नि:कांक्षित अंग विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- पूजा, ज्ञान, तपश्चरण आदि अनुष्ठान मोक्ष प्राप्ति के लिए निर्जरा के लिए होना चाहिए, इस लोक-परलोक सम्बन्धी भोगाकांक्षा रूप निदान से रहित होना निकांक्षित अंग है।
- धार्मिक कार्यों में आत्म संतुष्टि का होना ही नि:कांक्षित अंग है।
- धर्म करते हुए पंचेन्द्रिय विषयक सुख में आस्था नहीं रखना नि:कांक्षित अंग है, क्योंकि यह सुख-दु:ख से मिश्रित है और कर्माश्रित है।
- संसार सुख,दुख का बीज है एवं पराधीन है व अंत सहित है, इसकी (संसार सुख की) कांक्षा न करना नि:कांक्षित अंग है।
- बाहुबली और भीमसेन ने पूर्व भव में बिना आकांक्षा के देव, शास्त्र व गुरु की आराधना की थी उसी के परिणाम स्वरूप उन्हें संसार में सुख एवं प्रसिद्धि प्राप्त हुई।
- जिसे आत्मसंतुष्टि प्राप्त नहीं है, वही तुष्टिकरण की नीति को अपनाता है।
- नि:कांक्षित अंग में अनंतमति एवं सीतासती प्रसिद्ध हैं।