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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • प्रवचन सुरभि 71 - निर्मद बनें ! सो ऐसे

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    सम्यक दर्शन के लिए ८ अंगों का पालन, देव, शास्त्र, गुरु पर अटूट विश्वास तथा तीन मूढ़ताओं से दूर होना बताया है, तभी मोक्षमार्ग प्रशस्त बनता है। मान कषाय के वशीभूत होकर यह प्राणी अपने स्वभाव को भूल जाता है। मान जब बहुत गृद्धता को प्राप्त कर लेता है, तब मद के रूप में परिवर्तित हो जाता है। मन, वचन, काय से जब मान कषाय बाहर आती है तब वह मद हो जाती है। अनेक ग्रन्थों का मंथन कर दौलतरामजी ने छहढाला में कहा है कि सम्यक दर्शन में दोष लगाने वाला मद है। गंदे मुख को गंदे हाथ से साफ नहीं किया जाता है। बल्कि साफ हाथ से गंदे मुख को साफ किया जाता है। सम्यक दर्शन को निर्मल बनाने के लिए मद को हटाकर निरभिमानता को अपनाना चाहिए। आप लोगों का समय प्राय: करके मद की उन्नति में ही चला जाता है। मात्र खाने, पीने, यत्र, तत्र, विचरण करने अथवा मूछ ऊपर करने में ही आपको रस आता है। इनके वशीभूत होकर बहुमूल्य समय को गंवा देते हैं। जिसने आत्म स्वभाव का चिंतन किया है, वह इस बारे में नहीं सोचते हैं। ज्ञान विवेक होने पर इस प्रकार गड़ों से बचना है। आपको सोचना है कि विवेक को किस उपयोग में लाया जाये।

     

    आचार्य महोदय, जो कि मद से दूर हैं उनने सर्वप्रथम ज्ञान का मद बताया है। ज्ञान के मद के बारे में विवेचन लिख बोल कर भी नहीं कर सकते। ज्ञान कब मद होता है तथा कब मोक्ष मार्ग का कारण बनता है? जब ज्ञान बाहर की ओर दौड़ता है, नाम चाहता है, तब क्षणिक होता है। जब वही ज्ञान अपने आपको सुधारने में लग जाता है, तब सम्यक् ज्ञान कहलाता है। आज तक हमारा ज्ञान संसार का कारण बना और संसार दुख का कारण है। आप लोगों को शाब्दिक ज्ञान के लिए उपासना नहीं करनी है। शाब्दिक ज्ञान से आप मोक्ष मार्ग नहीं, संसार मार्गी कहलाओगे। शाब्दिक ज्ञान पुस्तकों में मिल सकता है, आत्मिक ज्ञान नहीं। आत्मिक ज्ञान शाब्दिक नहीं है, वह अन्दर ही उत्पन्न होता है, वह पौदूलिक नहीं है। शाब्दिक ज्ञान ध्येय नहीं, माध्यम है। पण्डितों के पास पोथियों का सीमित शाब्दिक ज्ञान होता है। अन्दर का ज्ञान पूर्ण होता है। ज्ञान दर्शन को मोक्ष मार्ग नहीं कहा, बल्कि सम्यक्र युक्त दर्शन ज्ञान चारित्र को मोक्ष मार्ग बताया है। शाब्दिक ज्ञान को नहीं, आत्मिक ज्ञान को टटोलना है। शब्दों के द्वारा ज्ञान को पकड़ते हैं तो स्खलन होता है। ज्ञान में स्खलन होगा तो शब्दों में भी स्खलन हो जाता है।

     

    ज्ञान कुछ ओर चाहता है, शब्द कुछ ओर चाहते हैं। रटने से अन्दर के भाव जागृत नहीं होंगे। प्रतीति सत्य वह है जो शब्दों पर लक्ष्य नहीं, भावों से प्रतीति होवे। शब्दों को पकड़कर मोक्ष मार्ग को तीन काल में भी नहीं अपना सकते। ज्ञान और शाब्दिक ज्ञान में अन्तर है। वास्तविक ज्ञान से शब्दों में अन्तर नहीं पड़ता है। अन्दर जो कुछ है, उसे ही बाहर लाने की चेष्टा होगी। आज वक्ता और श्रोता शब्दों को पकड़कर अन्दर के ज्ञान को महत्व नहीं देते। दूसरे को आकर्षित करने के लिए, यश, पूजा, आदर कीर्ति पाने के लिए जो ज्ञान है, वह वास्तविक ज्ञान, प्रभावना नहीं कहलाएगा। आप चाहते हैं, शब्दों का प्रयोग करना, भले ही भाव चले जायें तो परवाह नहीं। एक अंग्रेज को जैन धर्म के वास्तविक मर्म को समझाने के लिए अंग्रेजी में ही समझाना होगा न कि संस्कृत-हिन्दी में। ऐसा होना चाहिए कि भावों को ठेस न पहुँचे, सिद्धान्त में अन्तर न आवे चाहे शब्दों में परिवर्तन आ जाये। अन्दर का आशय समझाना है। शब्द भले ही भिन्न हों, पर आशय एक हो। शब्द जहाँ से निकल रहे हैं, उसका नाम ज्ञान है, उसका विकास करना है, उसको लेकर मद की प्रादुभूति नहीं होगी। शब्दों को लेकर मद पैदा होता है। स्वभाव का परिज्ञान ही ज्ञान है, उसको लेकर मद नहीं होता। जो मद में डूबे हैं वे नरक कुण्ड में ही पड़े रहेंगे। अत: निर्मद होकर, निरभिमान होकर अपने जीवन में विकास करना है, तभी आप अनन्त सुख का अनुभव कर सकते हैं। आचार्यों का लक्ष्य ग्रन्थों की रचना कर मद का, विद्वता का प्रदर्शन करना नहीं था वे तो उपयोग को स्थिर करने, उसे निर्मल, निर्मलतर, निर्मलतम् बनाने के लिए लिखते हैं। अत: उसी लक्ष्य को लेकर पढ़ें और आत्म कल्याण करें।


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