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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • प्रवचनामृत 3 - विनयावनति

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    विनय जब अंतरंग में प्रादुभूत हो जाती है तो उसकी ज्योति सब ओर प्रकाशित होती है। वह मुख पर प्रकाशित होती है, आँखों में से फूटती है, शब्दों में उद्भूत होती है और व्यवहार में प्रदर्शित होती है।

     

    विनय का महत्व अनुपम है। यह वह सोपान है जिस पर आरूढ़ होकर साधक मुक्ति की मंजिल तक पहुँच सकता है। विनय आत्मा का गुण है। यह विनय नामक गुण तत्व-मंथन से ही उपलब्ध हो सकता है। विनय का अर्थ है-सम्मान, आदर, पूजा आदि। विनय से हम आदर और पूजा तो प्राप्त करते ही हैं, साथ ही, सभी विरोधियों पर विजय भी प्राप्त कर सकते हैं। क्रोधी, कामी, मायावी, लोभी सभी विनय द्वारा वश में किये जा सकते हैं। विनयी दूसरों को भलीभाँति समझ पाता है और उसकी चाह यही रहती है कि दूसरा भी अपना विकास करें। अविनय में शक्ति का बिखराव है, विनय में शक्ति का केन्द्रीकरण है। कोई आलोचना भी करें तो हम उसकी चिन्ता न करें। विनयी आदमी वही है जो गाली देने वाले के प्रति भी विनय का व्यवहार करता है।

     

    एक जंगल में दो पेड़ खड़े हैं-एक बड़ का और दूसरा बेंत का। बड़ का पेड़ घमण्ड में चूर है। वह बेंत के पेड़ से कहता है- तुम्हारे जीवन से क्या लाभ है? तुम किसी को छाया तक नहीं दे सकते और फल तथा फूल का तो तुम पर नाम ही नहीं। मुझे देखो, मैं कितनों को छाया देता हूँ यदि मुझे कोई काट भी ले तो मेरी लकड़ी से बैठने के लिए सुन्दर आसनों का निर्माण हो सकता है। तुम्हारी लकड़ी से तो दूसरों को पीटा ही जा सकता है। सब कुछ सुनकर भी बेंत का पेड़ मौन रहा। थोड़ी देर में मौसम ऐसा हो जाता है कि तूफान और वर्षा दोनों साथ-साथ प्रारम्भ हो जाते हैं। कुछ ही क्षणों में बेंत का पेड़ साष्टांग दण्डवत् करने लगता है, झुक जाता है किन्तु बड़ का पेड़ ज्यों का त्यों खड़ा रहा। देखते-देखते ही पाँच मिनट में तूफान का वेग उसे उखाड़कर फेंक देता है। बेंत का पेड़ जो झुक गया था, तूफान के निकल जाने पर फिर ज्यों का त्यों खड़ा हो गया। विनय की जीत हुई, अविनय हार गया। जो अकड़ता है, गर्व करता है उसकी दशा बिगड़ती ही है।

     

    हमें शब्दों की विनय भी सीखना चाहिए। शब्दों की अविनय से कभी-कभी बडी हानि हो जाती है। एक भारतीय सज्जन एक बार अमेरिका गये। वहाँ उन्हें एक सभा में बोलना था। लोग उन्हें देखकर हँसने लगे और जब वे बोलने के लिये खड़े हुए तो हँसी और अधिक बढ़ने लगी। उन भारतीय सज्जन को थोड़ा क्रोध आ गया, मंच पर जाते ही उनका पहला वाक्य था ‘पचास प्रतिशत अमेरिकन मूर्ख होते हैं।' अब क्या था। सारी सभा में हलचल मच गई और सभा अनुशासन से बाहर हो गई। पर तत्काल ही उन भारतीय सज्जन ने थोड़ा विचार कर कहना शुरू किया- क्षमा करें, पचास प्रतिशत अमेरिकन मूर्ख नहीं होते। इन शब्दों को सुनकर सभा में फिर शान्ति हो गई और सब लोग यथास्थान बैठ गये। देखो, अर्थ में कोई अन्तर नहीं था, केवल शब्द-विनय द्वारा वह भारतीय सबको शान्त करने में सफल हो गया।

     

    विनय जब अन्तरंग में प्रादुभूत हो जाती है तो उसकी ज्योति सब ओर प्रकाशित होती है। वह मुख पर प्रकाशित होती है, आँखों में से फूटती है, शब्दों में उद्भूत होती है और व्यवहार में भी प्रदर्शित होती है। विनय गुण से समन्वित व्यक्ति की केवल यही भावना होती है कि सभी में यह गुण उद्भूत हो जाय। सभी विकास की चरम सीमा प्राप्त कर लें।

     

    मुझसे एक सज्जन ने एक दिन प्रश्न किया, महाराज, आप अपने पास आने वाले व्यक्ति से बैठने को भी नहीं पूछते बुरा लगता है, आप में इतनी भी विनय नहीं महाराज। मैंने उनकी बात बड़े ध्यान से सुनी और कहा- भैया, साधु की विनय और आपकी विनय एक-सी कैसे हो सकती है? आपको मैं कैसे कहूँ - आइये, बैठिए। क्या यह स्थान मेरा है? और मान लो कोई केवल दर्शन मात्र के लिए आया हो तो? इसी तरह मैं किसी से जाने को भी कैसे कह सकता हूँ? मैं आने-जाने की अनुमोदना कैसे कर सकता हूँ? कोई मान लो रेल या मोटर से प्रस्थान करना चाहता हो, तो मैं उन वाहनों की अनुमोदना कैसे करूं जिनका मैं वर्षों पूर्व त्याग कर चुका हूँ। और मान लो कोई केवल परीक्षा करना चाहता हो, तो उसकी विजय हो गयी और मैं पराजित हो जाऊँगा। आचार्यों का उपदेश मुनियों के लिए केवल इतना ही है कि वे हाथ से कल्याण का संकेत करें और मुख का प्रसाद बिखेर दें। इससे ज्यादा उन्हें कुछ और नहीं करना है।

     

    ‘‘मैत्री-प्रमोद-कारुण्य-माध्यस्थ्यानि च सत्त्वगुणाधिक क्लिश्यमानाविनेयेषु।।' यह सूत्र है। तब मुनि आपके प्रति कैसे अविनय की भावना रख सकता है? उसे तो कोई गाली भी दे तो भी वह सबके प्रति मैत्री-भाव ही रखता है। जंगल में दंगल नहीं करता, मंगल में अमंगल नहीं करता। वह तो सभी के प्रति मंगल-भावना से ओतप्रोत है।

     

    सो धर्म मुनिन कर धरिये, तिनकी करतूति उच्चरिये। 

    ताको सुनिये भवि प्रानी, अपनी अनुभूति पिछानी॥

    — छहढाला

    साधु की मुद्रा तो ऐसी वीतरागतामय होती है जो दूसरों को आत्मानुभव का प्रबल साधन बन जाती है। फिर एक बात और भी है। अगर किसी को बिठाना दूसरों को अनुचित मालूम पड़े अथवा स्थान इतना भर जाय कि फिर कोई जगह ही अवशेष न रहे तो, ऐसे में मुनि महाराज वहाँ से उठना पसन्द करेंगे अथवा उपसर्ग समझ कर बैठे रहेंगे, तो भी उनकी मुद्रा ऐसी होगी कि देखने वाला भी उनकी साधना और तपस्या को समझ कर शिक्षा ले सके। बिच्छू के पास एक डंक होता है। जो व्यक्ति उसे पकड़ने का प्रयास करता है, वह उसको डंक मार ही देता है। एक बार ऐसा हुआ। एक मनुष्य जा रहा था, उसने देखा, कीचड़ में एक बिच्छू फैसा हुआ है। उसने उसे हाथ से जैसे ही बाहर निकालना चाहा, बिच्छू ने डंक मारने रूप प्रसाद ही दिया, और कई बार उसे निकालने की कोशिश में वह डंक मारता रहा। तब लोगों ने उससे कहा- बावले हो गये हो। ऐसा क्यों किया तुमने? अरे भाई बिच्छू ने अपना काम किया और मैंने अपना काम किया, इसमें मेरा बावलापन क्या? उस आदमी ने ये उत्तर दिया। इसी प्रकार मुनिराज भी अपना काम करते हैं। वे तो मंगल की कामना करते हैं और गाली देने वाले उन्हें गाली देने का काम करते हैं। तब तुम कैसे कह सकते हो कि साधु किसी के प्रति अविनय का भाव रख सकता है।

     

    शास्त्रों में अभावों की बात आई है। जिसमें प्राग्भाव का तात्पर्य है पूर्व पर्याय का वर्तमान में अभाव और प्रध्वंसाभाव का अभिप्राय है वर्तमान पर्याय में भावी पर्याय का अभाव। इसका मतलब है कि जो उन्नत है वह गिर भी सकता है और जो पतित है वह उठ भी सकता है। और यही कारण है कि सभी आचार्य महान् तपस्वी भी त्रिकालवर्ती तीर्थकरों को नमोऽस्तु प्रस्तुत करते हैं और भविष्यत् काल के तीर्थकरों को नमोऽस्तु करने में भावी नय की अपेक्षा सामान्य संसारी जीव भी शामिल हो जाते हैं, तब किसी की अविनय का प्रश्न ही नहीं है। आपकी अनंत शक्ति को भी सारे तपस्वियों ने पहिचान लिया है, चाहे आप पहिचाने अथवा नहीं। आप सभी में केवलज्ञान की शक्ति विद्यमान है यह बात भी कुन्दकुन्दादि महान् आचार्यों द्वारा पहचान ली गई है।

     

    अपने विनय गुण का विकास करो। विनय गुण से असाध्य कार्य भी सहज साध्य बन जाते हैं। यह विनय गुण ग्राह्य है, उपास्य है, आराध्य है। भगवान् महावीर कहते हैं- मेरी उपासना चाहे न करो, विनय गुण की उपासना जरूर करो। विनय का अर्थ यह नहीं है कि आप भगवान के समक्ष तो विनय करें और पास-पड़ोस में अविनय का प्रदर्शन करें। अपने पड़ोसी की भी यथायोग्य विनय करो। कोई घर पर आ जाये तो उसका सम्मान करो। "मानेन तृप्ति न तु भोजनेन" अर्थात् सम्मान से तृप्ति होती है, भोजन से नहीं। अत: विनय करना सीखी, विनय गुण आपको सिद्धत्व प्राप्त करा देगा।


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