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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • क्षमावाणी

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    क्षमावाणी विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी  के विचार

     

    1. श्रमण की दैनिक चर्या में प्रतिक्रमण आता है, प्रतिक्रमण का अर्थ ही है, प्रत्यक्ष कोई सामने हो या न हो तीन लोक में किसी भी जीव के प्रति अपराध हो गया हो तो क्षमा मांगना। वस्तुत:हमें क्षमा मांगना है और हमें क्षमा करना है।दूसरे क्षमा मांगे, या न मांगे क्षमा करें या न करें इससे कोई मतलब नहीं, क्योंकि क्षमा तो हमारा स्वभाव है।
    2. क्षमा धारण किये बिना मोक्षमार्ग ही नहीं बनता।
    3. क्षमा मांगने जैसा पवित्र भाव और दुनियाँ में कोई भाव नहीं हो सकता।
    4. साधु हर क्षण क्षमा मांगता है प्रत्येक क्रिया में कायोत्सर्ग करता है।
    5. जिनके जीवन में क्षमा अवतरित हो जाती है, वह पूज्य बन जाता है।जरा सोचो तो जो वस्तु तीन लोक में पूज्यता प्रदान करा दे, वह कितनी मौलिक वस्तु होगी।
    6. कषाय सहित होने से लोग देखना भी पसंद नहीं करते और यदि कषाय रहित हो गया तो उसे देखने के लिए, दर्शन करने के लिए दूर-दूर से लोग आ जाते हैं।
    7. क्षमा हमारी ही वस्तु है, जब क्षमा की अभिव्यक्ति हो जाती है तो उस क्षमा की मूर्ति के सामने हत्यारा भी हाथ जोड़कर खड़ा हो जाता है। उसके नाम की जाप देता है, णमो लोएसव्वसाहूणं  कहता है।
    8. अष्टपाहुड ग्रन्थ में आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने क्षमाधारी मुनिराज को, जिनायतन, जिनबिम्ब, तीर्थ आदि कहा है जिनलिंग कहा है, उन्हें जिन प्रतिमा में दर्शन की आवश्यकता नहीं, वे स्वयं जिनेन्द्र भगवान के प्रतिबिम्ब हैं। क्षमाधारण करने के बाद जीव का महत्व कितना बढ़ जाता है इसे हम मुख से वर्णन नहीं कर सकते हैं। साधु का जीवन उज्वल होता है।
    9. दीपक है उसकी लौ है तो धुआँ भी जुड़ा रहता है, वैसे ही संसारी प्राणी के साथ अज्ञान जुड़ा होता है।
    10. स्वभाव की प्राप्ति होते ही यह जीव निर्विकार हो जाता है।
    11. जो क्षमा के अवतार होते हैं, उससे क्षमा मांगने और क्षमा करने की बात ही नहीं क्योंकि उनके पास क्षमा हमेशा रहती है।
    12. क्षमा और प्रतिक्रमण के आँसू से साधु अपना सारा अपराध बहा देता है, धो लेता है, फिर स्वयं क्षमा की मूर्ति बन जाता है। (क्षमा मांगना नहीं क्षमामय बनना चाहिए)।
    13. पश्चाताप की घड़ियाँ जीवन में हमेशा नहीं आया करतीं, ये अपने स्वरूप तक ले जाने वाली घड़ियाँ हैं, स्वरूप प्राप्ति का प्रवेश द्वार है।
    14. जब तक प्रतिक्रमण नहीं करता तब तक निश्चय में नहीं डूब सकता। क्योंकि बाहरी लीनता के हटाने का नाम ही आत्मा में लीन होना है।
    15. ग्रामीण लोग कजलियाँ भेंट करते हैं, यह कटुता समाप्त करने का त्यौहार है।
    16. कषायों के वातावरण के साथ तो अनंत समय बिताया है, अब आत्मीयता के (वातावरण के) साथ जियो।
    17. मतभेद और मन भेद को समाप्त करके एक हो जाओ, भगवान के मत की ओर आ जाओ फिर सारे संघर्ष समाप्त हो जायेंगे।
    18. कषायभाव हमारे जीवन से समाप्त हो जावें, इसलिए यह क्षमावाणी का त्यौहार मनाया जा रहा है।
    19. क्षमाभाव को आत्मसात् करने का आनंद अद्भुत ही हुआ करता है।आप लोग क्षमाधर्म का अभ्यास करो।
    20. हमारा ही उपयोग बड़ी महत्वपूर्ण वस्तु है, यह हमें अविनश्वर फल देने वाली योग्यता रखता है। इसमें उत्पाद विष्णु, व्यय शंकर, ध्रुव ब्रह्मा सब कुछ मौजूद है।
    21. रक्षक, भक्षक, अविनश्वर इसी जीव में सब कुछ विद्यमान है।
    22. क्षमा ऐसी वस्तु है जिससे सारी ज्वलनशीलता समाप्त हो जाती है एवं चारों ओर हरियाली का वातावरण दिखाई देने लगता है।
    23. क्रोध में उपयोग नहीं रहता और उपयोग क्रोध में नहीं रहता। इसका तात्पर्य यह है कि क्रोध के समय उपयोग क्रोध रूप परिणत हो जाता है।
    24. साधु क्रोध रूपी शत्रु को क्षमा रूपी तलवार से नष्ट कर देते हैं।
    25. क्षमा कल्पवृक्ष के समान है, क्षमा के समान कोई धर्म नहीं है।

    Edited by संयम स्वर्ण महोत्सव


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