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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • प्रवचनामृत 4 - सुशीलता

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    'निरतिचार' शब्द बड़े माके का शब्द है। व्रत के पालने में यदि कोई गड़बड़ न हो तो आत्मा और मन पर एक ऐसी छाप पड़ती है कि खुद का तो निस्तार होता ही है, अन्य भी जो इस व्रत और व्रती के संपर्क में आ जाते हैं वे भी तिर जाते हैं।

     

    शील से अभिप्राय स्वभाव से है। स्वभाव की उपलब्धि के लिए निरतिचार व्रत का पालन करना ही शीलव्रतेष्वनतिचार कहलाता है। व्रत से अभिप्राय नियम, कानून अथवा अनुशासन से है। जिस जीवन में अनुशासन का अभाव है वह जीवन निर्बल है। निरतिचार व्रत पालन से एक अद्भुत बल की प्राप्ति जीवन में होती है। निरतिचार का मतलब ही यह है कि जीवन अस्तव्यस्त न हो, शान्त और सबल हो।

     

    रावण के विषय में यह विख्यात है कि वह दुराचारी था किन्तु वह अपने जीवन में एक प्रतिज्ञा में आबद्ध भी था। उसका व्रत था कि वह किसी नारी पर बलात्कार नहीं करेगा, उसकी इच्छा के विरुद्ध उसे नहीं भोगेगा और यही कारण था कि वह सीता का हरण तो कर लाया, किन्तु उनका शील भंग नहीं कर पाया। इसका कारण केवल उसका व्रत था, उसकी प्रतिज्ञा थी। यद्यपि यह सही है कि यदि वह सीताजी के साथ बलात्कार का प्रयास भी करता तो भस्मसात् हो जाता किन्तु उसकी प्रतिज्ञा ने उसे ऐसा करने से रोक लिया।

     

    ये ‘निरतिचार' शब्द बड़े मार्के का शब्द है। व्रत के पालन में यदि कोई गड़बड़ न हो तो आत्मा और मन पर एक ऐसी गहरी छाप पड़ती है कि खुद का तो निस्तार होता ही है, अन्य भी जो इस व्रत और व्रती के संपर्क में आ जाते हैं वे प्रभावित हुए बिना रह नहीं सकते। जैसे कस्तूरी को अपनी सुगन्ध के लिए किसी तरह की प्रतिज्ञा नहीं करनी पड़ती, उसकी सुगन्ध तो स्वत: चारों ओर व्याप्त हो जाती है। वैसी ही इस व्रत की महिमा है।

     

    'अतिचार' और 'अनाचार' में भी बड़ा अन्तर है। 'अतिचार' दोष है जो लगाया नहीं जाता, प्रमादवश लग जाता है, किन्तु अनाचार तो सम्पूर्ण व्रत को विनष्ट करने की क्रिया है। मुनिराज निरतिचार व्रत के पालन में पूर्ण सचेष्ट रहते हैं। जैसे कई चुंगी चौकियाँ पार कर गाड़ी यथास्थान पहुँच जाती है उसी प्रकार मुनिराज को भी बतीस अन्तराय टालकर निर्दोष आहार और अन्य उपकरण आदि ग्रहण करना पड़ते हैं।

     

    निरतिचार व्रत पालन की महिमा अद्भुत है। एक भिक्षुक था। झोली लेकर एक द्वार पर पहुँचा रोटी माँगने। रूखा जवाब मिलने पर भी नाराज नहीं हुआ बल्कि आगे चला गया। एक थानेदार को उस पर तरस आ गया और उसने उस भिक्षुक को रोटी देने के लिए बुलाया। पर भिक्षुक थोड़ा आगे जा चुका था। इसलिए उसने एक नौकर को रोटी देने भेज दिया। ‘मैं रिश्वत का अन्न नहीं खाता भइया!” ऐसा कहकर वह भिक्षुक आगे बढ़ गया। नौकर ने वापिस आकर थानेदार को भिक्षुक द्वारा कही गयी बात सुना दी और वे शब्द उस थानेदार के मन में गहरे उतर गये। उसने सदा-सदा के लिए रिश्वत लेना छोड़ दिया। भिक्षुक की प्रतिज्ञा ने, उसके निर्दोष व्रत ने थानेदार की जिंदगी सुधार दी। जो लोग गलत तरीके से रुपये कमाते हैं वे दान देने में अधिक उदारता दिखाते हैं। वे सोचते हैं कि इसी तरह थोड़ा धर्म इकट्ठा कर लिया जाय, किन्तु धर्म ऐसे नहीं मिलता। धर्म तो अपने श्रम से निदष रोटी कमा कर दान देने में ही है।

     

    अंग्रेजी में कहावत है कि मनुष्य केवल रोटी से नहीं जीता, उससे भी ऊँचा एक जीवन है जो व्रत साधना से उसे प्राप्त हो सकता है। आज हम मात्र शरीर के भरण-पोषण में लगे हैं। व्रत, नियम और अनुशासन के प्रति भी हमारी रुचि होनी चाहिए। अनुशासन विहीन व्यक्ति सबसे गया बीता व्यक्ति है। अरे भइया! तीर्थकर भी अपने जीवन में व्रतों का निर्दोष पालन करते हैं। हमें भी करना चाहिए!

     

    हमारे व्रत ऐसे हों, जो स्वयं को सुखकर हों और दूसरों को भी सुखकर हों। एक सज्जन जो संभवत: ब्राह्मण थे मुझसे कहने लगे-महाराज, आप बड़े निर्दयी हैं। देने वाले दाता का आप आहार नहीं लेते। तो मैंने उन्हें समझाया-भइया! देने वाले और लेने वाले दोनों व्यक्तियों के कर्म का क्षयोपशम होना चाहिए। दाता का तो दानान्तराय कर्म का क्षयोपशम होना आवश्यक है पर लेने वाले का भी भोगान्तराय कर्म का क्षयोपशम होना चाहिए। दाता लेने वाले के साथ जबर्दस्ती नहीं कर सकता क्योंकि लेने वाले के भी कुछ नियम, प्रतिज्ञायें होती हैं। जिन्हें पूरा करके ही वह आहार ग्रहण करता है।

     

    सारांश यही है कि सभी को कोई न कोई व्रत अवश्य लेना चाहिए, वे व्रत नियम बड़े मौलिक हैं। सभी यदि व्रत ग्रहण करके उनका निर्दोष पालन करते रहें, तो कोई कारण नहीं कि सभी कार्य सफलतापूर्वक सम्पन्न न हों।


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    सभी को कोई न कोई व्रत अवश्य लेना चाहिए, वे व्रत नियम बड़े मौलिक हैं। सभी यदि व्रत ग्रहण करके उनका निर्दोष पालन करते रहें, तो कोई कारण नहीं कि सभी कार्य सफलतापूर्वक सम्पन्न न हों।

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