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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • संयम

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    संयम विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी  के विचार

     

    1. संयम शरीर के बिना गाड़ी आगे नहीं जा सकती इसलिए औदारिक शरीर का बड़ा महत्व है, चूँकि औदारिक शरीर के बिना "संयम का दर्शन नहीं हो सकता”। औदारिक शरीर छूटते ही असंयम में (देवगति) जाना पड़ता है, इसलिए शरीर की एकदम उपेक्षा करने से पाप का/ असंयम का समर्थन हो जाता है।
    2. रोग होने पर औषधि न ली जायेगी तो शरीर जल्दी छूट जायेगा तो कहाँ जाओगे, स्वर्ग में। वहाँ क्या है ? असंयम! तो ध्यान रखो, असंयम का समर्थन हो जायेगा। टायर पंचर हो जाने पर गाड़ी नहीं बदली जाती बल्कि पंचर सुधार कर गाड़ी से काम लेते रहते हैं।
    3. संयम की रक्षा के लिए थोड़ा दोष क्षम्य होता है। जैसे लेख में (अल्प विराम, पूर्ण विराम।) क्षम्य होता है। पैराग्राफ (गद्यांश) छोड़ देना क्षम्य नहीं है।
    4. असंयमियों के बीच में रहकर संयम का पालन करना बहुत कठिन होता है।
    5. मनुष्य पर्याय को इन्द्र भी तरसते हैं, क्योंकि मनुष्य पर्याय में ही पूर्ण संयम को धारण किया जा सकता है।
    6. स्वर्गों में तो संयम की गंध तक नहीं आती।
    7. संयम और आचरण से ही धर्म का प्रारम्भ होता है।
    8. कषायों से घिरा मन विश्वास के योग्य नहीं है, मन वही है जो संयत है।
    9. मन पागल हो गया और काट रहा है तो कोई इंजेक्शन नहीं है, मात्र एक संयम ही उसके लिए इंजेक्शन है।
    10. आपकी गाड़ी का ब्रेक फेल है और गाड़ी वेगवान है, बस भगवान का नाम लो, कहाँ जावेगी यह गाड़ी? पता नहीं।
    11. आत्मा को स्वच्छ, स्वतंत्र बनाना चाहते हो तो मन पर लगाम लगाओ।
    12. विकल्पों को तोड़ने का एवं इच्छाओं को संयत बनाने का प्रयास करते रहना चाहिए।
    13. आत्मा की उन्नति चाहते हो तो संयम से डरना नहीं चाहिए बल्कि मन को दण्डित करते रहना चाहिए।
    14. मन पर लगाम लगाने का नाम संयम है। हमारा मन हमेशा पतन के गड्डे में गिरा देता है। तत्व को पढ़ा नहीं जाता, प्राप्त किया जाता है।
    15. वैराग्य के समय भगवान की पालकी असंयम की सेवा करने वाले देवतागण नहीं उठा सकते।
    16. ज्ञान पाने का नहीं ज्ञान को रोकने का नाम संयम है।
    17. संयम के अभाव में जीवन खतरनाक सिद्ध होगा।
    18. जीवन का पतन जिससे हो वह विराधना है, साधना नहीं। बिना साधना के जीवन भारमय हो जावेगा।
    19. संयम के माध्यम से ही महान् आत्माओं ने स्वयं का एवं दूसरों का कल्याण किया है।
    20. संयम अनंतकालीन असंयम को दूर कर देता है। सहारा मिलने पर भी दुरुपयोग करोगे तो कल्याण नहीं होगा।
    21. असंयमी को संयमी से डर नहीं, संयमी को ही असंयम से डर रहता है।
    22. जो असंयम से डरता है वह सम्यक दृष्टि है, पाप भीरुता होनी चाहिए।
    23. असंयम जीवन के लिए अभिशाप है। 
    24. सम्यक दृष्टि असंयम की सतह पर रहता है, उसमे डूबता नहीं है, क्योकि वह संयम की तलाश  में रहता है।
    25. अध्ययन के बाद की परीक्षा में जैसे कठिनाई होती है, वैसे ही सम्यक दर्शन होने पर भी संयम लेने में कठिनाई होती है। संयम से ही श्रद्धा का विषय साक्षात् देखने को मिलता है। १२वें गुणस्थान तक परोक्ष ही सम्यक दृष्टि रहता है। दूध में कभी भी घी का स्वाद आने वाला नहीं है चाहे तो उसे वर्षों तक रखे बैठे रहो।
    26. सम्यक दृष्टि वह है जो संयम की ओर दृष्टि रखता है।
    27. संयम ही है जो ज्ञान को क्षायिक बनाता है, सम्यक दर्शन को परम अवगाढ़ बनाता है।
    28. पहले दीक्षा की बात कही है फिर शिक्षा लेकिन आज पहले शिक्षा फिर दीक्षा की बात करते हैं। (पहले दीक्षा काल है फिर शिक्षाकाल)।
    29. जीवन में अशुभता तभी आती है जब असंयम आ जाता है।
    30. सम्यक दर्शन अनगढ़ पत्थर है उसे गले में मत पहनना, उसमें चमक लाना महत्वपूर्ण है। चारित्र रूपी शान पर चढ़ता है तो गले का हार बन जाता है। मटमैलापन दूर हो जाता है। परम अवगाढ़ सम्यक्त्व बनाने के लिए उसे चारित्र रूपी शान पर चढ़ाना आवश्यक है।
    31. पशु न बोलने से दु:ख उठाते हैं और मनुष्य बोलने से दु:ख उठाते हैं।
    32. मन पर लगाम लगाना दु:ख का कारण मानते हो तो यह मोक्षमार्ग का विपरीत श्रद्धान है। मन बेटे के समान है, ताड़ने से पुत्र, शिष्य व मन में गुण आते हैं लाड़ करने से दोष आते हैं।
    33. उसी की बुद्धि ठीक अथवा स्थिर रह सकती है, जिसकी इंद्रियाँ उसके वश में हों।
    34. जड़ें मन में, रोग तन में। रोग का पहला घर मन ही है।
    35. जिसके मन में संयम रहता है, उसी के वचन व काय संयम रह सकते हैं।
    36. जो शिल्पी होते हैं, उनका भी एक संयम होता है, साधना होती है तभी उनकी कला की पूजा होती है। जो संयम को सौभाग्य समझकर स्वीकारता है उसका संसार थोड़ा-सा बचता है। वह संसार समुद्र से जल्दी पार हो जाता है।
    37. भगवान की प्रतिछवि, वीतरागता का आदर्श हमारे सामने हमेशा बना रहे तो हमारा सम्यक दर्शन एवं संयम सुरक्षित बना रहता है।
    38. संयम, ज्ञान और दर्शन को विकसित कर देता है।
    39. संयमी के पीछे दुनियाँ का संघर्ष नहीं आ सकता।
    40. संयम में आवरणी कर्म को हटाने की प्रक्रिया होती है।
    41. मन को संयत बनाने के लिए मन में यह विश्वास जगाना होगा कि विषयों में सुख नहीं है।
    42. संयम लेने के उपरान्त संसार वैभव इन्द्रधनुष के समान क्षणिक प्रतीत होते हैं।
    43. वह संकल्प का ही परिणाम है जो आपकी २४ घंटे रसोईघर में रहते हुए भी भोजन की ओर दृष्टि नहीं जाती है। लगाम (संयम) हाथ में है तो घोड़ा (मन) कहीं जा नहीं सकता। मन पर ऐसा लगाम लगाओ कि ध्रुव ही दिखे।
    44. वृद्धों को जैसे खेलकूद नहीं रुचते वैसे ही संयमी को इस संसार की क्रियाओं में कोई रुचि नहीं रहती। संयम रूपी निधि को उपलब्ध करने का सौभाग्य मनुष्य पर्याय में उपलब्ध होता है।
    45. संयम स्वतंत्रता के लिए होता है किसी के आश्रित नहीं रहता। संयमी किसी से डरता नहीं और किसी को डराता भी नहीं।
    46. संकल्प के बिना विचारों को मूर्तरूप नहीं दिया जा सकता, संकल्प के बल पर पूर्व कोटि वर्ष तक मर्कट (बंदर) और कुक्कुट भी संयमासंयम का पालन करते हैं।
    47. विचारों को संकल्प का रूप नहीं देते तो वे अस्थिर रहते हैं, संकल्प से परिणामों में दृढ़ता आ जाती है।
    48. जिसका जीवन संयमित होता है, वह कर्म के उदय में गाफिल नहीं होता।

    Edited by संयम स्वर्ण महोत्सव


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