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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • आकिंचन्य

       (1 review)

    आकिंचन्य विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी  के विचार

     

    1. जब हम अकेले हो जावेंगे तो दुनिया अपने आप अपनी हो जावेगी।
    2. मन जितना हल्का होगा तो परिग्रह छोड़ने से ही होगा।
    3. धन, लक्ष्मी आत्मा की आराधना में बाधक हैं, शरीर भी बिगड़ जाता है। जितने भी दुख, संक्लेश परिणाम होते हैं, उसका मूल कारण संयोग है। लक्ष्मी (धन परिग्रह) रखते हो तो रौद्रध्यान (संरक्षणानंद) से नहीं बच सकते हो।
    4. भय संज्ञा के योग्य जो पदार्थ अपने पास रखता है, उसका अकाल मरण हो सकता है। हृदयगति हमारे भावों पर चलती है, यह बीमारी नहीं है भय है, कषाय है।
    5. जो भय से मुक्त होना चाहता हो, निशंक ध्यान करना चाहता हो, उसे परिग्रह रहित होना अनिवार्य है। भार छोड़ने से मन लगेगा वरना नहीं।
    6. जिसके पास कषाय अधिक होती है, प्राय: उसी को असाध्य रोग होते हैं।
    7. प्रशस्त मन को दवाई की आवश्यकता नहीं। हम स्वयं स्वास्थ्य के निर्माता हैं यहाँ पर शारीरिक, मानसिक दोनों चिकित्सा होती है।
    8. जिससे विकल्प हो रहा हो, उसे छोड़ दो।
    9. तिलतुष्मात्र भी मेरा नहीं है यह दुकान, घर में बैठकर सोचो तब सब छूट जावेगा मात्र ग्रन्थ में पढ़ने से नहीं।
    10. ताला लगाना रौद्र-ध्यान का प्रतीक है। ताले से रौद्र-ध्यान का अनुपात ज्ञात होता है। रौद्रध्यान को कम करोगे तो ऊध्र्वगमन स्वभाव की ओर बढ़ते जाओगे।
    11. अध्यात्म में जिनका जितना अधिक परिग्रह कम होगा वे उतने ही बड़े माने जावेंगे। श्रमण शरीर की रक्षा करते हैं लेकिन वह परिग्रह के अंतर्गत नहीं आता। वे मठाधीश बने बिना चातुर्मास स्थापना करते हैं।
    12. मात्र आत्मतत्व ही हमारा है उसी की रक्षा, व्यवस्था में लगे रहो।
    13. स्थान के प्रति मोह भाव परिग्रह का रूप धारण कर लेता है। आप पद की नहीं रत्नत्रय से विभूषित पद के धनी बनें।
    14. परिग्रह से रहित आत्मा उर्ध्वगामी होती है। 
    15. आकिञ्चन रूप घी को, छटॉक भर घी को, नीचे डाल दो और पचास किलो दूध डाल दो फिर भी वह ऊपर आ जावेगा।
    16. आकिञ्चन वही है जो किसी में नहीं मिलता। किसी से मिल तो सकता है, पर किसी में मिलता नहीं। क्योंकि स्वभाव का यह स्वभाव है कि स्वभाव किसी में मिलता नहीं।
    17.  आकिञ्चन धर्म का जो मौलिक महत्व समझते हैं, वे ही इसे स्वीकारते हैं।
    18. वैष्णव धर्म में इसे दारिद्र व्रत कहा है।
    19. जोड़ने वाला नहीं खाली करने वाला बड़भागी/सौभाग्यशाली होता है।
    20. मोह गले तो आकिञ्चन प्राप्त हो ।
    21. इस शरीर रूपी जेल से छूटने के लिए आकिञ्चन धर्म को स्वीकारा जाता है।
    22. इस मौलिक पदार्थ के सामने सारे पदार्थ कौड़ी के मोल दिखते हैं।
    23. यदि जीव बाह्य से भी आकिञ्चन धारण कर लेते हैं, भले अंदर के कर्म नहीं छूट पाते तो भी वे स्वर्ग में अंतिम ग्रैवेयक तक जा सकता है और कोई उपाय से नहीं जा सकते।
    24. पर को हाथ में मत रखो फेंक दो वरना ताली नहीं बजा पाओगे।
    25. पर द्रव्य का आश्रय जितना कम करोगे उतने स्वस्थ्य होते जाओगे। आवश्यकता से बाहर कोई भी कार्य करना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।
    26. पानी का अंश होने से दूध की आरती नहीं बनती बल्कि अग्नि परीक्षा के बाद घी से आरती बनती है।
    27. घी में चेहरा दिखता है वैसे ही आकिञ्चन होने पर ही वस्तु स्वरूप झलकता है।
    28. तीन लोक में एकत्व ही मात्र दुर्लभ वस्तु है, इसे जो स्वीकार करता है उसे निर्वाण की प्राप्ति होती है।
    29. मुक्ति उन्हीं को मिलती है, जिसके पास कुछ नहीं होता। अकेले का महत्व अलग ही होता है, यह तृष्णा की रेखा तो विश्ववन की व्याली (सर्पिणी) है।
    30. जिस दिन आचरण में आकिञ्चन धर्म आ गया समझो वह अभूतपूर्व घटना होगी। 
    31. अध्यात्म के शरीर में ममत्व को भी परिग्रह कहा है। प्रतिभासम्पन्न वही होता है जो दूसरे पर आधारित नहीं होता।
    32. आकिञ्चन ही प्रारम्भ दशा है और अंतिम दशा है, बीच में तो यह नाटक अज्ञान दशा का है।

    33. यह जीव वस्तु स्वरूप के अभाव में विश्व की मूर्च्छा के पीछे भागता रहता है।

    34. तीन लोक की सम्पदा आपदा है, विपति का घर है। बाहुबली अकेले ही जंगल में खड़े हो गये। उन्होंने सोचा जिस सम्पदा को लेकर भाईचारा समाप्त हो गया, प्रजा का मैत्रीभाव चला गया धिक्कार है इसे। मुझे राज्य मार्ग नहीं चाहिए और महाराज मार्ग की ओर बढ़ गये। संख्या में १ को राम कहते हैं, राम मतलब एक अकेला। अंत में तो राम नाम सत्य है।

    35. यह प्राणी परिग्रह (मूच्छा) के लिए सात-समुंदर पार कर जाता है। चक्रवर्ती एक आम के पीछे पागल हो जाता है, अपने पद को भूल जाता है।

    36. एक बार आकिञ्चन बनकर देख लो तीन लोक के नाथ बन जाओगे।

    37. त्याग के बाद आकिञ्चन क्यों ? क्योंकि योग्य का भी त्याग करना है।


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    Samprada Jain

      

    यदि जीव बाह्य से भी आकिञ्चन धारण कर लेते हैं, भले अंदर के कर्म नहीं छूट पाते तो भी वे स्वर्ग में अंतिम ग्रैवेयक तक जा सकता है और कोई उपाय से नहीं जा सकते।

     

    परिग्रह से रहित आत्मा उर्ध्वगामी होती है। 

     

    प्रतिभासम्पन्न वही होता है जो दूसरे पर आधारित नहीं होता।

     

    पर द्रव्य का आश्रय जितना कम करोगे उतने स्वस्थ्य होते जाओगे।

     

    स्थान के प्रति मोह भाव परिग्रह का रूप धारण कर लेता है।

     

    जिससे विकल्प हो रहा हो, उसे छोड़ दो।

     

    ~~~ उत्तम आकिंचन धर्म की जय!

    ~~~ णमो आइरियाणं।

     

    ~~~ जय जिनेंद्र, उत्तम क्षमा!

    ~~~ जय भारत!

    2018 Sept. 22 Sat. 13:20 @ J

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