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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • प्रवचनामृत 1 - समीचीन धर्म

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    आचार्य कुन्दकुन्द के रहते हुए भी आचार्य समन्तभद्र का महत्व एवं लोकोपकार किसी प्रकार कम नहीं है। हमारे लिए आचार्य कुन्दकुन्द पिता तुल्य हैं और आचार्य समन्तभद्र करुणामयी माँ के समान हैं। वही समन्तभद्र आचार्य कहते हैं कि -

     

    देशयामि समीचीनं धर्मम् कर्मनिवर्हणम्।

    संसार दुखतः सत्त्वान् यो धरत्युक्तमे सुखे॥

    रत्नकरण्डक श्रावकाचार- २

    अर्थात् मैं समीचीन धर्म का उपदेश करूंगा। यह समीचीन धर्म कैसा है ?‘कर्मनिवहणम्' अर्थात् कर्मों का निर्मूलन करने वाला है और 'सत्वान् प्राणियों को संसार के दुखों से उबारकर उत्तम सुख में पहुँचाने वाला है।

     

    आचार्य श्री ने यहाँ ‘सत्वान्' कहा, अकेला 'जैनान्' नहीं कहा। इससे सिद्ध होता है कि धर्म किसी सम्प्रदाय विशेष से संबंधित नहीं है। धर्म निर्बन्ध है, निस्सीम है सूर्य के प्रकाश की तरह। सूर्य के प्रकाश को हम बंधन युक्त कर लेते हैं, दीवारें खींचकर, दरवाजे बनाकर, खिड़कियाँ लगाकर। इसी तरह आज धर्म के चारों ओर भी सम्प्रदायों की दीवारें सीमाएँ खींच दी गयी हैं।

     

    गंगा नदी हिमालय से प्रारम्भ होकर निर्बाध गति से समुद्र की ओर प्रवाहित होती है। उसके जल में अगणित प्राणी किलोंलें करते हैं, उसके जल से आचमन करते हैं, उसमें स्नान करते हैं, उसका जल पीकर जीवन-रक्षा करते हैं, अपने पेड़-पौधों को पानी देते हैं, खेतों को हरियाली से सजा लेते हैं। इस प्रकार गंगा नदी किसी एक प्राणी, जाति अथवा सम्प्रदाय की नहीं है, वह सभी की है। यदि कोई उसे अपना बतावे तो गंगा का इसमें क्या दोष? ऐसे ही भगवान वृषभदेव अथवा भगवान् महावीर द्वारा प्रतिपादित धर्म पर किसी जाति-विशेष का आधिपत्य संभव नहीं है। यदि कोई आधिपत्य रखता है तो यह उसकी अज्ञानता है।

     

    धर्म और धर्म को प्रतिपादित करने वाले महापुरुष सम्पूर्ण लोक की अक्षय निधि हैं। महावीर भगवान् की सभा में क्या केवल जैन ही बैठते थे ? नहीं, उनकी धर्मसभा में देव, देवी, मनुष्य, स्त्रियाँ, पशु-पक्षी सभी को स्थान मिला हुआ था। अत: धर्म किसी परिधि से बँधा हुआ नहीं है। उसका क्षेत्र प्राणी मात्र तक विस्तृत है। आचार्य महाराज अगले श्लोक में धर्म की परिभाषा का विवेचन करते हैं, वे लिखते हैं कि -

     

    सद्द्वृष्टि ज्ञान-वृत्तानि धर्मं, धर्मेश्वरा विदुः ।

    यदीयप्रत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धतिः॥

    रत्नकरण्डक श्रावकाचार - ३

    अर्थात् (धर्मेश्वरा) गणधर परमेष्ठी, (सद्दूष्टि ज्ञानवृत्तानि) समीचीन दृष्टि, ज्ञान और सद्आचरण के समन्वित रूप को (धर्म विदु:) धर्म कहते हैं। इसके विपरीत अर्थात् मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र (भवपद्धति:) संसार पद्धति को बढ़ाने वाले (भवन्ति) हैं।

     

    सम्यक दर्शन अकेला मोक्षमार्ग नहीं है किन्तु सम्यक दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्र चारित्र का समन्वित रूप ही मोक्षमार्ग है। वही धर्म है। औषधि पर आस्था, औषधि का ज्ञान और औषधि को पीने से ही रोगमुक्ति संभव है। इतना अवश्य है कि जैनाचार्यों ने सद्दृष्टि पर सर्वाधिक बल दिया है। यदि दृष्टि में विकार है तो निर्दिष्ट लक्ष्य को प्राप्त करना असंभव ही है।

     

    मोटरकार, चाहे कितनी अच्छी हो वह आज ही फैक्टरी से बनकर बाहर क्यों न आयी हो, किन्तु यदि उसका चालक मदहोश है तो वह गंतव्य तक पहुँच नहीं पायेगा। वह कार को कहीं भी टकराकर चकनाचूर कर देगा। चालक का होश ठीक होना अनिवार्य है, तभी मंजिल तक पहुँचा जा सकता है। इसी प्रकार मोक्षमार्ग का पथिक जब तक होश में नहीं है, जब तक उसकी मोह नींद का उपशमन नहीं हुआ, तब तक लक्ष्य की सिद्धि अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती। 

     

    मिथ्यात्व रूपी विकार, दृष्टि से निकलना चाहिए तभी दृष्टि समीचीन बनेगी, और तभी ज्ञान भी सुज्ञान बन पायेगा। फिर रागद्वेष की निवृत्ति के लिए चारित्र-मोहनीय कर्म के उपशम से आचरण भी परिवर्तित करना होगा, तब मोक्षमार्ग की यात्रा निर्बाध पूरी होगी।

     

    ज्ञान-रहित आचरण लाभप्रद न होकर हानिकारक ही सिद्ध होता है। रोगी की परिचर्या करने वाला यदि यह नहीं जानता है कि रोगी को औषधि का सेवन कैसे कराया जाए तो रोगी का जीवन ही समाप्त हो जायेगा। अत: समीचीन दृष्टि, समीचीन ज्ञान और समीचीन आचरण का समन्वित रूप ही धर्म है। यही मोक्षमार्ग है।


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    मिथ्यात्व रूपी विकार, दृष्टि से निकलना चाहिए तभी दृष्टि समीचीन बनेगी, और तभी ज्ञान भी सुज्ञान बन पायेगा। फिर रागद्वेष की निवृत्ति के लिए चारित्र-मोहनीय कर्म के उपशम से आचरण भी परिवर्तित करना होगा, तब मोक्षमार्ग की यात्रा निर्बाध पूरी होगी।

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