ज्ञान का प्रवाह तो नदी के प्रवाह की तरह है। उसे सुखाया नहीं जा सकता, बदला जा सकता है। इसी प्रकार ज्ञान का नाश नहीं किया जा सकता है। उसे स्व-पर कल्याण की दिशा में प्रवाहित किया जा सकता है। यही ज्ञानोपयोग है।
'अभीक्ष्णज्ञानोपयोग' शब्द तीन शब्दों से मिलकर बना है- अभीक्षण + ज्ञान + उपयोग अर्थात् निरन्तर ज्ञान का उपयोग करना ही अभीक्ष्णज्ञानोपयोग है। आत्मा के अनन्त गुण हैं और उनके कार्य भी अलग-अलग हैं। ज्ञान गुण इन सभी की पहिचान कराता है। सुख जो आत्मा का एक गुण है उसकी अनुभूति भी ज्ञान द्वारा ही संभव है। ज्ञान ही वह गुण है जिसकी सहायता से पाषाण में से स्वर्ण को, खान में से हीरा, पन्ना आदि को पृथक् किया जा सकता है। अभीक्ष्णज्ञानोपयोग ही वह साधन है जिसके द्वारा आत्मा की अनुभूति और समुन्नति होती है। उसका विकास किया जा सकता है।
आज तक इस ज्ञान की धारा का प्राय: दुरुपयोग ही किया गया है। ज्ञान का प्रवाह तो नदी के प्रवाह की तरह है। जैसे गंगा नदी के प्रवाह को सुखाया नहीं जा सकता, केवल उस प्रवाह के मार्ग को हम बदल सकते हैं। उसी प्रकार ज्ञान के प्रवाह को सुखाया नहीं जा सकता, केवल उसे स्व-पर हित के लिये उपयोग में लाया जा सकता है। ज्ञान का दुरुपयोग होना विनाश है और ज्ञान का सदुपयोग करना ही विकास है, सुख है, उन्नति है। ज्ञान के सदुपयोग के लिये जागृति परम आवश्यक है। हमारी हालत उस कबूतर की तरह हो रही है जो पेड़ पर बैठा है और पेड़ के नीचे बैठी हुई बिल्ली को देखकर अपना होश-हवास खो देता है। अपने पंखों की शक्ति को भूल बैठता है और स्वयं घबराकर उस बिल्ली के समक्ष गिर जाता है तो उसमें दोष कबूतर का ही है। हम ज्ञान की कदर नहीं कर रहे बल्कि जो ज्ञान द्वारा जाने जाते हैं उन ज्ञेय पदार्थों की कदर कर रहे हैं। होना इससे विपरीत चाहिए था अर्थात् ज्ञान की कदर होना चाहिए।
ज्ञेयों के संकलन मात्र में यदि हम ज्ञान को लगा दें और उनके समक्ष अपने को हीन मानने लग जायें, तो वह ज्ञान का दुरुपयोग है। ज्ञान का सदुपयोग तो यह है कि हम अन्तर्यात्रा प्रारम्भ कर दें और यह अन्तर्यात्रा एक बार नहीं, दो बार नहीं, बार-बार अभीक्षण करने का प्रयास करें। वह अभीक्षण ज्ञानोपयोग केवल ज्ञान को प्राप्त कराने वाला है, आत्म-मल को धोने वाला है। जैसे प्रभात बेला की लालिमा के साथ ही बहुत कुछ अंधकार नष्ट हो जाता है उसी प्रकार अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग द्वारा आत्मा का अंधकार भी विनष्ट हो जाता है और केवल ज्ञान रूपी सूर्य उदित होता है। अत: ज्ञानोपयोग सतत चलना चाहिए।
‘उपयोग' का दूसरा अर्थ है चेतना। अर्थात् अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग अपनी खोज चेतना की उपलब्धि का अमोघ साधन है। इसके द्वारा जीव अपनी असली सम्पत्ति को बढ़ाता है, उसे प्राप्त करता है, उसके पास पहुँचता है। अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग का अर्थ केवल पुस्तकीय ज्ञान मात्र नहीं है। शब्दों की पूजा करने से ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती, सरस्वती की पूजा का मतलब तो अपनी पूजा से है, स्वात्मा की उपासना से है। शाब्दिक ज्ञान वास्तविक ज्ञान नहीं है, इससे सुख की उपलब्धि नहीं हो सकती। शाब्दिक ज्ञान तो केवल शीशी के लेबिल की तरह है, यदि कोई लेबिल मात्र घोंट कर पी जाय तो क्या इससे स्वास्थ्य-लाभ हो जायेगा? क्या रोग मिट जायेगा? नहीं, कभी नहीं। अक्षर ज्ञानधारी बहुभाषाविद् पण्डित नहीं है। वास्तविक पण्डित तो वह है जो अपनी आत्मा का अवलोकन करता है। स्वात्मानं पश्यति य: सः पण्डितः। पढ़-पढ़ के पण्डित बन जाये, किन्तु निज वस्तु की खबर न हो तो क्या वह पण्डित है? अक्षरों के ज्ञानी अक्षर का अर्थ भी नहीं समझ पाते। 'क्षर' अर्थात् नाश होने वाला और 'अ' के मायने ‘नहीं' अर्थात् मैं अविनाशी हूँ, अजर-अमर हूँ, यह अर्थ है अक्षर का, किन्तु आज का पंडित केवल शब्दों को पकड़ कर भटक जाता है।
शब्द तो केवल माध्यम है अपनी आत्मा को जानने के लिए, अन्दर जाने के लिए। किन्तु हमारी दशा उस पंडित की तरह है जो तैरना न जानकर अपने जीवन से भी हाथ धो बैठता है। एक पंडित काशी से पढ़कर आये। देखा, नदी किनारे मल्लाह भगवान की स्तुति में संलग्न है। बोले- ए मल्लाह ! ले चलेगा नाव में, नदी के पार। मल्लाह ने उसे नाव में बैठा लिया। अब चलते-चलते पंडित जी रौब झाड़ने लगे अपने अक्षर ज्ञान का। मल्लाह से बोले- कुछ पढ़ा लिखा भी है? अक्षर लिखना जानता है? मल्लाह तो पढ़ा-लिखा था ही नहीं, सो कहने लगापंडितजी मुझे अक्षर ज्ञान नहीं है। पंडित बोले-तब तो बिना पढ़े तुम्हारा आधा जीवन ही व्यर्थ हो गया। अभी नदी में थोड़े और चले थे कि अचानक तूफान आ गया, पंडित जी घबराने लगे। नाविक बोला-पंडितजी मैं अक्षर लिखना नहीं जानता किन्तु तैरना जरूर जानता हूँ। अक्षर ज्ञान न होने से मेरा तो आधा जीवन गया, परन्तु तैरना न जानने से तो आपका सारा जीवन ही व्यर्थ हो
गया।
हमें तैरना भी आना चाहिए। तैरना नहीं आयेगा तो हम संसार समुद्र से पार नहीं हो सकते। अत: दूसरों का सहारा ज्यादा मत ढूँढ़ो। शब्द भी एक तरह का सहारा है। उसके सहारे, अपना सहारा लो। अन्तर्यात्रा प्रारम्भ करो। ज्ञेयों का संकलन मात्र तो ज्ञान का दुरुपयोग है। ज्ञेयों में मत उलझो, ज्ञेयों के ज्ञाता को प्राप्त करो। अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग से ही ‘मैं कौन हूँ? इसका उत्तर प्राप्त हो सकता है।
परमाण नय निक्षेप को, न उद्योत अनुभव में दिखै।
दूग ज्ञान सुख बलमय सदा, नहिं आन भाव जु मो बिखै।
मैं साध्य साधक मैं अबाधक, कर्म अरु तसु फलनितैं।
चित पिण्ड चंड अखण्ड सुगुणा, करण्ड च्युत पुनि कलनितें ॥
शुद्धोपयोग की यह दशा इसी अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग द्वारा ही प्राप्त हो सकती है। अत: मात्र साक्षर बने रहने से कोई लाभ नहीं है। 'साक्षर' का विलोम ‘राक्षस' होता है। साक्षर मात्र बने रहने से राक्षस बन जाने का भी भय है। अत: अन्तर्यात्रा भी प्रारम्भ करें, ज्ञान का निरन्तर उपयोग करें अपने को शुद्ध बनाने के लिए।
हम अमूर्त हैं, हमें छुआ नहीं जा सकता, हमें चखा नहीं जा सकता, हमें खूंघा नहीं जा सकता, किन्तु फिर भी हम मूर्त बने हुए हैं क्योंकि हमारा ज्ञान मूर्त में संजोया हुआ है। अपने उस अमूर्त स्वरूप की उपलब्धि, ज्ञान की धारा को अन्दर आत्मा की ओर मोड़ने पर ही सम्भव है।