मोक्षमार्ग के प्रथम अंग सम्यक दर्शन में दोष लगाने वाले, उसको अधूरा रखने वाले मदों के बारे में वर्णन, विश्लेषण गत तीन-चार दिनों से हो रहा है। आज जाति मद का वर्णन करना है। व्यवहारिक क्षेत्र में निमित्त नैमितिक सम्बन्ध रहता है। यह भी रहस्य को लिए हुए है। जब किसी का Operation होता है, तब खून की जरूरत पड़ने पर खून का निरीक्षण होता है, सम्बन्धी का खून लिया जाता है, ताकि वही सत्व गुण मिल जाये। जो माता-पिता में गुण, सत्व रहते हैं, वे संतान में कम होकर आते हैं और सात आठ भव बाद संबंध टूट जाता है। विवाह करते समय भी इस बात का ध्यान रखते हैं, गोत्र आदि मिलाते हैं और Difference रखते हैं। कुल और जाति का शरीर पर प्रभाव पड़ता है।
जिस बात को आचार्यों ने वर्षों पूर्व लिखा, उसे वर्तमान में देख सकते हैं। जाति काल का विरोध नहीं, उस व्यवहार क्षेत्र के बारे में चर्चा नहीं। यहाँ पर धार्मिक क्षेत्र में चर्चा करनी है। अन्दर आत्मा के वर्णन में कोई व्यवस्था सम्बन्ध नहीं, सभी पर्यायों को गौण कर आत्मा के बारे में विचार करेंगे। अनादिकाल से जीव के बारे में चर्चा, अध्ययन किया ही नहीं, मात्र कुल जाति की ही चर्चा की। धार्मिक क्षेत्र में जाति कुल का निषेध नहीं तो स्थान भी नहीं दिया, आवश्यकता नहीं समझी। आत्मा का विकास करना आत्मा जब चाहेगा तो शरीर संबंधी पदार्थों को गौण करेगा। शरीर को ही जब व्यक्ति अपना भोग्य पदार्थ मानता है तब इसे सामाजिक व्यवस्थाओं के बन्धन में रहना पड़ता है। माँ के, पिताजी के कहने पर चलना पड़ेगा, विवाह होने पर पत्नी के कहे अनुसार चलना पड़ेगा। हाँ में हाँ मिलानी पड़ेगी। जब शरीर को भोग्य पदार्थ नहीं माना, पर समझ लेते हैं, तब सभी कार्य गौण हो जाएँगे। मोक्ष मार्ग में शारीरिक भोग नहीं मानसिक विषय नहीं, प्राप्तव्य चीज आत्मा है। मोक्ष मार्ग पर चलना चाहते हो तो बाहरी शारीरिक भोग आदि को भूल जाओ। जिस क्षेत्र में जाना ही नहीं, उसकी निंदा या स्तुति करो कोई जरूरी नहीं।
जिस पदार्थ को नहीं चाहते हो तो उसकी जानकारी व कीमत जानने की आवश्यकता नहीं। वे पदार्थ देखने में आते हुए भी नहीं देखना है, विचार नहीं करना है। जिसे चाहना है, उससे मतलब रखना है। मोक्ष मार्ग में प्रवृत्त व्यक्ति दुनियादारी की चीजों को नहीं चाहेगा, भूल जायेगा और जहाँ अन्य व्यक्ति प्रशंसा करेगा तो वहाँ नहीं रहेगा। अत: जाति-कुल मद को गौण कर दो, भूल जाओ, प्रशंसा गुणगान जहाँ हो वहाँ मत जाओ। मिथ्यादृष्टि के साथ रहना मिथ्याशास्त्र को पढ़ना तथा मिथ्यात्व की उपासना करने से मोक्ष मार्ग को भूल जाओगे।
शरीर के लिए जो जाति-कुल मद हैं, वे मोक्ष पथिक के लिए खतरनाक हैं। जो मोक्ष मार्ग को नहीं चाहते हैं, उनके लिए तो शास्त्र उपदेश जरूरी नहीं है। सर्वप्रथम उधर निदान, लक्ष्य, प्रतिज्ञा, दृष्टि होनी चाहिए, जिसे प्राप्त करना है। रोगी को देखते समय निदान कर औषध दी जाती है। हमें भी निदान करना है कि क्या चाहिए। हमें सुख चाहिए तो सुख से दूर रखने वाले तथा दुख लाने वाले पदार्थों से आप अवश्य डरेंगे। रोगी को अपथ्य छोड़ना पड़ेगा, वरना दवाई का असर नहीं होगा और एक बीमारी दूर होकर दूसरी बीमारी हो जायेगी। एक आकुलता मिटने पर १० सामने खड़ी हो जायेगी। सिगड़ी में आप पानी गरम कर रहे हैं। अगर हवा ऊपर करेंगे तो पानी गरम नहीं होगा, और हवा नीचे करेंगे तो जल्दी गरम हो जाएगा। हवा सिगड़ी को लग रही है, पर ऊपर करने पर बाधक और नीचे करने पर साधक है।
आप सुख चाहते हैं तो सोचो जो कर रहे हैं वे दुख के कारण हैं या नहीं। चार संज्ञा लगी है। संज्ञा का मतलब इच्छा है। आपकी इच्छा दुख के लिए कारण बन रही है। अतः मदों को छोड़कर निर्मद बनकर वस्तु के बारे में विचार करना होगा। सुख की प्राप्ति के प्रयास में अनन्त भव निकल गये लेकिन सुख नहीं मिला। जब समीचीन प्रयास होगा तो मोक्ष मार्ग पर आरूढ़ हो जाओगे। मद की सामग्री भव भव में नहीं मिले चाहे भव नहीं कटे। आज पूजन की सामग्री में भी मद आ गया। नीचे दिखाने का नाम मद है। मद की सामग्री न मिलेगी तो पूजन की सामग्री मिल ही जायेगी। भावों में निर्मलता है, निर्मद है तो सब मिलेगा।
आज आपको भावों में भगवान् से नहीं पड़ोसी से डर रहता है, नाम नीचे न रह जाये, अनादर न हो जाये, मेरे पास कुछ नहीं है। लेकिन भगवान् के पास, निकट वही बैठ सकता है जो निर्मद है, जिसके पास कुछ नहीं है। आप तो मात्र श्वेताम्बर बने हैं, दिगम्बर बने ही नहीं। दिगम्बर तो मुनि हैं। पूजन में भी मद का अभाव अनिवार्य है। निर्मदी निर्विकारी संतोषी बनो। लौकिक क्षेत्र में मद को लेकर आगे पीछे चलता है, पर धार्मिक क्षेत्र में निर्मद होकर आगे बढ़ते हैं। उच्चता, आदर निर्मद होने में है। जाति आत्मा की नहीं, जाति शरीर को लेकर है। यह जाति नाम कर्म है।
आप एक इन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय जिनके मन नहीं है, उनसे बड़े हैं, पर पंचेन्द्रिय से स्पर्धा करते हैं, स्पर्धा ही नहीं-ईष्या करते हैं। एक इन्द्रिय से पंचेन्द्रिय से पंच इन्द्रिय संज्ञी उच्च है। आप मद करते हैं साधर्मी भाइयों से। पर क्यों मद करते हैं ? आपके पास व उनके पास सब चीज बराबर है, कोई छोटा बड़ा नहीं है। जाति का सम्बन्ध धर्म से नहीं है। जैन, धर्म से तथा जाति, कर्म से संबंध रखने वाले हैं। जाति नाम कर्म सबके उदय में है, उसको लेकर मद करना मूर्खता है। अहिंसा का पालन करते समय हिंसा को छोड़ने के लिए सर्वप्रथम संज्ञी पंचेन्द्रिय जो मोक्ष को प्राप्त करने वाले पात्र हैं, उसकी सुरक्षा करो।
सर्वप्रथम पुरुष-स्त्रियाँ, फिर तिर्यञ्च और फिर स्थावर की सुरक्षा कही है। आप सर्वप्रथम आलू को तो छोड़ देंगे पर सामने पञ्चेन्द्रिय है, उसको साबुत निगल जायेंगे। सर्व प्रथम संज्ञी पंचेन्द्रिय के साथ मद छोड़ो, फिर जीव के विकास को दृष्टि में रखकर तिर्यञ्च आदि की रक्षा करो। आप साथी को लेकर मद करते हैं। जवान-जवान से, वृद्ध-वृद्ध से तथा महिला-महिला से मद करती है। अत: मद को छोड़ो। यह मद साधर्मी भाईयों को लेकर होता है। जैनेतर को लेकर नहीं। जो साधमीं भाई से द्वेष रखता है, वह किसी की भी रक्षा नहीं कर सकता। सर्वप्रथम आप त्रस जीवों में साधमों की चिंता मिटाओगे तो धर्म का विकास होगा। तिर्यञ्च की रक्षा से उतनी धर्म की भावना नहीं होती जितनी साधर्मी की सुरक्षा से। जहाँ गिराने का लक्ष्य है वहाँ कुछ भी नहीं कर सकते। गिराने व बचाने के लिए ज्यादा समय की जरूरत नहीं। जब साधर्मी से प्रेम होगा तो संकट में भी सुरक्षा होगी। जब मद है तो गिराने की दृष्टि होगी। अत: जाति कुल का मद नहीं करना। पहले पंचेन्द्रिय जाति की सुरक्षा न हो, मनुष्य जाति की रक्षा हो। मनुष्य से मद छोड़कर साथी बना लें। पुरुष ही मोक्ष प्राप्त करने में अग्रणी है।