तीर्थंकर विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- तीर्थंकरों के घर में वियोगकृत दु:ख नहीं होता।
- २४ तीर्थंकरों के नाम पर २४ परिग्रह छोड़ दो। तुम भी आगे चलकर तीर्थंकर बन सकते हो।
- अरहंत भगवान् का शरीर सप्तधातु से रहित होता है। इसका अर्थ यह नहीं लेना चाहिए कि उनके शरीर में हड़ी संहनन आदि समाप्त हो जाते हैं, बल्कि ऐसा अर्थ लेना चाहिए कि उनके शरीर में सड़न/गलन नहीं होती।
- परमौदारिक केवली भगवान् के शरीर में निगोदिया जीव नहीं रहते।
- भव्य जीवों को मार्ग दिखाने के लिए तीर्थंकर भगवान् स्वयं उद्यत रहते हैं।
- तीर्थंकर भगवान् का परहित सम्पादन ही एक मात्र कार्य रह जाता है।
- तीर्थंकर भगवान् को जगत् मुमुक्षु कहा जा सकता है।
- तीर्थंकर भगवान् ने भी आचारांग मार्ग पर चलकर ही सिद्धत्व रूप फल प्राप्त किया है।
- तीर्थंकर भगवान् ने भी इस चारित्र को स्वीकारा है। धन्य हैं वे लोग जो इस महाव्रत का पालन करते हैं।
- तीर्थंकर बालक अवस्था (गृहस्थावस्था) में कभी भी आहारदान नहीं देते, फिर भी सभी को पूजा और दान का उपदेश देते हैं। ८ वर्ष की उम्र के बाद तीर्थंकर देश संयमी जैसे हो जाते हैं।