर के झण्डे के नीचे आकर भी जीवन को सार्थक नहीं बनाया, संताप को दूर नहीं किया। वास्तविकता को लेकर तप करोगे तो कर्म से मुक्त हो जाओगे। कमी तप में नहीं है, भगवान् महावीर का रास्ता अप्रमाण नहीं है। पर अपने पास कमी है, हमने विपरीत दिशा को पकड़ कर रखा है। अत: तप का मद नहीं करना है, तप को जीवन का अंग बनाना है और तप से आत्मा को उज्ज्वल बनाना है। शुद्ध बनने पर, उज्ज्वल बनने पर आत्मा फिर कभी भी अनन्तकाल तक अशुद्ध नहीं बनेगी अत: उसे शुद्ध बनाने का प्रयास करो।