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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • प्रवचन सुरभि 68 - प्रभावना ! हो ऐसे

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    सम्यक दर्शन का आठवां एवं अन्तिम अंग प्रभावना है। धर्म की प्राप्ति के लिए विशेष तौर से जो प्रयत्न किया जाये, उसका नाम प्रभावना है। जिस प्रकार शरीर की स्थिति के लिए अन्न-जल, वस्त्र जरूरी है, उसी प्रकार जीवात्मा के जीवन को चलाने के लिए उसके योग्य खुराक मिलनी चाहिए। मनुष्य के जीवन के लिए केवल अन्न-जल आदि ही जरूरी नहीं है, इनसे तो शरीर की सुरक्षा हो सकती है। किन्तु आत्मा का जीवन उसके योग्य भाव मिलने पर चलता है। आज तक हमने शरीर पुष्ट होने के लिए तो भावना भाई पर प्रभावना नहीं चाही। प्रभावना में शक्ति लगाकर अज्ञान रूपी अन्धकार को मिटा सकते हैं। प्रकाश के बिना जैसे हमारी गति रुक जाती है, उसी प्रकार ज्ञान के बिना सुख शांति नहीं। हमारे जीवन में इतना अन्धकार फैला है कि उसका अभाव हुआ ही नहीं। उसका अभाव ज्ञान से होगा। जिन शासन को अपने जीवन के साथ अपनाते हुए दूसरे को भी दिखावें। महावीर ने सच्चाई का मार्ग दूसरे को दिखाया खुद उस पर चलकर। जो अनादि से मिथ्या अन्धकार फैला है उसे हटाने के लिए सम्यक दर्शन ज्ञान, चारित्र को बताया।

     

    जिनशासन की महत्ता बताने के लिए आचार्यों ने जीवन के अंत समय तक चेष्टा की है, तभी यह जिनशासन अक्षुण्ण रूप से चला आ रहा है। जिनशासन की सुरक्षा गृहस्थों व मुनियों ने की है। जब तक धर्म के प्रति आस्था नहीं होती, तब तक धर्म की सुरक्षा भी नहीं होती। अज्ञान रूपी अन्धकार को निकालने के लिए जो प्रयास किया जाता है, उसका नाम अहिंसा है। मुनिराज किसी से अपेक्षा व उपेक्षा नहीं रखते, यही मुनियों के द्वारा प्रभावना है। कार्य के बिना रहना बहुत मुश्किल है। बिना कार्य किए रहना रागी-द्वेषी गृहस्थ का काम नहीं चलता। जब तक काम रहेगा तब तक चैतन्य की शक्ति जागृत नहीं होती। कार्य जब नहीं करेंगे, शरीर की चेष्टा कम हो जाएगी, बोलना कम हो जाएगा, विचार कम हो जायेंगे, तभी वास्तविक सुख मिलने लगेगा। अशुभ कार्य से निवृत्ति शुभ कार्य को अपनाकर हो सकती है, पर गृहस्थ शुभ कार्यों से निवृत्ति नहीं ले सकता, वह सत् कार्य करेगा ही।

     

    जिनके मन में किसी प्रकार का विकार नहीं है, वे ही दुनियाँ में जो चाहे कार्य कर सकते हैं। वे चाहते हैं सबको अन्दर का प्रकाश मिले, ज्ञान का उदय हो। अन्धकार दूर हो। अन्दर की एक किरण से तीन लोक जग मगा उठेगा। हमारे द्वारा यही अप्रभावना हो रही है कि अपनी निधि, प्रकाश को देखा नहीं, प्रकट ही नहीं किया। अहिंसा के उपासक में धर्म की प्रभावना की मन में उत्कंठा रहती है। मोक्ष मार्ग की, आत्म धर्म की प्रभावना हो, इस हेतु को लेकर आचार्यों ने ग्रन्थ लिखे जिसे पढ़कर, अध्ययन कर दूसरे भी लाभ उठावें। विद्वान्, सज्जन, महान् व्यक्तियों की यही शारीरिक, मानसिक, वाचनिक चेष्टा होती है कि सबका उपकार हो। महावीर ने अन्तिम समय तक खूब प्रभावना की। केवल ज्ञान तो कइयों को प्राप्त होता है, पर दिव्य ध्वनि हरेक को प्राप्त नहीं होती। मुझे तो ज्ञान मिल गया, पर दुनियाँ को प्रशस्त मार्ग दिखा दूँ ताकि सब मोक्ष मंजिल पहुँचे। १६ कारण भावना भाकर तीर्थकर प्रकृति का बन्ध हो सकता है। इससे करोड़ों अरबों जीवों का उद्धार हो सकता है।

     

    महावीर ने मिथ्यात्व रूपी अन्धकार को निकाल कर प्रकाश दिया, उनकी दिव्यध्वनि का आलम्बन लेकर गणधरों ने ग्रन्थों की रचना की। पूर्वजनों ने कितनी कितनी धर्म प्रभावना की, इसकी प्रशंसा किए बिना नहीं रह सकते। पौदूलिक अन्धकार से तो आप डर जाते हैं, पर मिथ्या अन्धकार से कितनी आत्मा की हत्या हो रही है उससे नहीं डरते। महावीर स्वामी चेष्टा कर स्वयं तो अन्धकार से दूर हो गये पर वे चाहते थे कि सबका मिथ्या अन्धकार दूर हो जाये और मंजिल प्राप्त करे। महावीर ने अपने ज्ञान का लाभ सबको दिया। हम अपनी प्रभावना के द्वारा किसी को लाभ किसी को हानि पहुँचाना चाहते हैं। पर सब को लाभ होना चाहिए। वास्तविक प्रभावना मुनि वीतरागी करते हैं। सम्यक दर्शन प्राप्त होने के बाद दण्ड भी देते हैं तो घमण्ड चूर करने के लिए न कि आत्मा को चूर करने के लिए। शिक्षा दीक्षा में यही दृष्टि रहती है कि समीचीन रास्ता बताया जावे। कुरास्ता, कुविचार छूट जाये, यही दृष्टि हमारे में हो। प्रभावना नाम के पीछे नहीं, काम के लिए हो। नाम तो सिर्फ महावीर का, धर्म का हो अपना नहीं।

     

    नदी प्रवाह के समान अहिंसा धर्म है। अहिंसा धर्म महावीर का नहीं। महावीर ने भी इसे अपनाया था। महावीर के पहले वो था, अनादि से है। इसे ज्यों ही अपना लेंगे, तो कल्याण हो जायेगा। यह अहिंसा धर्म अव्यक्त रूप से है। हम चाहेंगे तब अहिंसा धर्म, प्रभावना अंग को अपना सकते हैं। यह अभी साढ़े अठारह हजार वर्ष तक रहेगा। आप लोगों का कर्तव्य है, जीवन जब तक मिला है, तब तक प्रभावना करें, ऐसा ठेका ले लो। पूर्ण विकास अभी नहीं तो मोक्ष के रास्ते पर कदम रखेंगे तो मंजिल के पास पहुँच सकते हैं। मुनि अथवा गृहस्थ होकर धर्म प्रभावना करें। जीवन में जो ज्ञान प्राप्त हुआ है उसे बढ़ाते चले जाये तो एक दो भव में मुक्ति को प्राप्त कर सकते हैं, ऐसा विश्वास करने पर ही मुक्ति मिलेगी। बिना प्रमाद के मोक्षमार्ग को अपनाने पर मंजिल पास होती जायेगी। एक अंग को अपनाने पर भी सम्यक दर्शन टिक सकता है, सुख की प्राप्ति हो सकती है। आठों अंग चले गये तो सम्यक दर्शन नहीं रहेगा, अंग के बिना अंगी की पहचान नहीं। अत: एक न एक अंग को तो धारण करो।


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    धर्म  प्राप्ति के लिए विशेष तौर से जो प्रयत्न किया जाये, उसका नाम प्रभावना है। जिस प्रकार शरीर की स्थिति के लिए अन्न-जल, वस्त्र जरूरी है, उसी प्रकार जीवात्मा के जीवन को चलाने के लिए उसके योग्य खुराक मिलनी चाहिए। मनुष्य के जीवन के लिए केवल अन्न-जल आदि ही जरूरी नहीं है, इनसे तो शरीर की सुरक्षा हो सकती है। किन्तु आत्मा का जीवन उसके योग्य भाव मिलने पर चलता है। आज तक हमने शरीर पुष्ट होने के लिए तो भावना भाई पर प्रभावना नहीं चाही।

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