मैं आप लोगों को महावीर के पथ की ओर आकर्षित करना चाहता हूँ। महावीर का यह तीर्थ बहुत विशद उदार है, इसको प्राप्त कर कोई पावन हुए बिना नहीं रहेगा। इस तीर्थ से ही देवदानव, मनुष्य व तिर्यञ्चों का उद्धार हुआ है। जिस प्रकार महावीर ने अपने आपके जीवन को समृद्धशाली, अपूर्ण से पूर्ण बनाया, उसी प्रकार हमें भी बनाना है। नदी की भांति है महावीर का तीर्थ, जो कोई भी आता है तो उसे अपनी चीज दे देता है। तभी उपयोग में भी चेतनता आ जाती है। महावीर के तीर्थ से उपयोग निर्मल से निर्मलतर, निर्मलतम् हो जाता है। गुरु की अनुपस्थिति में (पात्र के न होने पर) महावीर की दिव्य ध्वनि नहीं खिरी। गुरु के उपदेश स्वयं के लिए नहीं थे, किन्तु दुनियाँ के लिए थे। लोगों ने समझा कि महान् विभूति दुनियाँ के लिए ही होती है। गाये भैसे चारा खाकर मीठा-मीठा दूध प्रदान करती हैं। शुष्क भोजन खाकर मिष्ठ दूध देती है। नदी नाले पहाड़ों, चट्टानों से टकराकर, बहकर दुनियाँ को मीठा जल प्रदान करते हैं। पेड़ पौधे भी सर्दी गर्मी सहकर दूसरों को छाया प्रदान करते हैं। सज्जनों के वित्त वैभव भी दूसरों के उपकार के लिए होते हैं। उपकार का अर्थ संकट का निवारण है। संकट के निवारण के लिए जो महान् आत्माओं के द्वारा कार्य किया जाता है वह उपकार कहलाता है। जो भूखा नहीं है, उसके पास जलेबी भी रख दो, तो वह उपकार नहीं है।
सम्पति भिन्न-भिन्न प्रकार की है। दुनियाँ की सम्पत्ति एक तरफ और महावीर की सम्पत्ति एक तरफ है। महावीर की सम्पत्ति की कीमत सबसे ज्यादा होगी। तीन लोक की सम्पदा आ जाए तो भी तुलना नहीं की जा सकती। महावीर में अलौकिक शक्ति जो प्रादुभूत हुई उसे उन्होंने दुनियाँ के लिए समर्पित की। वे उस ओर बढ़े और दुनियाँ को रास्ता मिला। निर्वाण का अर्थ जीवन का निर्माण है। जीवन जब तक निर्मित नहीं, जीवन में विकास नहीं होता है तो जीवन जीवन नहीं कहलाता। दुनियाँ के निर्माण में महावीर का उपासक आनन्द का अनुभव करेगा, भले ही खुद का उपकार हो या न हो। धर्म के भाव जितनी मात्रा में होने चाहिए, उतने तो नहीं हैं, फिर भी धर्म के भाव लोगों में हैं। यही आगे जाकर महावीर जैसे बनेंगे। पौधे में धीरे-धीरे ही छाया के भाव, फलों के चिह्न प्रादुभूत हो जाते हैं।
इस २५००वें निर्वाणोत्सव से दुनियाँ का उद्धार होने का समय आ गया है। ऐसी-ऐसी अनोखी बातें हो रही हैं, जो पूर्व में अन्तराल में सुनने में नहीं आई। राष्ट्र व राज्यों की ओर से महावीर के संदेश को मान्यता मिल जाना कोई मजाक या खेल नहीं। ऐसी विषम स्थिति में भी जहाँ ५५ से ७० करोड़ की आबादी है, वहाँ २५०० साल बाद भी महावीर के संदेश राष्ट्र के लिए प्रेरणास्पद हैं। जब राष्ट्र को मंजूर है, तो प्रजा भी वही बातें मंजूर करेगी, उसी अनुरूप चलेगा। भाव निक्षेप तो अन्तिम है, पर नाम निक्षेप तो हो ही जायेगा। महावीर के नाम लेने वाले संदेश अच्छे लग गये, इसका मतलब हित निहित है। महावीर तो कल्याण कर चले गये, पर उनके तीर्थ द्वारा भी अरबों जीवों का कल्याण हो रहा है। वृषभनाथ को भी अहिंसा धर्म प्रचार करने के लिए जितना समय मिला उससे भी ज्यादा समय महावीर को मिला। चतुर्थ काल में २४ तीर्थकर अपेक्षित हैं। महावीर को चतुर्थ, पंचम व फिर पंचम काल अहिंसा प्रचार हेतु मिला। साढ़े इक्यासी हजार वर्ष उपरांत तीर्थकर का जन्म होगा। महावीर भगवान को महत्व ज्यादा देंगे। हम महावीर के पक्ष की तरफ हो जाएँ तो सम्यक्त्व बिगड़ेगा भी नहीं। महावीर का बहुत कम समय में बहुत ज्यादा उपदेशों का प्रचार हुआ। उपशम सम्यक्त्व तो थोड़े काल के लिए होता है। क्षयोपशम सम्यक्त्व में शांतिनाथ शांति के कर्ता पाश्र्वनाथ विध्न के हर्ता हैं, ऐसा विकल्प हो सकता है फिर भी यह विकल्प सम्यक्त्व के लिए घातक नहीं है।
महावीर के तीर्थ में ही हम पीड़ा को दूर कर रहे हैं उन्होंने जो उपकार किया, वह याद रहेगा, चिरस्मरणीय रहेगा। हमको सोचना है कि दूसरों की मदद भी करना है, महावीर से मदद लेकर। गिरा हुआ व्यक्ति गिरे हुए को नहीं उठा सकता। महावीर ने अपने जीवन को पतित से पावन बनाया। आज तक हमारी ऐसी भावना नहीं हुई। मन, वचन, काय, कृत-कारित अनुमोदना से नहीं चाहा कि हमारा उद्धार हो तथा साथ ही साथ दूसरे का भी उद्धार हो। आप तो महावीर के उपासक कहलाते हैं तो यह परम कर्तव्य है कि दुनियाँ के दुख दूर करें। महावीर के निर्वाणोत्सव में ऐसे कार्य (प्रभावना) करो कि आने वाली पीढ़ी व आज की संतान को राह मिल सके। विचार साकार हो जाये अपने आपको धन्य समझो कि इस समय आपका जन्म हुआ। आगे आने वाली पीढ़ी को ऐसी सामग्री नहीं मिलेगी, ऐसे कार्य करने के लिए। धीरे-धीरे धार्मिक वृत्तियों का अध:पतन हो रहा है। प्रलयकाल में धार्मिक वृत्तियों का अभाव होता जाता है, धार्मिक बातों का ह्रास होने लगता है। धर्म कर्म नष्ट होता है। हमारा जीवन अच्छा है कि ये बातें अभी नहीं हैं।
महावीर ने जो राह बताई, वह हमें अक्षुण्ण मिल रही है। आप किसी भी स्थिति में रहे, कहीं भी रहें, यह भाव हो- कि सुखी रहे सब जीव जगत के कोई कभी न घबराये, बैर पाप अभिमान छोड़ जग नित्य नये मंगल गावें- ये भाव इतने उज्ज्वल हैं कि पैसे से प्रभावना की जरूरत नहीं। मात्र मन में महावीर को याद रखते हुए ये भाव धारण करेंगे तो आपको भी शांति मिलेगी। व अड़ोसी-पड़ोसी को भी शांति मिलेगी। मन में विकार नहीं हो तो तन में भी विकार नहीं होता है। दुखी जीवों को देखकर यह भाव हो कि कब ये सुखी बनेंगे। इसीलिए केवल ज्ञान की वाणी प्रामाणिक है कि वहाँ राग द्वेष का अभाव है। दूसरे को डर लगे, उस प्रकार की बातें नहीं करनी चाहिए। मन में शब्दों में और कार्य में कोमलता हो तो फिर निर्वाणोत्सव भी सार्थक हो जायेगा। डॉक्टर वैद्य जीने की आशा न भी हो तो भी वे रोगी को यह नहीं कहते कि तुम्हारी बीमारी ठीक नहीं होगी। वह यही कहता है कि तुम जल्दी-जल्दी ठीक हो जाओगे, ऐसा कहने पर रोगी का १२ आना रोग चला जाता है। रोगी को अभय मिल जाता है। अत: आप भी यही भावना भाओ कि अभय हो, दुनियाँ का कल्याण हो....।