यह संसारी प्राणी सुख चाहते हुए भी सुख का रास्ता भूला हुआ है। उसे सुख का रास्ता बताने वाले आचार्य कुन्दकुन्द ने अष्टपाहुड ग्रन्थ के मोक्षपाहुड में कहा है। जो आर्त रौद्र में लिप्त संसारी प्राणी है, उनके लिए कहा है। वे कहते हैं कि अब तक मैंने जो कुछ विवेचन किया, वह श्रमणों के लिए था, अब मैं श्रावकों का सम्यक्त्व क्या होता है ? उसके बारे में बताता हूँ। जो प्राणी मोक्ष को चाह रहा है, उसको मालूम नहीं कि आचार्य क्या कहेंगे ? पर आचार्य जानते हैं कि यह प्राणी भागता हुआ आया है। अत: मैं इसको मोक्ष का मार्ग न बताऊँ तो टूट जायेगा। अत: वे श्रावकों के बारे में बताते हैं। श्रावक वह होता है जो समाधि का उम्मीदवार होता है, वह समाधि प्राप्त करने की शिक्षा प्राप्त कर रहा है। उस समाधि को प्राप्त करने की इच्छा भगवान् अभिनन्दन जब तक गृहस्थ में रहे, तब तक न कर सके। जब उन्होंने दोनों प्रकार की ग्रन्थियों को हटा दिया, तभी समाधि को प्राप्त किया। अत: इसीलिए वे पूज्य हैं। वही बात आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि जो समाधि को प्राप्त करना चाहते हैं, इसकी प्राप्ति कैसे हो? इसकी शिक्षा कहा मिलेगी ? श्रावकों को बहुत मीठे वचनों से सम्बोधन करते हैं कि हिंसा से रहित जो धर्म है वही वास्तविक धर्म है। जहाँ हिंसा है, हिंसा करते हैं, वहाँ धर्म नहीं है। अहिंसा रूप धर्म का श्रद्धान सम्यक्त्व है। अठारह दोषों से रहित अरहंत पर श्रद्धान सम्यक्त्व है और निग्रन्थ पर श्रद्धान सम्यग्दर्शन है पर दोनों अलगअलग हैं। लक्ष्य एक है, पर पात्र दो हैं। पात्र सुख चाहते हैं। रोगी का महत्व नहीं डॉक्टर का महत्व है। पात्र कहता है कि अनादि काल से भटक रहा हूँ, भगवन्! आपको तरण-तारण समझकर आया हूँ, कुछ रास्ता बताओ। आचार्य रास्ता बताएँगे, समाधि का विश्लेषण करेंगे। जिसका बाहर के साथ Attachment है, उसके लिए समाधि को अपनाना बहुत मुश्किल है। लेकिन डॉक्टर तभी कहलाएगा, जब रोग से मुक्त करेगा, वरना तो कैसे डॉक्टर ?
भत्तामर स्तोत्र में स्वामी मानतुंगाचार्य ने कहा है कि इसमें कोई विस्मय नहीं है कि आपके पास कोई आ जाये, दर्शन करे और आप जैसा बन जाये। यह तो लोहे और पारसमणी का सम्बन्ध होने पर सोना बनेगा। भगवान् का सानिध्य पाकर भगवान बन जाये, इसमें विस्मय नहीं। विस्मय की बात यह है कि भगवान का सान्निध्य पाकर भी भगवान न बने। भक्ति के द्वारा भी मुक्ति होती है, पर भक्ति से ही मुक्ति हो, सो यह बात नहीं। भगवान की भक्ति से रास्ता दिख सकता है। भगवान दर्पण के समान हैं, उससे कालिमा दिखेगी, पर दर्पण कालिमा को नहीं मिटाएगा। हमें ही मिटानी होगी। दर्पण देखने के बाद उसकी Value नहीं, उसके बाद हाथ की आवश्यकता है। हाथ ही कालिमा को मिटाएगा। भगवान महावीर का दर्शन समाधि का कारण है, समाधि नहीं। संसारी प्राणियों को देव दर्शन करना आवश्यक है। दर्पण में काँच के पीछे लेप है, तभी उसमें प्रतिबिम्बित होता है, सामान्य काँच में नहीं। परन्तु दर्पण में काँच के पीछे वाला लेप दिखाई नहीं देता। लेप की तरफ देखने से मुख भी नहीं दिखता, उस पर लगी कालिमा को नहीं ढूँढ सकता।
अरहंत देव दर्पण हैं, काँच नहीं। दर्पण में जाकर अपने दोष देखेंगे, तुलना करेंगे। दूसरों को देखकर दोष दूर नहीं कर सकते हैं। असाधारण भगवान् का मुख देखकर ही दोष दूर कर सकते हैं, सदोष को देखने से दोष दूर नहीं होंगे। दर्पण में धूली लगी होगी तो मुख पर भी धूली ही नजर आएगी। यह दर्पण सदोष है आप लोगों का अपना काम जो होगा, वह सिद्ध परमेष्ठी को देखकर नहीं होगा, अरहंत भगवान् के द्वारा ही होगा। आप लोगों को आँखों के द्वारा अरहंत भगवान् देखने में आते हैं। आपको अपने आप में तल्लीन होने की विधि मालूम नहीं है। अरहंत का लक्षण है निग्रन्थ साधुओं में कोई अन्तर नहीं, साधु इन्हें भी कहा है और उन्हें भी कहा है। पुलाक वकुश आदि भेष साधक के कहे हैं। यथा रूप धारी है। जैसे-जैसे गुण बढ़ते गये तैसे-तैसे Quality में अन्तर आ गया। किन्तु विद्यार्थी नाम ही उनका है! एम.ए. का पढ़ने वाला तथा प्राइमरी में पढ़ने वाला दोनों है तो विद्यार्थी ही, परन्तु एम.ए. वाला भले ही सोलहवीं कक्षा में फैल हो जाये पर प्राइमरी वाले को तो पढ़ा ही सकता है। यह सिद्ध है कि आप लोग अभी अधूरे हैं, इसीलिए महावीर भगवान् का आलम्बन आवश्यक है। ध्यान रखो कि आलम्बन किस लिए है। दर्पण की आवश्यकता मात्र मनोरंजन के लिए नहीं, दोष मिटाने के लिए है। हिंसा रहित धर्म और अठारह दोषों से रहित जो अरहंत है, वही आप्त है। मोक्ष मार्ग के नेता सिद्ध नहीं हैं। संसारी प्राणियों को सद्बोधन देने वाले अरहंत नेता है। वे आप्त १८ दोषों से दूर हैं।
जिसके राग-द्वेष-मोह नहीं है, वे आप्त बन सकते हैं। महावीर में श्रद्धान वही रखता है, जो बिल्कुल उज्ज्वल बनना चाहता है, निर्गुणी बनना चाहता है, जीवन के बारे में विचार करना चाहता है। व्यापकता को अपनाएँ बिना दुनियाँ का उद्धार नहीं हो सकता है। दवाई पी लेगा, तो रोग अवश्य मिटेगा। भगवान् कुन्दकुन्द ने श्रावकों को नहीं भूला है। समाधि की उत्पति के लिए दोनों ग्रन्थियों को हटा लिया है। आचार्य समन्तभद्र भगवान शांतिनाथ की स्तुति करते हुए कहते हैं कि हे भगवन्! जो मनुष्य चक्र प्राप्त करते हैं उसे आपने समाप्त कर दिया, पर बाद में आपने मोह रूपी चक्र को भी ढूँढ कर कैसे समाप्त किया? नरेन्द्र के पास जो चक्र है, तथा मोह चक्र है-दोनों पौदूलिक हैं, दोनों मूर्त हैं, दोनों में स्पर्श रस गन्ध वर्ण मौजूद है। आत्मा पर प्रहार करने वाला नरेन्द्र चक्र नहीं, मोह चक्र है। औदारिक शरीर पर नरेन्द्र चक्र का प्रभाव पड़ सकता है। पर तैजस, कार्मण पर, सूक्ष्म शरीर पर नहीं। नरेन्द्र चक्र से मोह चक्र को नहीं जीत सकते। अत: भगवान शांतिनाथ ने उसको फेंक दिया और मोह चक्र को जीतने के लिए समाधि प्राप्त करने के लिए निग्रन्थ अवस्था को धारण किया।
कर्मों की तरफ मत देखो, राग द्वेष कम करो। मोहरूपी अविद्या अपने आप चली जायेगी। मोहनीय विद्यमान है, तो सारी फौज विद्यमान है। मोहनीय कर्म नि:शस्त्र है, मात्र सामने खड़ा है। आठों कर्म नि:शत होते ही जहर से रहित सर्प के समान हो जाते हैं। जहरीला दांत टूट जाता है। जब बांसुरी (बीन) बजने लगती है, सर्प नाचने लगता है। बांसुरी वाला सर्प को नहीं मारता। क्योंकि अब उसमें जहर का प्रभाव नहीं है। उसी प्रकार मोह का प्रभाव वीतराग परिणामों पर नहीं पड़ता है। लड़ाई मोह के साथ है, उसके साथ लड़कर भी राग द्वेष नहीं करना है, वही वास्तविक समाधि है। जो जानता है, जो जाना जा रहा है, ये दोनों समयवर्ती पर्यायें हैं। किन्तु ज्ञानी इन दोनों में कभी आकांक्षा, राग-द्वेष नहीं करता है।
आचार्य कुन्दकुन्द पात्र को पथ पर ले जाने की चेष्टा करते हैं। राग-द्वेष, मोह की वजह से होता है। किन्तु आत्म समर्पण कर रही है कर्मों की फौज। कर्म उदय में आ रहे हैं, वीतराग परिणामों पर कोई प्रभाव नहीं। समाधि में बैठा व्यक्ति क्या देख रहा है कि सारे संसारी पदार्थ आत्मा से भिन्नभिन्न हैं। शरीर के लिए जो इष्ट अनिष्ट बनते हैं। यह शरीर भी आत्मा से भिन्न है, तादात्म्य को लेकर नहीं है। मोह के अस्तित्व में भी समाधि हो सकती है, होती है। इसके बाद जो शरीर कर्मों के द्वारा बनता है, ये द्रव्य कर्म भी आत्मा से भिन्न है। इनसे नाता सम्बन्ध नहीं है। जिन ८ कर्मों के निमित्त राग द्वेष हैं, वे आत्मा से पृथक् हैं। जो राग द्वेष होते हैं, जो इन्द्रियाँ ज्ञान रूप हैं, वे भी आत्मा से भिन्न हैं। औपपादिक ज्ञान किस काम का। वैकालिक सम्बन्ध उपयोग के साथ है। मति-श्रुतावधि मन:पर्यय ज्ञान भी भिन्न हैं, तेरे नहीं हैं। क्षणिक पर्यायें है। अन्तिम सीढ़ी यह है कि वर्तमान में जो जान रहा है, वह भी तेरा नहीं, जो जाना जायेगा, वह भी तेरा नहीं। ज्ञान गुण, ज्ञेय गुण है, वह भी तेरा नहीं। उसको भी भूल जा, अर्थ पर्याय भी तेरा नहीं, क्षणिक है। फिर मोह भाग जायेगा।
मात्र सामने भगवान् विराजमान हैं, जिनका आलम्बन लेना है। वह आत्मानुभूति कैसे हो सकती है? महान् दैदीप्यमान दीपक जल रहा है। पर दिखने में नहीं आ रहा है। उसके दिखे बिना अन्धकार छाया हुआ है। दूसरे से लाइट मांग रहे हैं, पर सर्च लाइट जो तेरे पास है, उसका बटन दबाना नहीं चाहता है। समाधि रूप चक्र को लेकर मोह का संहार कर। अपने आप में तल्लीन हो जाओगे तो तुम्हें कोई नहीं रोकेगा। मोह चपरासी बन जायेगा, वरना तो राजा महाराजा बना रहेगा। लालसा, आकांक्षा को छोड़कर आगे बढ़ जाओ, जहाँ प्रकाश, समाधि, आनन्द की लहर है। अन्त में मैं यही कहूँगा।
ज्योत्सना जगे तम टले, नव चेतना है।
विज्ञान-सूरज-छटा, तब देखना है ॥
देखे जहाँ परम पावन है प्रकाश।
उल्लास, हृास, सहसा लसता विलास ॥