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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • तप

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    तप विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी  के विचार

     

    1. तप कर्मों के क्षय के लिए/किए जाते हैं ख्याति-लाभ पूजा में लिए नहीं।
    2. तपों के उद्देश्यों के बारे में सोचते हैं तो ज्ञात होता है कि साधना का फल अलौकिक होता है।
    3. इच्छा निरोध: तपः।इच्छा पर वस्तु की होती है, इच्छा निरोध होते ही निर्जरा प्रारम्भ हो जाती है।
    4. इच्छा मन का ही नाम है, उसी का निरोध करना तप कहा है।
    5. प्रभाकर (सूर्य) जब तक धरती को नहीं तपाता तब तक वर्षा नहीं होती।
    6. नौ दिन तपते हैं तपा, बीच में न चूयें तो अच्छा पानी गिरता है। आप भी जब तक मुक्ति नहीं पाओगे तब तक १२ तप तपने ही होंगे, तभी शांति उपलब्ध होगी।
    7. तपस्या कठिन-सी लगती है, लेकिन जिसे इसका फल एवं इस पर श्रद्धान रहता है वह कभी कठिन नहीं मानता।
    8. २८ मूलगुणों को तप नहीं कहा वे तपा के पूर्व के दिन है, तप तो १२ होते हैं। इस हीन संहनन के साथ आज जो अंतर्मुहुर्त साधना कर लेता है तो उस काल से कई गुणी मानी जाती है। आज रेत के ढेर में एक हीरे की कणिका की भाँति यह तप दुर्लभ है।
    9. मूल्यहीन मिट्टी में घड़ा बनने की क्षमता तप के कारण ही उद्धाटित हुई है।
    10. तपस्वियों के चरणों में जाओ यदि संसार सागर से पार होना चाहते हो तो, क्योंकि वे जहाज हैं संसार सागर से पार लगाने में।
    11. तप साधना के माध्यम से उत्कृष्ट अवस्था का अनुभव किया जा सकता है।
    12. जिस प्रकार अग्नि के माध्यम से पाषाण में से स्वर्ण पृथक् किया जाता है वैसे ही हम तप रूपी अग्नि के माध्यम से शरीर से आत्मा को पृथक् कर सकते हैं।
    13. तप रूपी अग्नि से शरीर नहीं जलता बल्कि कर्म वर्गणायें जलने लगती हैं।
    14. ज्ञानावरणादि आठ कर्मों को जलाने के लिए भिन्न-भिन्न तप रूपी भट्टियाँ (अग्नि) हैं।
    15. तप कर्मों को नष्ट कर देता है और रागद्वेष, क्रोध तप को नष्ट कर देते हैं। जैसे दवाईयाँ रोग को ठीक भी करती हैं और अनुपात गड़बड़ाने से प्रतिक्रिया (रिऐक्शन) भी करती हैं।
    16. इच्छाओं के माध्यम से स्व एवं पर को नष्ट भी किया जा सकता है, लेकिन तप के द्वारा स्व पर का कल्याण भी किया जा सकता है, इसलिए कहा है इच्छा निरोध: तप:।
    17. तप में जोखिम बहुत है, यदि उस समय हमारी दृष्टि साधना की रहती है तो ठीक है वरना तप स्वयं को भी हानिकारक हो सकता है। अपना ही शस्त्र अपने को ही घातक सिद्ध हो सकता है।
    18. वीतराग दृष्टि समाप्त हो जाने पर तप जल जाता है।
    19. जलाने वाला भी बुझ सकता है। जिस प्रकार अग्नि भगोनी में रखे दूध को तपा/जला रही है लेकिन असावधानी से यदि भगोनी लुढ़क गयी तो वही दूध/पानी अग्नि को भी बुझा देगा।
    20. संसार में आत्मा को कंचन का रूप यदि कोई दे सकता है तो वह है तप रूपी अग्नि।
    21. तप, ध्यान करने के लिए पहले भूमिका चाहिए। चार संज्ञाओं से ऊपर उठना, पंच पापों का त्याग करना, मन और इंद्रियों को जीतना, समता रखना, फिर ध्यान लगेगा।
    22. तप करते समय लक्ष्य ध्रुव की ओर ही होना चाहिए वरन् दिशा बदलने से दशा ही बदल जाती है। मंत्रसिद्धि वालों को मैंने देखा है दिशा बदलने से उनकी दशा ही गड़बड़ा जाती है।
    23. तप को अनुपात से करना चाहिए एवं उसका दुरुपयोग नहीं करना चाहिए।
    24. इंद्रिय और मन के उद्रेक को हटाने की अपेक्षा से तप करिये शरीर को नष्ट करने के लिए नहीं।
    25. शक्ति के साथ-साथ युक्ति से तप करना चाहिए, तभी मुक्ति का लाभ होता है।
    26. तप के माध्यम से मन पर क्या प्रभाव पड़ रहा है ? यह भी देखना चाहिए। मन का उद्रेक कम हुआ कि नहीं, कषायों में मंदता आयी है कि नहीं, कर्म ढीले हुए हैं कि नहीं।
    27. प्रारम्भ में अग्नि सुलगाते समय थोड़ी-सी हवा की फूँक दी जाती है और जब अग्नि सुलगने लगती है तो उसे (सिगड़ी को) खुली हवा में रख देते हैं, ठीक यही प्रक्रिया तप करने की है।
    28. जलते हुए स्टोव में बर्नर में कचरा आने पर अग्नि गड़बड़ा जाती है उसी प्रकार तप करते समय प्रलोभनादि कचरा मन में आ जाता है तो तप गड़बड़ में आ जाता है।
    29. इच्छा का निरोध करना कठिन है, बंधुओं यही कार्य करने योग्य है और इस भव में यही करना है, इच्छा करना तो बहुत आसान है।
    30. तप करते समय (विकृती न होवे) तन और मन विकृत न हो यह ध्यान रखना चाहिए, तभी तप करना सार्थक होगा।

    Edited by संयम स्वर्ण महोत्सव


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