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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • प्रवचन सुरभि 72 - पूजा का मद

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    कल ज्ञान मद के बारे में सुना। आज दूसरा जो पूजा मद है, उसके बारे में कहना है। किसी एक अवस्था को लेकर यह व्यक्ति जिस क्षेत्र में रहता है, वहाँ के लोगों से पूजा, सत्कार, विनय चाहता है। अपने गुण गान चाहता है। यही मद है। लेकिन प्राणी को यह मालूम नहीं कि अपनी पूजा, यश, कीर्ति वास्तव में किस में निहित है। पूजा, लाभ के पीछे पड़ने से ये चीजें छूट जाती हैं। जो पूजा कीर्ति चाहता है, वह अपने आपको नहीं पहचानता।

     

    मानाभिभूत मुनि आतम को न जाने,

    तो वीतराग प्रभु को वह क्या पिछाने ?

    जो ख्याति लाभ निज पूजन चाहता है,

    ओ! पाप का वहन ही करता वृथा है।

    आपने संसार का विनाश हो (छूट जाये) उसके अनुरूप कार्य किया ही नहीं। जिस प्रकार का कर्म करेंगे, उसका वैसा ही फल मिलेगा। ख्याति लाभ पूजा न कोई देता है, न कोई लेता है, ये सब काल्पनिक विषय हैं। वास्तविक मोक्षार्थी वही है, जो इन क्षणिक पर्यायों को दुख का कारण मानता है। श्रेयोमार्गी वही कहलाता है, जो क्षणिक पर्यायों को सुखकर नहीं मानता, वह मानसम्मान, ख्याति-लाभ को नहीं चाहता, वह तो किए कर्मों को नेस्तनाबूत (समाप्त) करना चाहता है।वह सोचता है कि कल जिसकी पूजा हो रही थी। आज उसे गाली दी जा रही है, कल जिसका अपमान हो रहा था, आज वही सम्मान पा रहा है। वह इन क्षणिक पर्यायों में हर्ष-विषाद नहीं करता, वह जानता है अनेक जन्मों के किए कर्मों के फलों को भुगतना पडेगा, कर्म सिद्धान्त में भूल नहीं होती।

     

    कर्म जिस सीमा में बंधेगा, वह उसी सीमा में उदय में आकर फल दिये बिना नहीं रह सकता है। जब उस श्रेयोमार्गी को विश्वास हो जाता है, तो इनमें हर्ष विषाद नहीं करता। हर्ष विषाद मान कषाय को लेकर होता है। मान कषाय जब गृद्धता को लेकर होती है, तब मद पैदा होता है। अत: हे जीव! समझ! तेरा हित अहित किसमें है? अहित से बचना ही हित की ओर अग्रसर होना है। ऐसा कोई व्यक्ति नहीं जो गर्त या अग्नि में पैर रखेगा। वह शरीर को बचाने की चेष्टा करेगा। घर में अग्नि लग जाने पर सामग्री को छोड़कर जीवन को बचाना चाहेगा। सुजान हित चाहता है, वह मद आदि को, दुख को बंधन का कारण मानता है। जो सुख, स्वाधीनता प्रदान करने वाला है, उसे जल्दी-जल्दी प्राप्त करने की चेष्टा करेगा। हाथ में एक तरफ विषय सामग्री हो और चाहे कि मोक्ष मार्ग मिल जाये, यह नहीं हो सकता है। जो हाथ में विषय पकड़ रखा है, उसे छोड़ दी, वही मोक्ष मार्ग है।

     

    वास्तविक हित जिसमें है, उसकी सुरक्षा के लिए कोशिश करनी है। ख्याति, लाभ, पूजा में पड़कर वास्तविक नाम को नहीं खोना है, वास्तविक नाम आत्माराम है। यह पूजा मद खतरनाक है। वित गृहस्थ के लिए इतना खतरनाक नहीं है, जितना मद है। मदिरा का असर तो सीमित होता है, कम नशा भी होता है। लेकिन मद का प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता। मद की सामग्री शराब, गाँजा आदि मादक पदार्थ नहीं हैं। मद आत्मा की नशीली चीज है। आत्मा को नशा चढ़ जाये तो अमृत भी पिला दो तो भी नशा नहीं उतरेगा। मद का नशा चढ़ने पर ही ज्ञान शक्ति खत्म हो जाती है। अत: आत्मा पर नशा चढ़े ऐसे मद से बचने की आवश्यकता है। मद का नशा ४ तरह से होता है। सबसे पहले युवावस्था का नशा। कहते हैं कि गधा पच्चीसी लगी है। सो २५ साल तक की उम्र में गधे के समान आचरण प्राय: करके हो जाता है। युवावस्था होने के साथ रूप मिल जाये तो और भी लहर आ जाती है, फिर वित्त मिल जाये और अंत में हुकूमत भी मिल जाये तो वह पागल हुए बिना नहीं रहेगा। आप भी वित्त, रूप, युवावस्था हर दम चाहते हैं। लेकिन अपने आप चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ जायेंगी, कंचन सी काया मिट जाएगी तब जो इसमें रस लेता है, वह घबराऐगा, उदास हो जाएगा। घर से उदास नहीं होगा, धर्म से उदास होगा।

     

    जिन्हें वास्तविक ये चार चीजें नहीं चाहिए, वही सुजान है। जो संसार सामग्री को चाहता है, वह मोक्ष को नहीं चाहता, संसार को चाहता है। मोक्ष मार्गी हुकूमत को नहीं चाहता। आप अपनी Credit परसनेलिटी, नाम चाहते हैं। आत्माराम को आराम को नहीं चाहते, यही भूल भरी बात है। आप वास्तविक रहस्य को समझते ही नहीं। जो पूजा को नहीं चाहता है, वही पूजक बनने वाला है। ज्ञान उत्पन्न होने के बाद हेय से बचने और उपादेय का संकलन करेगा। विवेक होने के बाद हेय का संकलन व विकास नहीं हो सकता। कोई रोगी रोग से दूर होना चाहे और दवा भी न लेवे तो रोग दूर नहीं हो सकता। शरीर व वचन पर बंधन हो सकता है, पर विचार पर कोई बंधन पट्टी नहीं है, विचार के लिए आँख खुली है। गलत भाव आ जाएँ तो कान पकड़ ली। शरीर के कान नहीं पकड़ना है, बल्कि उसके लिए पश्चाताप, प्रतिक्रमण करो।

     

    गृहस्थ और मुनि दोनों मोक्ष मार्गी हैं। जिस प्रकार एक बच्चा पहली कक्षा में दूसरा एम.ए. में पढ़ता है पर कहलायेंगे विद्यार्थी ही। पढ़ाने में फरक हो सकता है पर शिक्षक में नहीं। समंतभद्राचार्य का विषय गृहस्थ को लेकर और कुन्दकुन्द का मुनि को लेकर था। समंतभद्राचार्य ने गृहस्थों को सम्बोधित करने तथा कुन्दकुन्द ने मुनियों को सम्बोधित करने का कार्य किया। मद मोक्षार्थी के लिए बाधक है। वर्तमान में मद के जो भाव हैं, उनसे घृणा होना ही पश्चाताप है। वित्त को लेकर मद नहीं चाहेंगे। वित्त तो शरीर के लिए माध्यम हो सकता है। वित्त आने पर शरीर चले, नहीं भी चले, पुरुषार्थ करने पर भी फल मिले ही, यह बात नहीं है। विधि प्रतिकूल होने पर पुरुषार्थ भी ठण्डे पड़ जाते हैं। रूप हुकूमत को लेकर अभिमान नहीं करना चाहिए, ये क्षणिक है, कर्म का उदय है तब ये मिलते हैं। ऐसे कर्म भी उदय में आ सकते हैं कि जो आपके यहाँ नौकर हैं, उनके यहाँ जाकर भी आपको सेवा करनी पड़े। इसमें जो सुजान है, वे हर्ष विषाद नहीं करते। हरिश्चन्द्र राजा का उदाहरण आपके सामने है, हरिश्चन्द्र ने राजा होकर भी हरिजन के घर नौकरी की। जो कर्म को समझता है, वह हर्ष विषाद नहीं करता। अभी आपके पास ज्ञान है। जब ज्ञान धन लुट जायेगा तो कर्म फल को नहीं झेल सकोगे। अत: कर्म रूपी ऋण से अऋण होना चाहते हैं तो मद नहीं करें, तभी वास्तविक सुजान बन सकते हैं। छोटा बड़ा मोक्ष मार्ग में नहीं है। जो मद हर्ष विषाद से दूर हो गया, अपने आपमें स्थित है, वही पूज्य है।


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