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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • प्रवचनामृत 2 - निर्मल दृष्टि

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    दर्शन विशुद्धि मात्र सम्यक् दर्शन नहीं है। दृष्टि में निर्मलता होना दर्शन विशुद्धि है और दृष्टि में निर्मलता आती है तत्व चिंतन से।

     

    कार्य से कारण की महत्ता अधिक है क्योंकि यदि कारण न हो तो कार्य निष्पन्न नहीं होगा। फूल न हो तो फल की प्राप्ति नहीं होगी।

     

    कुछ लोग ऐसे भगवान् की कल्पना करते हैं जो उनकी सब शुभाशुभ इच्छाओं की पूर्ति करें। ‘‘खुदा मेहरबान तो गधा पहलवान' ऐसा लोग कहते हैं। इसीलिए भगवान् महावीर को बहुत से लोग भगवान् मानने को तैयार नहीं। किन्तु सत्य/तथ्य ये हैं कि भगवान् बनने के पहले तो शुभाशुभ कार्य किए जा सकते हैं, भगवान बनने के बाद नहीं।

     

    भगवान् महावीर जब पूर्व जीवन में नंदराज चक्रवर्ती थे, तब उनको एक विकल्प हुआ कि मैं सम्पूर्ण प्राणियों का कल्याण करूं और इसी विकल्प के फलस्वरूप उन्हें तीर्थकर प्रकृति का बंध हुआ। कल्याण करने के लिये भी बंधन स्वीकार करना पड़ा। ये बंधन चेष्टा पूर्वक किया जाता है तो इस बंधन के पश्चात् मुक्ति होती है। यदि माँ केवल अपनी ही ओर देखे, तो बच्चों का पालन सम्भव नहीं होगा।

     

    ‘पर' के कल्याण में भी ‘स्व' कल्याण निहित है। ये बात दूसरी है कि फिर दूसरे का कल्याण हो अथवा न भी हो। किसान की भावना यही रहती है कि ‘वृष्टि समय पर हुआ करें।” और वृष्टि तो जब भी होगी सभी के खेतों पर होगी किन्तु जब किसान फसल काटता है तो अपनी ही काटता है, किसी दूसरे की नहीं। अर्थात् कल्याण सबका चाहता है किन्तु पूर्ति अपने ही स्वार्थ की करता है।

     

    दर्शन-विशुद्धि मात्र सम्यक दर्शन नहीं है। दृष्टि में निर्मलता का होना दर्शन-विशुद्धि है और दृष्टि में निर्मलता आती है तत्व चिन्तन से।

     

    हमारी दृष्टि बड़ी दोषपूर्ण है। हम देखते तो अनेक वस्तुएँ हैं किन्तु उन्हें हम साफ नहीं देख पाते। हमारी आँखों पर किसी न किसी रंग का चश्मा लगा हुआ है। प्रकाश का रंग कैसा है? आप बतायें। क्या यह लाल है? क्या हरा या पीला है? नहीं, प्रकाश का कोई वर्ण नहीं। वह तो वर्णातीत है, किन्तु विभिन्न रंग वाले काँच के संपर्क से हम उस प्रकाश को लाल, पीला या हरा कहते हैं। इसी प्रकार हमारा या हमारी आत्मा का वास्तविक स्वरूप क्या है? 'अवणोंऽह' मेरा कोई वर्ण नहीं, 'अरसोऽहं" मुझ में कोई रस नहीं 'अस्पशोंऽहं" मुझे छुआ नहीं जा सकता। यह मेरा स्वरूप है। किन्तु इस स्वयं को आप पहिचान नहीं पाते। यही है हमारी दृष्टि का दोष।

     

    हम पदार्थों में इष्ट-अनिष्ट की धारणा बनाते हैं। कुछ पदार्थों को हम इष्ट मानते हैं जिन्हें हम हितकारी समझते हैं। कुछ पदार्थों को अनिष्ट मानते हैं, जिन्हें अहितकारी समझते हैं। पर वास्तव में कोई पदार्थ न इष्ट है और न अनिष्ट है। इष्ट-अनिष्ट की कल्पना भी हमारी दृष्टि का दोष है।

     

    इसी प्रकार जैनाचार्यों ने बताया है कि आत्मा भिन्न है और शरीर भिन्न। ऊपर का आवरण ये शरीर केवल एक छिलके के समान है यह उन्होंने अनुभव द्वारा बताया है किन्तु हम अनुभव की बात भी नहीं मानते। हमारी स्थिति बच्चे जैसी है। दीपक जलता है तो बच्चे को यह समझाया जाता है कि इसे छूना नहीं। उसे दीपक से बचाने की भी चेष्टा की जाती है किन्तु फिर भी वह बच्चा उस दीपक पर हाथ धर ही देता है और जब एक बार जल जाता है तो फिर वह उस दीपक के पास अपना हाथ नहीं ले जाता। हमारी दृष्टि का परिमार्जन तभी समझा जायेगा, जब हम प्रत्येक वस्तु को उसके असली रूप में देखें/समझे।

     

    यह दर्शन-विशुद्धि लाखों करोड़ों मनुष्यों में से किसी एक को होती है, किन्तु होगी ये विशुद्धि केवल मन्दकषाय में ही। शास्त्रीय भाषा में दर्शन-विशुद्धि चौथे गुणस्थान से आठवें गुणस्थान के प्रथम भाग तक हो सकती है। सद्गृहस्थ की अवस्था से लेकर उत्कृष्ट मुनि की अवस्था तक यह विशुद्धि होती है। एक बार प्रारम्भ हो जाने पर फिर श्रेणी में भी तीर्थकर प्रकृति का बंध हो सकता है किन्तु होगा मंद कषाय के सद्भाव में। दूसरे के कल्याण की भावना का विकल्प जब होगा, तभी तीर्थकर प्रकृति का बंध होगा। तीर्थकर प्रकृति एक ऐसा निकाचित बंध है जो नियम से मोक्ष ही ले जायेगा।

     

    कल शास्त्री जी मेरे पास आये थे। साथ में गोम्मटसार की कुछ प्रतियाँ लाये थे। उसमें एक बात बड़े मार्के की देखने को मिली। तीर्थकर प्रकृति का उदय चौदहवें गुणस्थान में भी रहता है। जब जीव मोक्ष की ओर प्रयाण करता है तब यह तीर्थकर प्रकृति अपनी विजयपताका फहराते हुए चलती है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि कषायों से ही कर्मबंध होता है और कषायों से ही कर्मों का निर्मूलन होता है। जैसे पानी से ही कीचड़ बनता है और पानी में ही घुलकर यह गंगा के जल का भाग बन जाता है जिसे लोग सिर पर चढ़ाते हैं और उसका आचमन करते हैं। ‘काँटा ही काँटें को निकालता है, यह सभी जानते हैं।

     

    दर्शन-विशुद्धि भावना और सम्यक्रदर्शन में एक मौलिक अन्तर है। दर्शन विशुद्धि में केवल तत्वचिंतन ही होता है, पंचेंद्रियों के विषयों का चिन्तन नहीं चलता, किन्तु सम्यक दर्शन में विषय चिन्तन भी सम्भव है।

     

    दर्शन-विशुद्धि भावना चार स्थितियों में भायी जा सकती है। प्रथम मरण के समय, द्वितीय भगवान के सम्मुख, तृतीय अप्रमत्त अवस्था में और चौथे कषाय के मन्दोदय में।

     

    तीर्थकर प्रकृति पुण्य का फल है पुण्यफला अरहंता। किन्तु इसके लिये पुण्य कार्य पहले होना चाहिए। प्रवृत्ति ही निवृत्ति की साधिका है। राग से ही वीतरागता की ओर प्रयाण होता है। एक सज्जन ने मुझ से कहा-‘‘महाराज, आप एक लंगोटी लगा लें तो अच्छा हो, क्योंकि आपके रूप को देखकर राग की उत्पत्ति होती है।” मैंने कहा-भैया, तुम जो चमकीलेभडकीले कपड़े पहिनते हो, उससे राग बढ़ता है अथवा यथाजात अवस्था से। नग्न दिगंबर रूप तो परम वीतरागता का साधक है। विशुद्धि में आवरण कैसा? विशुद्धि में तो किसी भी प्रकार का बाहरी आवरण बाधक है, साधक को वह किसी अवस्था में ही नहीं सकता। अन्तरंग का दर्शन तो यथाजात रूप द्वारा ही हो सकता है, फिर भी यदि इस रूप को देख कर किसी को राग का प्रादुर्भाव हो, तो मैं क्या कर सकता हूँ। देखने वाला भले ही मेरे रूप को न देखना चाहे तो अपनी आँखों पर पट्टी बाँध ले। पानी किसी को कीचड़ थोड़े ही बनाना चाहता है। जिसकी इच्छा कीचड़ बनने की हुई उसकी सहायता अवश्य कर देता है। पानी एक ही है। जब वह मिट्टी में गिरता है तो उसे कीचड़ बना देता है। जब वह बालू में गिरता है तो उसे सुन्दर कणदार रेत में परिवर्तित कर देता है। वही पानी जब पत्थर पर गिरता है तो उसके रूपरंग को निखार देता है। पानी एक ही है, किन्तु जो जैसा बनना चाहता है उसकी वैसी ही सहायता कर देता है। इसी प्रकार नग्न रूप वीतरागता को पुष्ट करता है किन्तु यदि कोई उससे राग का पाठ ग्रहण करना चाहें, तो ग्रहण करें, इसमें उस नग्न रूप का क्या दोष? ये तो दृष्टि का खेल है।


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