गुरु आज्ञा से साधना में लीन - 88 वां स्वर्णिम संस्मरण
जैसे गुरु ज्ञानसागर जी महाराज अपने नियम के पक्केऔर अनुशासन के पक्के थे। ऐसे ही उनके शिष्य मुनि विद्यासागर जी भी बन गए थे। हमने कई बार मुनि विद्यासागर जी को आतेड़ की छतरियों में घंटो घंटो सामायिक करते सुना और देखा है।आतेड़ की छतरियां उस समय शहर से चार पांच किलो मीटर दूर जंगल में पहाड़ियों से घिरी हुई थी। एक दो बार गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज ने मेरे पतिदेव (पदमचंद जी पाटनी) को कहा-विद्यासागर को शीघ्र बुलाकर लाओ। तो विद्यासागर जी छतरियों की ओर से आते हुए मिलते थे उनको बोला- गुरु महाराज ने आपको बुलाने के लिए कहा था। तो मुनि विद्यासागर जी बोले- मैं तो समय पर पहुंच जाता हूं, आप लोग ढूंढा मत करो, मैं गुरु जी से अनुमति लेकर ही तो जाता हूं।आने के बाद मेरे पति देव ने गुरु महाराज को निवेदन किया कि विद्यासागर जी महाराज का कहना था-कि मैं तो समय पर पहुंच जाता हूं आप लोग ढूंढा मत करो। मैं गुरु जी से अनुमति लेकर ही तो जाता हूं। तब गुरु ज्ञानसागर जी महाराज बोले- आप लोगों को कैसे पता चलेगा, विद्यासागर कैसी साधना कर रहे हैं उनको देखोगे तभी तो पता चलेगा इसलिए मैं बोल देता हूं।
इस तरह मुनि विद्यासागर जी की दीक्षा के बाद गुरु ज्ञान सागर जी महाराज के द्वारा नित्य प्रति समयसार ग्रंथ का स्वाध्याय करने से भाव विशुद्धि बढ़ गई। तथा भाव लिंगी साधु की सच्ची साधना में लीन हो गए और उनकी एकांत साधना की रुचि बता रही थी कि- "वो जैसे परम पूज्य आचार्य कुंदकुंद स्वामी के द्वारा बताई गई शुद्धोपयोग दशा को अनुभूत करना चाह रहे हो।" उस उत्कृष्ट भावदशा को नमन करता हुआ......
अन्तर्यात्री महापुरुष पुस्तक से साभार
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