ब्रह्मचर्य विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- धर्म की आराधना करते जाओ, उसकी सिद्धि करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वह किसी के देखने में नहीं आता।
- प्रभु ने सुना कि प्रभु की भक्ति ने सुना, भक्ति के माध्यम से प्रभु तक पहुँच जाते हैं। वह वस्त्र शील रक्षा के लिए शस्त्र का काम कर गये द्रौपदी के लिए।
- भक्ति में इतनी शक्ति थी कि उनको, साड़ी भेजना पड़ी।यहाँ शील है तो वहाँ साड़ी है। विज्ञान इस दिशा में नहीं पहुँच पावेगा।
- आज अनर्थ की जड़ टी.वी. है, जिसके माध्यम से संतान पतन की ओर बढ़ जावे उसे छोड़ने में क्या बाधा? टी.वी. से बुद्धि का नहीं वासना का विकास हो रहा है। जिसके माध्यम से शीलव्रत में कलंक लग रहा हो उसे घर में रखते ही क्यों हो ?
- शील व्रत की कथा पढ़ने की प्रथा रखनी चाहिए।
- शील की उपासना करने वालों को शील भंग के कारणों (टी.वी. आदि) का त्याग कर देना चाहिए।शील की रक्षा इसके बिना सम्भव नहीं है।
- टी.वी. के डिब्बे को अलग कर दो, वह शैतान का डिब्बा है, उसे देखने वाले भी शैतान हो जाते हैं। घर में जिससे अनेक प्रकार के तूफान उठते हैं, उन्हें बाहर निकालिये और मन की शुद्धि के लिए प्रथमानुयोग का स्वाध्याय करिये, माला फेरिये।
- वासना हमारे और भगवान के बीच में अभिशाप सिद्ध हो जाती है।
- जो पर में तत्पर रहता है वह परास्त हो जाता है।
- मैं अंदर से इतना स्वच्छ रहूँ ताकि कोई बाह्य का असर न पड़े, यह प्राकृतिक चिकित्सा है।शादी के बाद अन्य के प्रति माँ, बहिन का भाव आना भारतीय संस्कृति है। रावण ने भी व्रत लिया था हठात् किसी स्त्री को ग्रहण नहीं करूंगा।
- योग और उपयोग में इतनी शक्ति है कि अन्य की आवश्यकता ही नहीं मात्र दृढ़ विश्वास चाहिए।
- माँ को माँ बहिन को बहिन समझना यह उपयोग का ही वरदान है।
- कई व्यक्ति परिवार के बंधन में बंधे रहते हैं, यह योग/उपयोग की साधना है यह अन्यत्र भी करें, फिर सारा संसार परिवार नजर आने लगेगा।
- इमली का पेड़ बूढ़ा हो जाता है, पर उसकी खटाई बूढ़ी नहीं होती, यही दशा वासना की है।
- वस्तु स्वरूप समझ में आ जाता है तो फिर शरीर पर आवरण की बात ही नहीं रह जाती, दिगम्बरत्व प्राप्त हो जाता है |
- आत्मा का स्वरूप समझ में आ जाता है तो वस्त्र को स्वीकारना लज्जा जैसी लगती है।
- पर की अपेक्षा मोक्षमार्ग में नहीं होती, पर को स्वीकारना मोक्षमार्ग को सहनीय नहीं इसलिए मोक्षमार्गी को भी वस्त्र पहनना सहनीय नहीं है।
- मोक्षमार्गी पेट के लिए कुछ आहार लेता है, तब उसे लजा आती है, जल्दी-जल्दी चौके से बाहर निकलने के भाव रहते हैं, यह भी ग्रहण करना उसे सह्य नहीं होता। वस्त्र ग्रहण करना तो इष्ट है ही नहीं।
- अन्न के बिना जीवन चल नहीं सकता इसलिए अन्न को ग्रहण करना पड़ता है।
- वीतरागी को विष भी अमृतमय हो जाता है, वीतरागता के सामने राग नीचे बैठ जाता है।
- तात्विक दृष्टि आने के बाद भी यदि विषयों का जहर नहीं निकला तो समझना अभी तत्वज्ञान हृदयग्राही नहीं हुआ है।
- स्वभाव तो त्रैकालिक है उसका वर्णन नहीं किया जा सकता मात्र उसका अनुभव किया जा सकता है।
- तृष्णावान हमेशा भविष्य जानना चाहता है लेकिन भविष्य की बात करने वाला अंधकार में है, यह नहीं जानता।
- साधु की सेवा करने वाला श्रावक भी साधु का अनुचर (अणुव्रती) होता है, उसके पास भी वासना सीमा होती है (स्वदारसंतोष व्रत होता है) उसका वह उल्लंघन नहीं करता।
- भारतीय आचार-संहिता पढ़ने से ज्ञात होता है, श्रावक धर्म रागमय है पर उसकी दृष्टि हमेशा वीतरागता की ओर रही है।
- श्रावक तीनों संध्याओं में शुद्धोपयोगी मुनिराज के जीवनचर्या के बारे में चिन्तन करता रहता है।
- श्रमण साधु जन स्वयं शोध करते हैं लेकिन श्रावक सहयोगी पति-पत्नि के साथ एक दूसरे की कमजोरी को दूर करते रहते हैं, एक दूसरे का निर्देशन तब तक नहीं छोड़ते जब तक थीसिस पूर्ण न हो जाये। जब तक घर में है, तब तक साथ है, वैराग्य हो गया (थीसिस पूर्ण) बस चल दिये संन्यास की ओर।
- धर्म परम्परा को संचालित करने के लिए स्वदारसंतोष व्रत लिया जाता है। एक के अलावा अनंत का विकल्प हट जाता है, अनंत वासना चुल्लु भर रह जाती है।
- वासना के लिए विवाह नहीं होता बल्कि संस्कारित संतान के लिए, धर्म परम्परा चलाने के लिए विवाह होता है।
- मुनिराज या भगवान ऊपर से नहीं आते बल्कि उन्हीं आदर्श गृहस्थ के यहाँ उत्पन्न संस्कारित शिशु हुआ करते हैं, वे ही महाराज व भगवान बनते हैं।
- भारतीय संस्कृति में चार आश्रम होते हैं-श्रावक गृहस्थाश्रम वासी है।
- आप लोग भी पूर्वजों के पद चिह्नों पर ही चलिए अपना नया रास्ता मत बनाइए।
- श्रावक धर्म में कमी आ गयी तो, श्रमण धर्म नहीं रह सकता |
- रेल में श्रावक पीछे गार्ड बाबू जैसा है ड्रायवर (साधु) इसके बिना गाड़ी आगे नहीं बढ़ा सकता।
- स्वदारसंतोष व्रत को कुशील नहीं कहा सुशील कहा है। ब्रह्मचर्य व्रत कहा है। (स्वदार संतोष व्रत का अर्थ है-अपनी स्त्री में ही संतुष्ट रहना)।
- आप लोग नाप-तौल छोड़कर अपना कर्तव्य पूरा करें, दहेज से संघर्ष शुरू हो जाते हैं और धार्मिक संस्कार समाप्त हो जाते हैं। गर्भपात अधर्म कर्म है, निकृष्ट कर्म है, अन्याय है।
- काम पुरुषार्थ के द्वारा प्राप्त फल को नष्ट करना ठीक नहीं।
- दीनहीन व्यक्तियों के माध्यम से धर्म नहीं चलता क्योंकि यह क्षत्रियों का धर्म है।
- पुरुषार्थ के माध्यम से धन कमाओ। पैसों से घर नहीं चलने वाला बल्कि संस्कारों से घर चलेगा।
- दान, पूजा, शील एवं उपवास ये चार धर्म श्रावक के लिए बताये हैं। शील का अर्थ स्वभाव होता है, ब्रह्मचर्य होता है।
- जब तक श्रावक ब्रह्मचर्य के साथ रहता है, तब तक उसे घर गृहस्थी का दोष (पाप) नहीं लगता।
Edited by संयम स्वर्ण महोत्सव