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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • प्रवचन सुरभि 84 - आचार्य विद्यासागरजी ज्योतिशचक्र के दर्पण में

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    वर्तमान में इस दुषम पंचम कलिकाल में जहाँ चहुँ ओर विनाश का हिंसक ताण्डव दृष्टिगोचर हो रहा है। वहीं काम, क्रोध, मोह-माया, तृष्णा, वैमनस्य एवं भोगलिप्सादि दुष्प्रवृत्तियों ने मानव मात्र को अपने नाग-पाश में बाँध रखा है। वातावरण अत्यन्त विषाक्त होता जा रहा है। सम्पूर्ण विश्व में लोग अपनी आत्महंता प्रवृत्तियों में संलग्न दिखाई दे रहे हैं। मानवता करुण क्रन्दन कर रही है। भद्रजन निरन्तर परम सत्ता से अपने उत्थान व विश्व कल्याण हेतु तथा इस सृष्टि की अनमोल कृति की रक्षा हेतु प्रार्थना में रत हैं।

     

    प्रार्थना व्यर्थ नहीं जाती, फिर परमेश्वर तो दयानिधान हैं उनकी करुणा त्रैलोक्य में विख्यात है। आखिर प्रार्थना उस ब्रह्माण्ड की सर्वोच्च सत्ता तक पहुँची एवं परम सत्ता ने भद्र जनों की पुकार पर करुणा वश कुछ उपाय का निर्णय लिया। यकायक एक तीक्ष्ण विद्युत प्रभा कोंधी एवं लुप्त हो गई। लेकिन परम सत्ता को संकेत मिल गया। उसने अपने चैतन्य के अनमोल खजाने की ओर दृष्टिपात किया और एक दुर्लभ रत्न उस रत्न राशि में से ढूँढ़ा जिसकी विद्युत आभा अत्यन्त आलोकित थी। दुर्लभ रत्न देखा गया, परखा गया फिर प्रकृति सत्ता सन्तुष्ट हुई।

     

    १० अक्टूवर १९४६, सम्वत् २००३ की आश्विन मास की वह पावन शरद पूर्णिमा, तिस पर निर्मल विमल उज्ज्वल शीतल चन्द्र किरणें चहुँ ओर व्याप्त, वह अर्द्ध निशा का सन्नाटा। जब समस्त चराचर निद्रा-देवी के आगोश में मस्त था। ऐसे मोहक वातावरण में हिंसा व दुनीतियों से

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    जन्म दिनांक १०/११ अक्टूबर १९४६ आश्विन शुक्ला १५ वि.सं. २००३ समय-रात्रि करीब १५० पर बुधवार-गुरुवार की रात्रि स्थान-ग्राम सदलगा, जिला-बेलगाँव, प्रान्त-कर्नाटक।

     

    संत्रस्त मानवता को त्राण दिलाने हेतु भव्य जीवों को काल के विकराल भय से अभय प्रदान करने हेतु एवं सम्पूर्ण मानवता को फिर अहिंसा का सन्देश देकर सन्मार्ग पर चलाने हेतु मार्ग प्रशस्त हुआ। प्रकृति ने उस अनमोल विद्याधर रूपी रत्न को विद्याधरों के लोक से धरती पर अवतरित होने हेतु सुमंगल अवसर प्रदान किया।

     

    ज्योतिश्चक्रे तु लोकस्य, सर्वस्योक्तं शुभाशुभम्।

    ज्योतिर्ज्ञानं तु यो वेद, स याति परमां गतिम् ॥

    शैशव कब बीता ? कैसे गुजर गए वे अनमोल क्षण ? मातृ एवं पितृ सत्ता सांसारिक व्यामोह की अर्द्ध चेतनावस्था में लीन रही। उन्होंने उस दुर्लभ रत्न की आभा में अपने को विस्मृत कर दिया।

     

    लेकिन पुष्प की सौरभ अन्य लोगों के लिए होती है। पुष्प देव सत्ता को भी प्रिय रहते हैं फिर वह रत्न पुष्प तो एक विशिष्ट उद्देश्य हेतु प्रस्फुटित हो रहा था। यौवन का आगमन हुआ। अचानक देव योग से चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शांतिसागर जी, ऋद्धिधारक सरीखे तपोनिधि आचार्य की तप सुरभि वातावरण में व्याप्त हुई। विद्याधररूपी रत्न के नथुनों में जो पहुँची सौरभ, और जीवन उद्देश्य को पूर्ण करने की दिशा में चेतना अग्रसर हुई, फिर ब्रह्मचर्य व्रत धारण हुआ योग मार्ग की दिशा में कदम बढ़ाना प्रारम्भ हुआ। आचार्य देशभूषणजी ने एक और बालक को ब्रह्मचर्य व्रत देकर दिगम्बर श्रमण परम्परा पर चलने हेतु प्रथम सीढ़ी चढ़ने का सौभाग्य प्रदान किया।

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    - दीक्षा -

    दिनांक ३० जून, १९६८ मध्याहृ, १% से ४ बजे तक

    स्थान-श्री बड़े धड़े की नसियां अजमेर (राजस्थान)

     

    साधु समागम, एकांत चिंतन, मनन, स्वाध्याय ने वैराग्य रूपी पौधे का सिंचन प्रारम्भ कर स्वर्णिम आभा युक्त नगरी, सभी धर्म मतावलम्बियों का संगम स्थल अजमेर नगर। जहाँ की धर्म प्राण जनता परम श्रद्धेय आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के अथाह ज्ञान समुद्र की जल राशि से सुधामृत का पान कर रही थी।

     

    श्रमसाध्य यात्रा से कलान्त थकी हारी काया लेकिन अत्यन्त आतरिक उत्साह, समेटे विद्यारत्न जा पहुँचे अपने परम शिक्षक के पास। कुशल कारीगर के पास जिससे कि वह नर रत्न तराशा जाकर अपने आभामय स्वरूप की प्राप्ति हो सके।

     

    चन्द क्षण, क्षणिक अल्प वार्ता, दो परम आत्माओं का मिलन सहज समागम विद्या रूपी दीपक प्रज्ज्वलित होने को तत्पर एवं ज्ञान रूपी दीपक लौ को प्रज्ज्वलित करने को तत्पर। इस तरह गुरुवर्य ज्ञानसागर से विद्योपलब्धि प्राप्त कर वह रत्न बन गया विद्या सागर। दीक्षा पूर्व की देवराज इन्द्र के वैभव समान शोभा यात्राओं को अत्यन्त उत्साह से जन साधारण ही नहीं अपितु सूक्ष्म लोक की देवात्मायें, ऋषि मुनि एवं दिवंगत दिव्यात्मायें व भद्रजन भी देखकर अपने नयन तृप्त कर रहे थे। फिर आखिर आ पहुँची वह अनमोल घड़ी, दीक्षा संस्कार की विधि प्रारम्भ हुई। स्थानीय बड़े घड़े की नसियां में मुनि श्रावक श्राविकाओं का चतुर्विध संघ विद्यमान एक विशाल पाण्डाल में। जैसे किसी तीर्थकर का समवसरण हो। हर धड़कन उद्वेलित थी हर सांस वैराग्य की सुरभि से आप्लावित थी। ग्रीष्म की ज्वाला अपने चरमोत्कर्ष पर थी। अन्ततोगत्वा दीक्षा संस्कार सम्पन्न हुआ, दिगम्बर वेश धारण हुआ और देवराज इन्द्र भी रोक नहीं सके अपने को, स्वर्गलोक से मेघ कुमारों को साथ ले आ पहुँचे अभिवादन को चन्द क्षणों में ही निर्मल जल राशि बरसा कर ग्रीष्म ऋतु की तपन से व्याकुल हृदयों को शीतलता प्रदान करने लगे। क्यों न हो जब विद्याधर से विद्यासागर बने प्रकृति के अनमोल चैतन्य नर रत्न ने अहिंसा के परम संदेश को जन जन तक पहुँचाने का संकल्प लिए और शिवपथ पर आरूढ़ हो चले दिगम्बर वेश धारण कर वह महामुनि।

     

    ऐसे दुर्लभ सन्त पहिले तो इस युग में दृष्टिगोचर ही नहीं होते फिर उनका सहज समागम उपलब्ध हो जाये यह हमारा परम सौभाग्य है। धन्य है वे कर पात्र जिन्होंने ऐसे महान् सन्त के चरण वन्दन कर उनके श्री चरणों में अपना आपादमस्तक झुका कर चरण रज ग्रहण की। निश्चय ही बड़े भागी हैं उनके वे भक्त जो निरन्तर तन-मन धन से उनकी भक्ति में तत्पर हैं लीन हैं। क्यों नहीं प्रकृति उन पर अपना वरद् हस्त रख कर श्री व समृद्धि से उन्हें परिपूर्ण करेगी।

     

    ज्योतिष विज्ञान उन भव्यात्माओं के चर्चा का विषय है जो स्वयं ज्योति: स्वरूप है। भास्कर सदृश स्वयं जो प्रचण्ड तेजोमयीप्रभा से युक्त है मति श्रुत अवधि व कैवल्य की ज्ञान राशि जिनकी ज्योति आभा है। सन्त तो स्वयं ज्योतिर्मय एवं त्रिकालज्ञ होते हैं समस्त चराचर व सकल ब्रह्माण्ड की क्रियाओं का ज्ञान उन्हें हस्त कमलवत् होता है। स्वात्मलीन ऐसी परम चैतन्य आत्माओं के सम्बन्ध में कुछ कहना व लिखना सूर्य को दीपक दिखलाने के समान है इसे अपनी अल्पज्ञता नहीं तो और क्या कहूँ। मेरा प्रिय विषय रहा है ज्योतिष। आचार्य श्री के प्रति श्रद्धाभाव व कुछ मित्रों का आग्रह। मन का पंछी उड़ चला ज्योतिष के स्वप्न लोक में और जा पहुँचा ब्रह्माण्ड के ऊध्र्वलोक स्थित विद्याधरों की पावन सूक्ष्म शरीरी बस्ती में। विचरण करने लगा। आकाशस्थ ग्रह स्थिति का अवलोकन करने लगा। जन्म चक्र के कोष्ठों में लिपि बद्ध ग्रह राशि व उनकी आकाशस्थ स्थिति को निहारने लगा और इस तरह पूज्य आचार्य श्री के जन्म चक्र, दीक्षा चक्र व आचार्य पद प्राप्ति के समय की ग्रह स्थिति का चक्र बना फिर कुछ लिखा जा सका।

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    आचार्यपद

    दिनांक - २२ नवम्बर, १९७२, सायंकाल करीब ४ से ५ बजे तक

    स्थान - नसीराबाद (राजस्थान)

     

     यथा शिखा मयूराणां नागानां मणयो यथा।

    तद्वद्वेदाङ्गशास्त्राणां ज्योतिषं मूर्धनि स्थितम् ॥

    जब तत्व वाला चर राशि का कर्क लग्न। लग्न में बलवान शनि व प्लूटो। लग्नेश भाग्य भवन में स्थित। जल सी शुचिता, सौम्यता व शीतलता प्रदान करता हुआ। शनि कठोर तपश्चर्या पूर्ण जीवन जीने को बाध्य करता हुआ-दृढ़ निश्चयी होने का द्योतक बना है।

     

    तृतीय सप्तम व दशम भाव पर शनि की पूर्ण दृष्टि, अतएव भ्रातृ सुख न्यून। स्वयं को पत्नी सुख नहीं। भ्रमणशील एवं भिक्षावृत्ति से जीवनयापन, उत्कृष्ट श्रम तत्पश्चात् सफलता। अन्य लोगों पर पूर्ण प्रभावी, आत्मध्यान में लीनता का द्योतक।

     

    कर्क राशि स्थित लग्न में प्लूटो परम आध्यात्मिक उपलब्धियां प्रदान करने वाला एवं धर्माराधना में निरन्तर अग्रसर रखने वाला परम आर्ष मार्ग पर चलने की प्रेरणा देने वाला है।

     

    द्वितीयेश सूर्य की तृतीय भाव में बुध की उच्च राशि में स्थिति परम साहसी व जातक को अतीन्द्रिय क्षमता से सम्पन्न बनाती है। पराक्रमी एवं पूर्वाचार्यों द्वारा स्थापित श्रमण मार्ग पर चलते हुए मोक्ष गामी चेतना होने का संकेत देती है। नेपच्यून का साथ चेतना को उतरोत्तर प्रगति व परम समाधि को उपलब्ध होने की ओर एवं निरन्तर उग्र तपस्या में लीन रह धर्माराधना में सक्रिय रखता है। तात्पर्य है कि पूर्ण संन्यासी योग घटित होता है।

     

    सूर्य एवं चन्द्रमा परस्पर आमने सामने है। एतद् द्वारा स्वभाव में मधुरता युक्त दृढ़ निश्चयी व निरन्तर तीर्थाटन व तीर्थोद्धार करने वाला प्रवासी व भ्रमण शील व्यक्तित्व होना बतलाता है यहीं श्री कण्ठ योग घटित होता है जिसका तात्पर्य है ऐसा व्यक्ति शिव सम्प्रदाय (ऋषभनाथ) में दिगम्बरी जैनेश्वरी दीक्षा में दीक्षित होता है।

     

    चन्द्रमा पर नेपच्यून की दृष्टि की वजह से स्वप्निल कायिक विकास व मानसिक सिद्धियों की उपलब्धि संभव होती है। निरन्तर सद्धर्माराधना में प्रवीण क्रियाशील रहता है ऐसा पुरुष। उत्कृष्ट काव्य रचना में भी रत रहता है।

     

    तुला राशि में बुध व गुरु की युति चतुर्थ भाव में है व मंगल भी साथ है। मोक्षाधि पति बुध, धर्माधिपति गुरु व राज्याधिपति मंगल तीनों बलवान ग्रहों के प्रभाव से ऐसा व्यक्ति महाकवि, लेखक, आगम ज्ञान का धारक, पूर्ण पाण्डित्य से युक्त वत्ता, होता है। यह निरन्तर गूढ़ ज्ञानाभ्यास में रत रहकर गुरु पद अर्थात् धर्माधिपति या धर्माचार्य के पद को सुशोभित करता है। अनेक विद्यायों जैसे न्याय, छन्द, व्याकरण, दर्शन, योग आदि में उत्कृष्ट विद्वता अर्जन करता है। दशम भाव पर उत्त ग्रहों की दृष्टिवश, जातक अपनी रचनाओं व सम्यक् आचरण के बल पर तथा निरन्तर अध्यापन द्वारा ज्ञान प्रदान करता हुआ समाज को उपकृत करता है। सत्ता, न्याय व शासन करने की क्षमता भी यही योग प्रदान करता है, इसी वजह से निभीक व्यक्तित्व प्रकट हुआ है। यहाँ कारण है कि आप आचार्य पद से विभूषित होकर एक बहुत विशाल मुनि, आर्यिकाओं, ब्रह्मचारी, श्रावक-श्राविकाओं के संघ प्रमुख बने है एवं अपनी धीर वीर गम्भीर वाणी में प्रवचनों के माध्यम से लोकोपकार में संलग्न है। विद्वज्जनों, भद्रजनों, जैन एवं अजैन जन साधारण द्वारा ही नहीं, साधु संन्यासियों, ज्ञानियों एवं शासन सत्ता में प्रमुख व्यक्तियों द्वारा भी वन्दनीय हैं।

     

    मिथुन राशि पर गुरु की दृष्टि उत्तम गायन शैली हेतु कण्ठ में सरसता व मधुरता प्रदान करती है। पंचम भाव में मंगल की राशि में शुक्र व केतु की युति एवं मंगल शुक्र का परावर्तन योग है। एकादश भाव में बहुत अच्छी स्थिति का राहू है।

     

    वृश्चिक के पृष्ठ भाग में स्थित तीक्ष्णता के समान अपनी वय के उत्तरार्द्ध में इस व्यक्तित्व का जाज्वल्यमान व दैदीप्यमान होना संभव है। लेकिन उत्कृष्ट प्रयासों द्वारा ही सफलता मिले। वृश्चिक दंश का योग भी जन्म पत्रिका में भाषित है। इसके अतिरिक्त वृषभ राहु जो स्वयं अमृत पायी है, अमरत्व प्रदान करने में कुछ भी कृपणता नहीं दिखा रहा है। अर्थात् अमरत्व को उपलब्ध होंगे।

     

    शनि से मंगल बुध गुरु का केन्द्र योग, सूर्य शनि का त्रिरेकादश योग, सूर्य चन्द्र का सम सप्तम योग, चन्द्र राशि से त्रिकोण में शनि, तृतीय में सूर्य व उससे नवम में राहु की स्थिति, लग्न स्थित कर्क गत शनि की स्थिति इस जातक को पूर्ण वैराग्य युक्त महान् त्यागी, संन्यासी, परमज्ञानी, परीषह जयी एवं शिव स्वरूप दिगम्बर वेष धारण कर मुनि बन विचरण करने का स्पष्ट योग दर्शाती है।

     

    आपकी दिगम्बर मुनि दीक्षा दिनांक ३० जून, १९६८ आषाढ शुक्ला पंचमी वि.सं. २०२५ को अजमेर नगर राजस्थान में मध्याह्न डेढ़ से चार बजे तक सम्पन्न हुई। लेखक स्वयं उपस्थित होकर उस भव्य दृश्य का अवलोकन कर रहा था। प्रमुख दीक्षा संस्कार के वक्त आकाश में तुला लग्न गतिमान था। गुरु व चन्द्र को सिंह राशि में एकादश भाव में युति व स्थिति थी। सप्तम भाव में मंगल की राशि में शनि था। अष्टम भाव में वृष राशि में मित्र क्षेत्री बुध। नवम भाव में सूर्य, मंगल व शुक्र बुध की राशि में स्थित थे। षष्ठ भाव में राहु व द्वादश भाव में केतु स्थित थे।

     

    यह स्थिति पूर्ण काल सर्प योग बनाती है। द्वादश भाव में स्थित केतु मोक्ष प्रदाता बन रहा है। सप्तम भाव का शनि अपनी उच्च राशि पर दृष्टिपात कर टंकोत्कीर्ण तपस्या के मार्ग पर अग्रसर कर निरन्तर भ्रमणशील जीवन व्यतीत करने का, वैराग्यमयी, श्रमण संस्कृति की श्रेष्ठ स्थिति में दिगम्बर मुनि वेष धारण कर लेने को बाध्य कर रहा है। ऐसा दृढ़ निश्चय केवल शनि ग्रह ही प्रदान कर सकता है।

     

    मिथुन राशि में शुक्र, सूर्य, मंगल निरन्तर धर्म वृद्धि, भाग्य वृद्धि व यश वृद्धि के सूचक बन रहे हैं। तीनों ग्रह वायु तत्व के माध्यम द्वारा दिगम्बरत्व भूषित इस ऋषि के तपोमयी जीवन व ज्ञान की सुरभि चहुँ और विस्तीर्ण करने को उद्यत है।

     

    एकादश भाव में गुरु व चन्द्र की स्थिति सूर्य की राशि में अपने मकसद अर्थात् ध्येय में पूर्ण सफलता का निर्देश कर रही है। इन्हीं ग्रहों की सूर्य मंगल शुक्र से त्रिरेकादश व बुध से केन्द्र योग स्थिति परम ज्ञान को उपलब्ध होने का योग बना रही है। इस भूखण्ड पर ही नहीं अपितु दिगदिगांतर में वैराग्यमयी तपोपूर्ण श्रमण संस्कृति की कीर्ति का सत्-संदेश प्रसारित करने का संकेत दे रही है जो अनेक प्राणियों को सन्मार्ग पर अग्रसर होने को प्रेरित करती रहेगी।

     

    आपको दिनांक २२.११.१९७२ को सायंकाल करीब ४ से ५ बजे के बीच अपने दीक्षा गुरु आचार्य श्री ज्ञान सागर जी महाराज द्वारा आचार्य पद से विभूषित किया गया। क्या ही विचित्र दृश्य था। गुरु स्वयं शिष्य को अपना अदृश्य मुकुट पहना रहे हैं अपना पद प्रदान कर रहे हैं एवं स्वयं शिष्य के कदमों में विराज कर नमन कर रहे हैं। प्रसंग वश लिख रहा हूँकि जिन्हें अध्यात्म मार्ग का ज्ञान है वे जानते हैं कि अन्त में सभी पद संन्यासी की मुक्ति में बाधक हैं। ऋषि-मुनि जन परम निर्लिप्त, आत्मस्थ रहते हुए परम जाग्रत व आत्मचिंतन में तल्लीन रहते हुए पंचभूतमयी काया के कलेवर का त्याग करते हैं। आचार्य पूज्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज तो स्वयं ज्ञानवारिधि थे परम ज्ञानी थे भला वे इस सुअवसर का त्याग कैसे कर सकते थे। जिन आँखों ने यह दृश्य देखा था आज भी उनका रोम-रोम उस दृश्य की स्मृति मात्र से तरंगायित हो जाता है। उस समय उस दिन आकाश में मेष लग्न उदित था ग्रहस्थितिनुसार वृष राशि में शनि, मिथुन राशि में चन्द्र व केतु, तुला राशि में स्वग्रहो शुक्र व मंगल, वृश्चिक राशि में सूर्य व बुध तथा धनु राशि में गुरु व राहु उपस्थित थे।

     

    मेष लग्न पर बलवान् शुक्र व मेषाधिपति मंगल की पूर्ण दृष्टि है अतः अधिकार व उच्च पद प्राप्ति का योग शनि की दशम दृष्टि कुम्भ राशि पर इसमें सहायक। गुरु की पूर्ण दृष्टि लग्न पर।

     

    तात्पर्य है कि यह स्थिति आचार्य पद दिलाने का हेतु बनी। घुमन्तु जीवन चन्द्र केतु की स्थिति से मन की शक्तियों पर विजय एवं शुक्र मंगल दृढ़ निश्चय व मधुरता युक्त शासन क्षमता में वृद्धि का संकेत देती है। अष्टमस्थ सूर्य व बुध पर शनि की दृष्टि तपोमयी जीवन विरत व संन्यास योग की प्रत्यक्ष झलक देती है।

     

    नवम् भावस्थ स्वग्रही धनु राशि का गुरु निरन्तर भाग्य वृद्धि, धर्म वृद्धि व उज्ज्वल कीर्तिं प्रदान करती है। यही स्थिति चन्द्र से दृष्ट होने से सत् धर्म एवं पूर्वाचार्यों द्वारा प्रतिपादित धर्म की प्रभावना करने का निर्देश देती है। यही स्थिति लोक पूजित, श्रेष्ठ लब्धिधारक व ऊध्र्वलोक हेतु निरन्तर प्रयासरत रखती है।

     

    आपकी जन्म पत्रिका में, जन्माङ्गचक्र, दीक्षाङ्गचक्र व आचार्यङ्गग चक्र में बहुत कुछ समानता है। सूर्य का शनि से दृष्ट होना, दिगम्बर संन्यासी वेष धारण करने का योग है। जन्म व आचार्य चक्र में मेष राशि लग्न व दशमस्थ अपने स्वामी से दृष्ट है। जन्म व दीक्षा दोनों चक्रों में सूर्य शनि त्रिरेकादश योग है। चन्द्र व शनि एक दूसरे में नवम पंचम अर्थात् त्रिकोण में है।

     

    ज्योतिष शास्त्रों के अनुसार शनि चन्द्र की युति प्रतियुति दृष्टि, सूर्य शनि की युति—प्रतियुति दृष्टि एवं गुरु मंगल व बुध की युति-प्रतियुति दृष्टि प्रवज्या लेकर, वैराग्यपूर्ण साधुमार्ग पर चलने की क्षमता प्रदान करती है। तीर्थकर महावीर, श्री गौतम बुद्ध, श्री नानकदेव, महर्षि रमण शंकराचार्य आदि अनेक महान् पुरुषों के जन्म चक्रों को देखें तो उत्त योग प्रत्यक्ष देखने को मिलते हैं।

     

    इसके अतिरिक्त पूर्ण व खण्डित रूप से निम्न योग भी आपके जन्म चक्र में घटित दिखाई देते हैं। केमद्रुम योग, काल सर्प योग, श्रीकण्ठ योग, शुभवेसियोग, पुष्कल योग, सरस्वती योग, श्रीनाथ योग, महायोग, शंख व दाम योग, शौर्य व अम्बुधि योग आदि पूर्ण व आंशिक रूप से आपके जीवन को प्रभावित कर रहे हैं। इनसे स्पष्ट आभास होता है कि इनके रूप में ससम्मान भिक्षावृत्ति से जीवनयापन करने वाला, घुमन्तु जीवन जीने वाला शिव स्वरूप दिगम्बर श्रमण सम्प्रदाय में दीक्षित, सुन्दर गुणनिधि, शासन कर्ता, शुभ वाणी युक्त श्रेष्ठ पद धारक, सत्य वक्ता, लोक पूजित, शास्त्रार्थ पारंगत, पूर्ण पाण्डित्ययुक्त काव्य-नाटक, गद्य-पद्य रचना में निपुण, निरन्तर धर्माराधना द्वारा आर्ष व आगम मार्ग पर चलने वाला, ब्रह्मज्ञान पारायण, धर्माचार्य, सौम्य व सात्विक ब्रह्म तेज युक्त, जितेन्द्रिय, परोपकारी, ऋद्धि-सिद्धि धारक, तीर्थोद्धारक आदि गुणों से विभूषित एक महान् आत्मा अवतरित हुई है। जो निरन्तर अपनी दिव्य देशना द्वारा जैन-अजैन सभी धर्ममतावलम्बियों को सत्य व सन्मार्ग पर चलने को प्रेरित करेगी। ये ऋषि अनेकों का जीवन बदलेंगे। उन्हें परमार्थ ज्ञान की ओर बढ़ने में पूर्ण साधक होंगे।

     

    वदन-कमलमङ्कः कामिनीसङ्ग शून्यः,

    तदसि जगति देवी वीतरागस्त्वमेव ॥

    अतिरित इसके यदि हम पाराशरी पद्धति, विंशोत्तरी, अष्टोत्तरी व कालचक्र दशान्तर्गत उत्त जन्म पत्रिका का अध्ययन करें तो भी उत्तरोत्तर धर्म मय प्रगति युक्त जीवन का संकेत मिलता है एवं परम चैतन्यमयी अवस्था में समाधि घटित भाषित होती है अर्थात् देह त्याग संभव होता है।

     

    आयुष्य के सम्बन्ध में कई मत-मतान्तर ज्योतिष में प्रचलित है तथापि कालचक्र की परिधिनुसार ७२ से ७६ वर्ष के मध्य आप इस पंचभूत काया का त्याग कर सकेंगे। कुछ असाता वेदनीय से शारीरिक व्याधि से यदि मुक्त हों तो ८६ वर्ष तक जीवन धारा प्रवाहित हो सकेगी। ज्योतिष सिद्धान्त के अनुसार अष्टमेश, लग्नेश व दशमेश १-४-५-७-९-१० वें भाग में स्थित हो तो दीर्घायु योग होता है-शुभ ग्रह भी इन्हीं भावों में हो तो भी दीर्घायुयोग होता है। आचार्य श्री जी के जन्म चक्र में अष्टमेश शनि लग्न में, लग्रेश चन्द्रमा नवम् भाव में व दशमेश मंगल चतुर्थ भाव में स्थित है साथ ही शुभ ग्रह भी चतुर्थ पंचम व नवम् भाव में है। सूर्य तीसरे भाव में व राहु एकादश भाव में स्थित है अत: दीर्घायु योग स्पष्ट है।

     

    अन्त में श्री जिनेन्द्रदेव से विनम्र प्रार्थना है कि आप चिरायु हों, शतायु हों एवं अपनी धवलकीर्तियुक्त धर्मध्वजा को धर्माकाश में उन्मुक्त रूप से फहराते हुए विचरण करें।

     

    मुमुक्षुओं की ज्ञान पिपासा का अपनी अमृतमयी वाणी से तृप्त करें। परमोत्कृष्ट कैवल्ययुत मुक्त अवस्था को उपलब्ध होवें। तीर्थकरों के समान तीर्थोद्धारक बने, धर्म की पुर्नस्थापना कर निरन्तर अनन्त काल तक शरद्-पूर्णिमा के चन्द्र की उज्ज्वल ज्योत्सनाओं से साधकों के शिवपथ को आलोकित करते हुए अभिवंदित होवें।

     

    प्रस्तुत विवेचन में अपनी अल्प प्रज्ञा व उपलब्ध तथ्यों के आधार पर संक्षिप्त रूप से लिख सका हूँ, यह भी संभव हुआ है, आचार्य श्री के प्रति विनयी भावों व श्रद्धा वश एवं अन्य सन्तों, भद्रजनों व मित्रों के आग्रह के कारण। इसमें एक साधक की नजर है, एक भविष्य वक्ता का कथन है एक मोक्षाभिलाषी जिन भत के भाव हैं। त्रुटियां अवश्यम्भावी है। विज्ञ-जन संशोधन कर पढ़ें एवं संभव हो तो मुझे भी अवगत कराने का कष्ट करें। )

     

    क्योंकि संत तो स्वयं मानस के पार आत्मस्थ जीवन जीते हैं उनके प्रति कुछ कहना, व लिखना अत्यन्त कठिन है। तथापि क्षुद्र (शूद्र) प्रयास है अत: अनुपयुक्त यदि कुछ लगे तो सुहृदयी पाठक मुझे क्षमा प्रदान करें।


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