प्रभावना अंग विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- प्रभावना अंग का पालन करना श्रावक और साधु दोनों के लिए अनिवार्य है।
- जिनधर्म के माहात्म्य का ज्ञानादि के द्वारा प्रकट करना प्रभावना अंग है।
- श्रावकों को दान, पूजा आदि के माध्यम से धर्म की प्रभावना करना चाहिए और साधु को ज्ञान और तप आदि से जैनधर्म की प्रभावना करनी चाहिए।
- पूजा, विधानादि के माध्यम से श्रावक धर्मध्यान करता हुआ अपने प्रभावना अंग को पुष्ट बनाता रहता है।
- शास्त्र स्वाध्याय का उद्देश्य कर्म निर्जरा होना चाहिए एवं जिनशासन की प्रभावना में इसका उपयोग करना चाहिए तभी इसका यथोचित फल प्राप्त होता है।
- प्रभावना किसी को नीचे दिखाने के लिए नहीं बल्कि वीतराग धर्म की महिमा दर्शाने के लिए की जाती है।
- मंदिर आदि निर्माण करवाने में भावना गलत नहीं होनी चाहिए, बल्कि उससे धर्म की प्रभावना होनी चाहिए।
- धार्मिक अनुष्ठान के माध्यम से अपनी प्रभावना नहीं बल्कि धर्म की प्रभावना हो, ऐसी भावना रखना चाहिए।
- भगवान ने तो धर्म की प्रभावना की है, हम नहीं करेंगे तो क्या होगा ? ऐसा नहीं सोचना चाहिए बल्कि यथाशक्ति धर्म की प्रभावना करना चाहिए तभी हमारा सम्यक दर्शन निर्मल होगा।
- आलस्य से बचने का सबसे अच्छा तरीका है धर्म की प्रभावना करते रहना।