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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • शौच

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    शौच विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी  के विचार

     

     

    1. संतोष अमृत है, तृष्णा विष है।
    2. आवश्यक है अमृत और विष की पहचान करके विष के त्याग करने की।
    3. दूसरे को कितना मिल रहा है, यह मत देखो। तुम्हें कितना मिल रहा है उसे लेकर संतोष धारण करो।
    4. लोभी व्यक्ति धर्म को भी खा जाता है, धर्म के साथ खाओ पर धर्म का मत खाओ। निर्माल्य द्रव्य का भक्षण मत करो, इस महान् पाप से बचो।
    5. मन, वचन काय की शुचिता के लिए खानपान की शुचिता अनिवार्य है।
    6. पवित्र भाव के द्वारा ही अशुद्ध द्रव्य पूर्णत: शुद्ध हो सकता है।
    7. शुद्ध हुए बिना अनगढ़ पत्थर की कोई कीमत नहीं। चारित्र रूपी शान के ऊपर चढ़ता है तो ज्ञान रूपी अनगढ़ पत्थर गले का हार बन जाता है।
    8. धर्म का लोभ जिसे होगा वही निर्लोभी होगा।
    9. शौचधर्म वह धर्म है, जिसमें शरीर को गौण किया जाता है।
    10. लोभ से चिपकने वाले के मन में अशुद्धि रहती है। लोभ हमेशा असंतुलन की ओर ले जाता है।
    11. लोभ को जिसने सुधारा नहीं, छोड़ा नहीं समझो उसने धर्म करना शुरू ही नहीं किया।
    12. शौच धर्म का अर्थ ही है अपरिग्रह के साथ मन को प्रसन्न बनाना।
    13. जो दीवाल मिट्टी की हो वह साफ नहीं हो सकती, उसी प्रकार यह शरीर है।
    14. मेरे अंदर अशुचिता है, ऐसा जो स्वीकारता है, वही शौच धर्म अंगीकार करता है। जो पहले से अपने आप को शुद्ध मानता है, वह कैसे स्वीकारेगा ?
    15. सही सोला तो अॉप्रेशन थियेटर में रहता है।
    16. बहुमूल्य शक्ति अनगढ़ पत्थर में रहती है। अनगढ़ को शुद्ध कहोगे तो खदान में और जौहरी बाजार में कोई अंतर नहीं ?
    17. जीना है तो चढ़ो, संयम के जीना पर बिना स्नान के चढ़ना है। यहाँ शारीरिक शुचिता गौण हो जाती है आत्मिक शुचिता मुख्य हो जाती है। (जीना=सीढ़ी)
    18. तप, संयम की शुद्धि के बाद बाह्य शुद्धि की आवश्यकता नहीं पड़ती।
    19. लोभ का त्याग करने पर ही शौच धर्म सकता है।
    20. लोभ पाप का बाप बखाना जाने क्या-क्या खाना। लोभी, गेहूँ के साथ-साथ भूसा भी खा लेता है।
    21. श्मशान में भी मुनि शुचि धर्म की आराधना करते हैं।
    22. मन से शुद्ध, लोभ रहित को नमोऽस्तु- निर्लोभी को कोई शोर/सूतक नहीं लगते।
    23. जिनका मन पवित्र होता है उनके सामने हमारे लोभ भी भय खाते हैं।
    24. संसार में परिग्रह का जाल हमेशा-हमेशा भटकाता रहता है।
    25. हम अनादिकाल से बाह्य की सफाई करते रहें लेकिन अंदर कभी दृष्टि ही नहीं डाली।
    26. दीवाल बाहर से पोत दी भीतर तो धूल ही धूल है।
    27. सम्यक दर्शन और परिग्रह दोनों का सर्प-नेवला जैसा बैर है। सम्यक दर्शन प्राप्त करना सरल नहीं है, उसके लिए अनंतानुबंधी लोभ का त्याग करना अनिवार्य है। सम्यक दर्शन की प्राप्ति के बाद दूरी भले हो पर मुख मंजिल की ओर होता है।
    28. तिर्यच अपने पास लाकर कुछ नहीं रखते, संग्रह वृत्ति मनुष्य के पास ही जबरदस्त होती है।
    29. दूसरे को कुछ नहीं देना अपने सम्बन्धी को ही देना यह भी लोभवृत्ति है।
    30. जो अपना नहीं है, उसे दिन डूबने से पहले छोड़ दो, वरना खुद डूब जाओगे संसार समुद्र में।
    31. पक्षपात की जड़ लोभ है।
    32. बाह्य अशुचिता सागर के जल से भी धोओ तो कोई महत्व नहीं, भीतरी शुचिता के अभाव में। भीतरी शुचिता के लिए एक भी बार प्रयास नहीं किया, भीतर क्या हो रहा है जरा सोचो ?
    33. अपने घर की सफाई की जाती है बाहर सड़क की नहीं।
    34. आत्मा को मांजने का विकल्प आज तक नहीं किया, सोचो कैसा विकृत हो रहा होगा।
    35. आप बिना स्नान भोजन नहीं करते और मुनिराज लोग इतने व्यस्त हो जाते हैं भीतरी सफाई करने में कि बाहरी सफाई के लिए विकल्प ही नहीं उठता।
    36. यदि हमारा अंदर की सफाई के लिए एक बार भी हाथ नहीं उठता, उस ओर कदम नहीं बढ़ता तो मानना होगा कि हम अंतर्जगत से अपरिचित हैं।
    37. चश्मे के काँच पर धूल जमी हो तो वस्तु स्पष्ट दिखाई नहीं देती। इसी प्रकार आत्मा के ऊपर पड़ी कर्म रूपी धूल को नहीं हटाओगे तो आत्म तत्व के दर्शन नहीं हो सकते।
    38. यदि जल से शुचिता प्राप्त होती तो मछली और मेंढ़क तो उसी पानी में ही रहते हैं अभी तक तो वे शौच धर्म को प्राप्त कर चुके होते।
    39. आभ्यन्तर तप प्रायश्चित्त  से प्रारम्भ होता है, जिससे उपयोग के मन की शुद्धि प्राप्त होती है।
    40. बर्तन को तपाकर उसके भीतरी स्थान को साफ-सुथरा करते हैं, वैसे ही भीतरी शुचिता के लिए आचार्यों ने बारह तप रखे हैं। जिसके माध्यम से जो भीतर लोभ बैठा है, वह बाहर निकल जाता है।
    41. कथंचित लोभ ठीक है, कथचित् नहीं। साधु संगति का लोभ, रत्नत्रय का लोभ, भगवान् के भजन का लोभ अच्छा है। धन का, पद का लोभ अच्छा नहीं है।
    42. लोभ छोड़ो नहीं उसका परिवर्तन कर दो  (पाप की जगह पुण्य में)
    43. कुछ लोगों को भोजन करने का लोभ होता है तो कुछ लोगों को भोजन कराने का लोभ रहता है।
    44. आहार देने का लोभ यह बहुत बड़ा लोभ है वह आगे का प्रबंध कर रहा है।
    45. धार्मिक कार्यों में, अनुष्ठान में लोभ हो जावे तो इससे बढ़कर कोई दूसरी प्रभावना नहीं है।
    46. पवित्र भावना के माध्यम से धर्म की सुगंधी दूर-दूर तक फैल जाती है।
    47. आत्मा के ऊपर ऐसे संस्कार डालते जाओ जिससे लोभ अच्छे क्षेत्र में वृद्धिगत होता जावे। डॉ. को, वैद्य को पैसे का नहीं सेवा का लोभ होना चाहिए।
    48. यदि पर की सेवा नहीं कर सकते तो अपनी सेवा तो करो।
    49. यदि आपको अपने स्वयं के बारे में जानकारी हो गयी है तो क्या छोड़ना है ? क्या मांजना है ? उसे प्रारम्भ करिये
    50. दुनिया अनावश्यकता के कारण दुखी है और इसका कहीं स्टॉप (अन्त) ही नहीं।
    51. पेट अंदर साफ नहीं है और भोजन डाल लिया तो डकार में खट्टापन आवेगा ही।
    52. लोभ ही लोभ करते-करते जब कभी आत्मा की बात करते हैं, तब ऊँवासी (नींद) आने लगती है।
    53. हमें दुनियाँ का लोभ एवं धर्म में लोभ कितना है, विचार करो।
    54. हमारा धर्म के प्रति लोभ बढ़ जाये यही सबसे बड़ा शौचधर्म होगा। ये लोभ सही दिशा में होना चाहिए सेवा का लोभ, वैय्यावृत्ति का लोभादि।
    55. क्षयोपशम पढ़ने-पढ़ाने से नहीं बढ़ता बल्कि जितना मोह का अभाव होता जाता है उतना ही क्षयोपशम बढ़ता जाता है।
    56. हमें खोजना नहीं, खोदना है। संसार में धर्म खोजने से भागने से नहीं मिलेगा बल्कि रुकने से अपने अंदर खोदने से मिलेगा। पानी खोदने से मिलेगा भटकने से नहीं।
    57. आत्मा के लोभी को, आत्म-संतोषी को संसार के बाहरी प्रलोभन कभी लुभा नहीं सकते।
    58. दूसरे की वस्तु की माँग करना ही अपने धर्म को, स्वाभिमान को खोना है।
    59. अपनी आत्मा में ही सब कुछ है, यह श्रद्धान होने पर फिर आत्मा में ही खोदने का लोभ जावेगा और आत्म धन जो अंदर खदान है उससे प्राप्त कर लेगा।
    60. आत्म भान, वस्तु स्वरूप का ज्ञान होने पर शुचिता क्या वस्तु है, यह ज्ञात हो जाता है। जैसे आप बिना कहे स्नान कर लेते ही वैसे ही बिना कहे कषायों को धोने का कार्य भी करना चाहिए। भीतरी स्नान का हमेशा ध्यान रखना चाहिए।
    61. आप लोगों का लोभ ऐसा है कि एक हाथ से दान देते हो और दूसरे हाथ को आगे फैला देते हो कि इसका फल मिलेगा या नहीं। जो देता है, वह देखता नहीं जो देखता है वह देता नहीं। लोभ मंद हुआ है कि नहीं यह देखो, लोभ नहीं हो रहा है तो समझना मंथन अच्छा चल रहा है।
    62. लोभ के अत्यन्त अभाव में ही शौच धर्म प्राप्त हो जाता है।
    63. आप लोगों ने मन में ऐसे संस्कार डाल रक्खे हैं कि अनावश्यक का भी लोभ कर जाते हो।
    64. अनावश्यक के प्रति झुकाव होना ही तो लोभ है।
    65. संसारी प्राणी लोभ के कारण पर के (बच्चों आदि में) बारे में सोच रहा है अपने बारे में नहीं।
    66. लोभी प्राणी को अंत समय पश्चात्ताप ही हाथ लगता है।
    67. पुरुषार्थ स्वयं अपने क्षेत्र में कर सकते हैं यही मात्र नियति है, पर के क्षेत्र में लगना लोभ है।
    68. हाथ डालकर बर्तन साफ करिये आत्मतत्व रूपी दही को विकृत मत करिये।
    69. जो कर्म कालिमा अनादिकाल से जमी है उसकी थोड़ी-थोड़ी सफाई करते जाओ।
    70. वैभव मिलने पर लोभ बसने लगता है।
    71. पाई-पाई के लिए भाई ने भाई को नहीं छोड़ा, चक्रवर्ती ने अपने भाई पर चक्र चलाया।
    72. संतोष के बिना संयम प्राप्त नहीं हो सकता। संतोष संयम के पूर्व की भूमिका है और लोभ, संयम मार्ग का खतरनाक शत्रु है।
    73. मन पवित्र हो तो शरीर पवित्र हो ही जाता है, देव भी उस वीतराग रूप को देखने जमीन पर उतर आते हैं।
    74. ऊपरी साफ-सफाई आत्मानुभूति का कारण नहीं बन सकती बल्कि जो आत्मा पर कषाय रूपी गंदगी जमी हुई है, उसे साफ करने से आत्म लाभ होता है।
    75. रूप का मद देव और मनुष्यों को सताता रहता है।

    Edited by संयम स्वर्ण महोत्सव


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