त्याग के पहले जागृति परम अपेक्षणीय है। निजी सम्पत्ति की पहचान जब हो जाती है तब विषय-सामग्री निरर्थक लगती है और उसका त्याग सहज सरलता से हो जाता है।
यथाशक्ति त्याग को 'शक्तितस्त्याग' कहते हैं। शक्ति अनुलध्य यथाशक्ति अर्थात् शक्ति की सीमा को पार न करना और साथ ही अपनी शक्ति को नहीं छिपाना इसे यथाशक्ति कहते हैं और इस शक्ति के अनुरूप त्याग करना ही शक्तितस्त्याग कहा जाता है।
भारत में जितने भी देवों के उपासक हैं, चाहे वे वृषभ के उपासक हों, चाहे वे राम के उपासक हों अथवा बुद्ध के उपासक हों, सभी त्याग को सर्वाधिक महत्व देते हैं। ऐसे ही महावीर के भी उपासक हैं, किन्तु महावीर के उपासकों की विशेषता यही है कि उनके त्याग में शर्त नहीं है, हठग्राहिता नहीं है। यदि त्याग में कोई शर्त है तो वह त्याग महावीर का कहा हुआ त्याग नहीं है।
सामान्य रूप से त्याग की आवश्यकता हर क्षेत्र में है। रोग की निवृत्ति के लिए, स्वास्थ्य की प्राप्ति के लिए, जीवन जीने के लिए और इतना ही नहीं, मरण के लिए भी त्याग की आवश्यकता है। जो ग्रहण किया है उसी का त्याग होता है, पहले ग्रहण, फिर त्याग, यह क्रम है। ग्रहण होने के कारण ही त्याग का प्रश्न उठता है। अब त्याग किसका किया जाये? तो अनर्थ की जड़ का त्याग अर्थात् हेय का त्याग किया जाये। कूड़ा-कचरा, मल आदि ये सब हेय पदार्थ हैं। इन हेय पदार्थों के त्याग में कोई शर्त नहीं होती, न ही कोई मुहूर्त निकलवाना होता है, क्योंकि इनके त्याग के बिना न सुख है, न शान्ति। इन्हें त्यागे बिना तो जीवन भी असम्भव हो जायेगा।
त्याग करने में दो बातों का ध्यान रखना परम अपेक्षणीय है। पहला यह कि दूसरों की देखा-देखी त्याग नहीं करना और दूसरा ये कि अपनी शक्ति की सीमा का उल्लंघन नहीं करना, क्योंकि इससे सुख के स्थान पर कष्ट की ही आशंका अधिक है।
त्याग में कोई शर्त नहीं होनी चाहिए। किन्तु हमेशा से आप लोगों का त्याग शर्त युक्त रहा है। दान के समय भी आपका ध्यान आदान में लगा रहता है। यदि कोई व्यक्ति सौ रुपये के सवा सौ रुपये प्राप्त करने के लिये त्याग करता है तो वह कोई त्याग नहीं माना जायेगा। यह दान नहीं है, आदान है। एक विद्वान् ने लिखा है कि दान तो ऐसा देना चाहिए जो दूसरे हाथ को भी मालूम न पड़े। यदि त्याग किये हुए पदार्थ में लिप्सा लगी रही, इच्छा बनी रही, यदि इस पदार्थ के भोगने की वासना हमारे मन में चलती रही और अधिक प्राप्ति की आकांक्षा बनी रही तो यह त्याग नहीं कहलायेगा।
बाह्य मलों के साथ-साथ अंतरंग में रागद्वेष रूपी मल भी विद्यमान है जो हमारी आत्मा के साथ अनादि काल से लगा हुआ है। इसका त्याग करना/छोड़ना ही वास्तविक त्याग है। ऐसे पदार्थों का त्याग करना ही श्रेयस्कर है जिनसे रागद्वेष, विषय-कषायों की पुष्टि होती है।
अजमेर में एक सज्जन मेरे पास आये और बोले- महाराज, मेरा तो भाव-पूजा में मन लगता है, द्रव्य-पूजन में नहीं। तो मैंने कहा, भइया, ये तो दान से बचने के लिए पगडण्डियाँ हैं। पेट-पूजा के लिए कोई भाव-पूजा की बात नहीं करता। इसी तरह भगवान की पूजा के लिये सस्ते पदार्थों का उपयोग करना और खाने-पीने के लिये उत्तम से उत्तम पदार्थ लेना यह भी सही त्याग नहीं है। जब भगवान को चढ़ाया हुआ द्रव्य भोगना नहीं है तब उनके लिये सुरभित सुगंधित पदार्थ क्यों चढ़ाना, ये हमारे मन की विचित्रता है। पूजा का मतलब तो यह है कि भगवान के सम्मुख गद्गद् होकर विषयों और कषायों का समर्पण किया जाये।
जब तक इस प्रकार का समग्र-समर्पण नहीं होता, तब तक पूजा की सार्थकता नहीं है।
त्याग के पहले जागृति परम अपेक्षणीय है। निजी सम्पत्ति की पहिचान जब हो जाती है, उस समय विषय-सामग्री कूड़ा-कचरा बन जाती है और उसका त्याग सहज हो जाता है। इस कूड़े-कचरे के हटने पर अपनी अन्तरंग की मणि अलौकिक ज्योति के साथ प्रकाशित हो उठती है। त्याग से ही आत्मारूपी हीरा चमक उठता है। जैसे कूड़ा-कचरा जब साफ हो जाता है तब जल निर्बाध प्रवाहित होने लगता है। इसी प्रकार विषय-भोगों का कूड़ा-कचरा जब हट जाता है तो ज्ञान की धारा निबधि अन्दर की ओर प्रवाहित होने लगती है।
आतम के अहित विषय-कषाय, इनमें मेरी परिणित न जाये।
और
यह राग-आग दहै सदा तातें समामृत सेइये।
चिर भजे विषय-कषाय अब तो त्याग निज-पद वेइये।
ये राग तपन पैदा करता है। विषय-कषाय हमें जलाने वाले हैं। यह हमारा पद नहीं है। यह 'पर' पद है। अपने पद में आओ। आज तक हम आस्त्रव में जीवित रहे हैं। निर्जरा कभी हमारा लक्ष्य नहीं रहा। इसलिये दुख उठाते रहे। जब तक हम भोगों का विमोचन नहीं करेंगे, उपास्य नहीं बन पायेंगे।
योग जीवन है, भोग मरण है। योग सिद्धत्व को प्रशस्त करने वाला है और भोग नरक की ओर ले जाने वाला है। आस्था जागृत करो। विश्वास/आस्था के अभाव में ही हम स्व-पद की ओर प्रयाण नहीं कर पाये हैं। त्याग के प्रति अपनी आस्था मजबूत करो ताकि शाश्वत सुख को प्राप्त कर सको ।