अमूढ़दृष्टि अंग विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- मिथ्यादृष्टि को भी रोहिणी आदि बारह सौ विद्यायें प्राप्त हो जातीं हैं, ऐसे चमत्कारी को धर्म मानकर नहीं स्वीकारना अमूढ़दृष्टि अंग है।
- कर्म के उदय में भाव उत्पन्न होते हैं, इनमें गहल भाव नहीं रखना, इनसे प्रभावित नहीं होना अमूढ़दृष्टि अंग है।
- विपरीत मार्ग को न मानते हुए उन्हें (कुमार्गियों को) मन, वचन एवं काय से अग्रेसर न करना अमूढ़दृष्टि अंग है।
- अमूढ़दृष्टि अंग में रेवती रानी प्रसिद्ध है।
- छह खण्ड का अधिपति होकर भी सुभौम चक्रवर्ती एक आम फल के पीछे पड़ गया और णमोकारमंत्र पर पैर रखने के भाव भी कर दिए यही तो मूढ़दृष्टि है।
- जो कर्म निर्जरा में सहायक नहीं है, ऐसी लौकिक मान्यताओं को धर्म नहीं मानना अमूढ़ दृष्टित्व है।