उपगूहन अंग विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- जो धर्म पालन में असमर्थ हैं और जिनके निमित्त से धर्म की अप्रभावना हो रही है, उनके दोषों को ढ़कना या उनका निराकरण करना उपगूहन अंग है।
- उपगूहन अंग वाला इस बात को अच्छी तरह से जानता है कि धर्मात्मा की निंदा सो धर्म की ही निंदा है।
- उपगूहन का अर्थ दूसरों के दोषों का समर्थन करना नहीं है, बल्कि धर्म की अप्रभावना से बचाकर दूसरे के दोषों का निराकरण करना है।
- दूसरों के दोषों को ढ़कने से अपना सम्यक दर्शन शुद्ध (दृढ़) होता है।
- दूसरे के दोष ढ़कने से दूसरे को क्या मिलेगा, उसे कुछ मिले या न मिले लेकिन अपने गुणों का तो विकास होता ही है।
- दूसरे के दोषों को ढ़कना यानि अपने गुणों को विकसित करना है।
- यदि उपगूहन अंग का पालन करने से हमारे गुणों में वृद्धि होती है तो आत्म-हितैषी को इसका पालन अच्छी तरह से करना चाहिए।
- जो निरंजन आत्मा को ढ़कने वाले राग-द्वेष मिथ्यात्व रूप परिणाम है उनको नष्ट करना निश्चिय उपगूहन अंग है।
- अपनी आत्मा में जो दुर्भाव उत्पन्न हो रहे हैं, उन्हें उत्पन्न न होने देने करने का प्रयास करना स्वयं का उपगूहन करना है।
- व्यवहार उपगूहन अंग श्रावकों की अपेक्षा से है और निश्चय उपगूहन अंग मुनियों के लिए है।
- उपगूहन अंग में जिनेन्द्र भक्त सेठ प्रसिद्ध हुए।