त्याग विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- जिस बाह्य पदार्थ का हमने त्याग किया वह हमारा था ही नहीं, ऐसा भाव आना चाहिए तभी वह त्याग सार्थक होगा। वरन् त्याग का अभिमान हो सकता है।
- त्यागीजन नृत्य, वाद्य, संगीत में भाग नहीं ले सकते। व्रती श्रावक को भी उपवास के दिन स्नान आदि का त्याग करना चाहिए और गृहस्थ श्रावक को अनथौ का अर्थ थोक में नहीं बल्कि थोड़ा-सा होता है। शाम को थोड़ा-सा भोजन करना चाहिए।
- जब तक छोड़ने योग्य है, तब तक छोड़ते जाओ। जब शरीर मात्र रह जाये तो कायोत्सर्ग लगा लो, फिर मुक्ति दूर नहीं।
- जो त्याग करते हुए भी मद को नहीं छोड़ता वह कर्म बंध से नहीं बच सकता।
- धन से धर्म की प्रभावना नहीं होती बल्कि धन के त्याग से धर्म की प्रभावना होती है। त्याग तप के बारे में कंजूसी नहीं करना चाहिए और त्याग-तप के बदले में कुछ माँग भी नहीं रखनी चाहिए।
-
स्वस्थ यानि अपने आपका त्यागकर दूसरे का कष्ट दूर हो, ऐसी भावना आना/भाना दान धर्म माना जाता है।
- जिनायतनों की सुरक्षा में भावना के साथ-साथ धन भी लगाइए आप दान दे रहे हैं लगा नहीं रहे हैं।
- कुछ ग्रहण हुआ/किया कि समझो ग्रहण लग गया।
- स्व का कभी त्याग होता नहीं और पर का त्याग, त्याग माना नहीं जाता।
- अपने ज्ञान-दर्शन-चारित्र का त्याग नहीं होता। पर का क्या त्याग ? पर तो था ही नहीं।
- गृहस्थ को भी आवश्यकता से अधिक परिग्रह नहीं रखना चाहिए, नहीं तो संसार सागर में डूबना होगा/पडेगा।
- जब शरीर से ममत्व रखना भी परिग्रह है फिर कौन अपना होगा ?
- जिसने त्याग की ओर कदम उठाया है, वह मोह पर प्रहार कर रहा है। मोह को हराने का एक ही उपाय है अपनी ओर आना।
- कुछ द्रव्य के वियोग में जीव को पीड़ा जैसी होती है पर उस वस्तु द्रव्य को कोई पीड़ा नहीं होती।
- धन का मोही वहीं अगले भव में कुंडली मारकर बैठ जाता है ताकि कोई उसका धन न ले सके।
- गृहस्थ का धन के बिना जीवन नहीं चलता लेकिन जिस धन के कारण जीवन अंधकार में चला जावे उससे क्या तात्पर्य ?
- थोड़ा-सा त्याग बीजारोपण की तरह हमेशा करते रहना चाहिए, जिससे भविष्य में पुण्य की फसल लहलहावेगी।
- राग का त्याग ही सही त्याग माना जाता है मात्र बाह्य परिग्रह का त्याग नहीं। जब राग छूट जाता है तब परिग्रह छूट ही जाता है।
- त्याग के संस्कार स्वर्गों में भी पाये जाते हैं, लौकान्तिक देव बन सकते हैं।
- परिग्रह त्याग का पाठ समझ में आ गया तो त्याग में लगे रहो दूसरों को भी लगाये रहो |
- धन कमाने की स्पर्धा की जगह धर्म कमाने की स्पर्धा में लगे रहो।
- प्रचलन में धन आवेगा तो बढ़ेगा। इच्छा का निरोध होते ही कर्म निर्जरा प्रारम्भ हो जाती है।
- इच्छाओं का निरोध एक मौलिक वस्तु है, अदभुत वस्तु है।
- राग संसार है तो त्याग मोक्षमार्ग है।
- पर को हाथ में ले रखा है इसलिए परास्त होते हो क्योंकि पराश्रय परास्त कर देता है।
- संयम के साथ-साथ दान भी आवश्यक होता है। अर्थ का लोभी जो होगा उसका संयम नहीं पलेगा ।
- बांध में थोड़ा-सा पानी के लिए लीकेज रखा जाता है, आप भी थोड़ा-सा संविभाग करिए उसी को दान कहते हैं।
- प्रभावना के लिए अर्थ का दान/त्याग करना चाहिए।
- पर के साथ आत्मीयता रखना प्रमाद कहा है, जिसे आत्मीयता के साथ स्वीकार कर लिया फिर उसे छोड़ना कठिन होता है। यह बात कटु सत्य है लेकिन दातून कड़वी ही होती है।
- निश्चयी (निश्चय नय वाले) को त्याग कोई वस्तु ही नहीं है। पर वस्तु मेरी है, यह कहना भी उसे अच्छा नहीं लगता।
- पानी कहीं अन्यत्र से नहीं लाना है, उसके ऊपर पड़ी मिट्टी की परतों को हटाना है इसी प्रकार आत्मा को कहीं से लाना नहीं है, उसके ऊपर जो राग की परतें जमीं हैं, उन्हें हटाना है। त्याग हमारा स्वभाव है, यह मन में ठान लेना चाहिए।
- योजनाओं को मूर्तरूप देने के लिए बहुत कुछ त्याग, संकल्प की आवश्यकता होती है।
- संसार का रोग जिससे बढ़ रहा है, उसे छोड़ दो बस, दवाई की आवश्यकता ही नहीं।
- त्याग भी एक उद्देश्य को लेकर होना चाहिए, बिना उद्देश्य के किया गया बहुत बड़ा त्याग भी कुछ कार्यकारी नहीं होता।
- दान और वरदान की घोषणा के बाद वापस नहीं लिया जाता यह क्षत्रियों का काम है।
- त्याग को व्यवसाय का रूप नहीं देना चाहिए।
- द्वेष छोड़ने से सभी जीवों से मित्रता हो जाती है और राग छोड़ने से भगवान् की ओर बढ़ जाते हैं।
- जब विकार बाहर निकल जाता है, तब प्रकृति से मुलाकात होती है।
- पाँच पापों का त्याग कर दिया अब इसमें अहंकार का भी त्याग कर देना चाहिए। क्योंकि बाह्य त्याग अंतरंग की वृद्धि के लिए किया जाता है।
- जिस वस्तु से राग हो रहा है, उस वस्तु का त्याग करना अनिवार्य है।