निर्विचिकित्सा अंग विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- प्रतिकार करना अपने आप में हिंसा है, चिकित्सा का अर्थ प्रतिकार होता है, स्वयं के रोग के प्रति चिकित्सा ग्लानि के रूप में आती है। सम्यक दृष्टि में निर्विचिकित्सा अंग होता है।
- सम्यक दर्शन निर्विचिकित्सा अंग के अभाव में नाक रहित मुख के समान है।
- जो रत्नत्रय से पवित्र हैं, उनके मलिन शरीर को देखकर ग्लानि न करते हुए यथायोग्य सेवा, वैय्यावृत्ति करना निर्विचिकित्सा नाम का गुण कहलाता है।
- निर्विचिकित्सा का अर्थ है-गुणों के प्रति प्रीति होना या ग्लानि रहित होना।
- शरीर गौण होगा और गुण दृष्टि में प्रधान होंगे तभी निर्विचिकित्सा अंग का प्रादुर्भाव होगा। सम्यक दृष्टि की दृष्टि में शरीर की मलिनता नहीं बल्कि रत्नत्रय की पवित्रता आती है।
- निर्विचिकित्सा अंग वाले का श्रद्धान रहता है कि सुगंध-दुर्गंध तो पुदगल की पर्यायें हैं, इससे आत्मा का कोई सम्बन्ध नहीं है।
- बाहुबली व भीमसेन ने पूर्वभव में निर्विचिकित्सा अंग का पालन करते हुए मुनिराजों की वैय्यावृत्ति की थी उसके फलस्वरूप ऐसा शरीर पाया था कि अस्त्र-शस्त्र और विष भी प्रभावहीन हो गये।
- रत्नत्रय की आराधना करने वाले जो भव्य जीव हैं, उनके शरीर की आकृति व शरीर से आने वाली दुर्गध को न देखते हुए धर्म बुद्धि से उनकी यथायोग्य चिकित्सा करना निर्विचिकित्सा गुण कहलाता है।
- शरीर के (पदार्थ) अनेक गुण धर्म हुआ करते हैं, उन सभी धर्मों के प्रति ग्लानि का न होना निश्चय निर्विचिकित्सा अंग है।
- जैनधर्म में सब बातें अच्छी हैं, लेकिन नग्नपना ठीक नहीं है, ऐसा किसी के मन में भाव आने पर ज्ञान के बल से दूर करना निर्विचिकित्सा कहलाती है।
- मोक्षमार्ग पर आने के बाद केशलौंच न करना पड़ें, दूसरे के यहाँ भोजन करना न जाना पड़े,ऐसे भावों का न होना निर्विचिकित्सा अंग है।
- ग्लानि करने वाला कभी रोगी का इलाज नहीं कर सकता।
- ग्लानि जीते बिना वैय्यावृत्ति नहीं की जा सकती।
- समस्त राग-द्वेष आदि विकल्प रूप तरंग समूह का त्याग करके निर्मल आत्मानुभव लक्षण निज शुद्ध स्वरूप आत्मा में स्थिति करना निश्चयनय से निर्विचिकित्सा गुण कहा है।
- निर्विचिकित्सा अंग में उद्यायन राजा व रुक्मणी रानी प्रसिद्ध है।
Edited by संयम स्वर्ण महोत्सव