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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
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भ्रात प्रेम - 86 वां स्वर्णिम संस्मरण


संयम स्वर्ण महोत्सव

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ज्ञानेंद्र गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज को शत-शत नमन करता हूं.....

हे वात्सल्य रत्नाकर गुरुवर एक महापुरुष के अंदर सहज स्वाभाविक असीम गुणों के भंडार से समय-समय पर गुणरत्न प्रकट होते रहते हैं और उस विराट व्यक्तित्व को चमकातेे रहते हैं। विद्याधर में एक तरफ वैराग्य की ऊर्जा वृद्धिंगत हो रही थी तो दूसरी तरफ व्यावहारिक गुण भी अपनी सुगंधी फैलाते जा रहे थे। परिवार के सदस्यों से उसे गहरा लगाव था, वे प्रत्येक सदस्य का बड़ा ही ख्याल रखते थे। उसकी संवेदनाएं महापुरुषत्व की आधारशिलाएं स्थापित कर रही थी।

 

इसका एक छोटा सा संस्मरण बड़े भाई महावीर जी ने सुनाया वह मैं लिख रहा हूं-

जब छोटा भाई अनंतनाथ (योगसागर जी) 3 वर्ष के थे, तब उन्हें रीकेट्स नामक रोग हो गया था। इसमें हाथ पांव सूखते चले गए और पेट बड़ा हो गया था। शरीर की हड्डी- हड्डी दिखने लगी थी। बहुत इलाज करने के उपरांत भी रोग ठीक नहीं हुआ, तब हम सभी समझ गए कि यह बच नहीं पाएगा। सुंदर गोरा बदन रोग होने के कारण फीका और विद्रूप लगने लगा था। उसकी हालत देखकर घर के सभी लोग दुखी थे किंतु विद्याधर कुछ ज्यादा ही दुखी था उस वक्त विद्याधर 13 वर्ष का था। इस दुख के कारण विद्याधर खेलने नहीं आता था।

 

दूर के एक ग्रामीण वैद्य के बारे में पता चला तो उन्हें लाकर दिखाया गया। उन्होंने दवाई दी और कहा- इसे 1 साल तक सुबह से 12:00 बजे तक धूप में बैठाना है तब ऐसा ही किया गया। इससे अनंतनाथ के शरीर की चमड़ी काली पड़ गई किंतु रोग भाग गया। और अनंत नाथ स्वस्थ हो गया उसके शरीर वर्ण को देखकर विद्याधर दुखी रहता था और पिता जी को बोलता था- अन्ना अच्छे डॉक्टर को दिखाओ ना। घर पर कोई भी डॉक्टर वैद्य आता तो उनसे पूछता- मेरा भाई ठीक कब होगा ? जल्दी स्वस्थ करो ना। उसकी रुग्ण हालत में विद्याधर और मैं सेवा करते थे। विद्याधर तो कहीं जाता ही नहीं था, वैसे भी घर में कोई भी बीमार पड़ता तो विद्याधर  सबसे ज्यादा सेवा करता था। इस तरह बचपन का वह भ्रात प्रेम आज असीम स्वरूप में बदलकर जगत के प्राणियों पर बरस रहा है।

अन्तर्यात्री महापुरुष पुस्तक से साभार

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