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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • धर्म

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    धर्म  विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी  के विचार

     

    1. धर्म को मात्र सुनना सार्थक नहीं है, बल्कि उसके पालन करने में ही सार्थकता है।
    2. संसार में चाहे कोई सुखी रहे, चाहे दु:खी रहे उसे धर्म ही करने योग्य है।
    3. अविनश्वर सुख पाने के लिए धर्म का ही अनुष्ठान करो।
    4. धर्मात्मा को कभी प्रमाद नहीं करना चाहिए। पुण्यशाली व्यक्तियों पर भी पूर्व कर्म के उदय से आपत्तियाँ आ जाती हैं।
    5. बैंक में पैसा जमा है तो वह बढ़ता ही जावेगा, भले आप कुछ पुरुषार्थ करो या न करो। वैसे ही धर्म करते जाओ तो सुख भले न चाहो लेकिन मिलता ही जावेगा।
    6. धर्म कभी भी इन्द्रिय सुख का भी विघातक नहीं हो सकता।
    7. धर्म का फल बिन माँगे मिलता है और अचिंत्य फल मिलता है।
    8. कल्पवृक्ष या चिंतामणि रत्न के सामने चिंतन करना पड़ता है, माँगना पड़ता है, लेकिन धर्म का फल आप सो रहे तो भी मिलेगा, उसमें कभी भी घटा-बढ़ी नहीं हो सकती।
    9. धर्म करिये, चिंता न करिये, सब कुछ उपलब्ध होगा। जैसे वृक्ष की शरण में जाने से छाया माँगनी नहीं पड़ती अपने आप मिलती है।
    10. धर्म को छोड़कर धनोपार्जन करते रहना मनुष्य के लिए अभिशाप सिद्ध होगा।
    11. धर्म की रक्षा प्रयोग से ही होती है, मात्र कोरे ज्ञान से नहीं।
    12. आप समय निकालकर भगवान् के पास आ तो जाते हो, लेकिन मन को घर में ही छोड़ आते हो। एक बार मन के साथ आओ तो धर्म समझ में आयेगा।
    13. लोगों की साधारणतया से धारणा बन जाती है कि जब से धर्म करना प्रारम्भ किया है, तब से विध्न आना प्रारम्भ हो गये हैं, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि धर्म के कारण आपत्ति आ रही है, बल्कि अब कर्म की निर्जरा प्रारम्भ हो गयी है, ऐसा श्रद्धान रखना चाहिए।
    14. तोता रटन्त का नहीं बल्कि आत्मरमण का नाम धर्म है।
    15. धर्म ही परम रस का रसायन है, धर्म ही समस्त निधियों का निधान है, धर्म ही कल्पवृक्ष है, धर्म ही कामधेनु गाय है और धर्म ही चिन्तामणि रत्न है।
    16. जिनेश्वर के द्वारा कहे हुए धर्म को प्राप्त होकर दृढ़ बुद्धि के धारक सम्यक दृष्टि हुए हैं, वे ही धन्य हैं।
    17. इन्द्रिय सुख को दु:ख मानना ही धर्म की शुरुआत है।
    18. इन्द्रिय सुख की सामग्री को इकट्ठा करना यानि धर्म से विमुख होना है। 
    19. धर्मानुराग राग नहीं है, बल्कि विषयों को भुलाने वाला है।
    20. धर्मानुराग उदित होते सूर्य की लालिमा जैसा है, जो संसार विषयों से जगाता है/बचाता है।
    21. धर्म वस्तुत: एक अजेय शस्त्र है। धर्म के बिना जीवन में कुछ हॉसिल नहीं किया जा सकता। यदि धर्म की रक्षा की है तो आपकी भी रक्षा हो सकती है।
    22. दर्शन का नाम धर्म है। प्रदर्शन तो मात्र धर्म की ओर आकर्षित करने का उपाय है।
    23. साधु को अपने आत्म धर्म के अलावा किसी की आवश्यकता नहीं होती।
    24. धर्म के माध्यम से ही संतोष मिलता है, धन से नहीं।
    25. आशा का नियंत्रण धन से नहीं बल्कि धर्म से किया जा सकता है।
    26. किसी के खून को चूसकर अपने खून को बढ़ाना धर्म नहीं माना जाता।
    27. धर्म के स्थानों में यदि मान कषाय करोगे तो ध्यान रखना सद्गति नहीं मिलेगी।
    28. धर्म का सेवन भी प्रत्येक व्यक्ति को भोजन की तरह करना चाहिए।
    29. सुख-दु:ख की अपेक्षा नहीं रखना ही धर्म की सही सेवा है।
    30. अन्याय का पक्ष भगवान् नहीं लेते लेकिन धर्म की परीक्षा अवश्य होती है।
    31. धन कमाने की स्पर्धा की जगह धर्म कमाने की स्पर्धा में लगे रहो। इसमें जितना तन, मन व धन लगेगा वह सबसे बड़ा सदुपयोग होगा। प्रचलन में धर्म आवेगा तो बढ़ेगा।
    32. क्षत्रिय ही धर्म की रक्षा कर सकता है।
    33. स्वयं जीते हुए जीने वालों को सहयोग देना धर्म है। धर्म का मायना बहुत विस्तृत है। कर्तव्य निष्ठा के बिना धर्म की गंध नहीं आ सकती। कर्तव्य ही सही ज्ञान है, सम्यग्ज्ञान है।
    34. जो कुछ कार्य या चेष्टायें अपने को अच्छी नहीं लगती वह दूसरों को भी अच्छी नहीं लगती ऐसा समझना धर्म है।
    35. हमारी भावना धर्ममय हो जाती है तो प्रकृति साथ देती चली जाती है।
    36. प्रकाश प्रदान करो प्रकाश में मत आओ। जब धर्म का कार्य कर रहे हो तो धर्म का ही नाम होना चाहिए। आपका नाम तो TEMPORARY है।
    37. धर्म रूपी ऊष्मा के साथ जीवित रहो यह अपूर्णदशा से पूर्णदशा की ओर जाने का रास्ता है।
    38. हमेशा धर्मध्यान का वातावरण बना रहे ऐसा सम्यक दृष्टि सोचता रहता है।
    39. धार्मिक क्षेत्र में शक्ति को छुपाओगे तो आगे फिर शक्ति कम प्राप्त होगी।
    40. संसार में सब कुछ सुलभ है, एक मात्र धर्म ही दुर्लभ है। उसे पाने के लिए यदि सब कुछ त्यागना पड़े तो भी पीछे नहीं हटना चाहिए।
    41. धर्म को स्वीकार करते ही संतुष्टि (आत्मसंतुष्टि) उपलब्ध होने लगती है। धर्म को जितने अंशों में स्वीकारोगे उतनी संतुष्टि प्राप्त होगी।
    42. पशु-पक्षी भी धर्म से संतुष्टि का अनुभव करते हैं और अपना हिंसक भाव छोड़ देते हैं। धर्म के अलावा प्राणी को तीन लोक में और कोई संतुष्टि नहीं दे सकता।
    43. जो विषय/कषायों की सामग्री के बीच में रहकर भी धर्म रूपी कील का सहारा लेता है वह बच जाता है। संसार में भी मुक्ति का अनुभव किया जा सकता है पर्याय को गौण करना पड़ता है।
    44. धर्म दिखाने और किसी पर मेहरबानी करने के लिए नहीं किया जाता बल्कि कर्मक्षय के लिए किया जाता है।
    45. धर्म शुद्धवृत्ति का नाम है, इसे स्वयं में प्रकट करना होता है, इसे थोपा नहीं जा सकता।
    46. जो धर्म, कर्म विनाशक नहीं होता वह समीचीन धर्म नहीं हो सकता।
    47. विषय/कषायों को छोड़कर जो धर्म को स्वीकार कर लेता है, उसे वर्तमान में आत्मसंतुष्टि प्राप्त हो जाती है एवं कर्मों की निर्जरा भी प्रारम्भ हो जाती है बाद में मोक्ष की प्राप्ति भी होती है।
    48. धर्म, भाव परक होता है लेकिन बाह्य क्रियाओं से भीतरी भाव धर्म का ज्ञान होता है।
    49. धर्मात्मा संख्यात ही होंगे अधर्मात्मा असंख्यात होते हैं। एक धर्म की पार्टी है एक अनंत की पार्टी है।
    50. आप धर्मात्मा हैं तो आपको यह श्रद्धान कर लेना चाहिए कि कर्म की निर्जरा प्रारम्भ हो गयी है।
    51. धर्मध्यान करना बहुत कठिन है और महंगा भी है।

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