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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • धर्म देशना 8 - वासना का परित्याग : ब्रह्मचर्य

       (1 review)

    ऐसी प्रतिभा और ऐसी क्षमता हमारे पास होते हुए भी हम मोह के कारण, वासना के कारण या कुछ कर्मों के कारण ऐसे जकड़ गये हैं, कि वह शक्ति बाहर की ओर नहीं आ पा रही है। प्रयास करेंगे तो अवश्य ही वह उद्घाटित हो सकेगी।

     

    वासना की जागृति, वासना की रक्षा व वासना की उन्नति होती है, तो एक मात्र जड़ के ऊपर हाइलाइट देने से होती है। जड़ को यदि आप पूरी आँख स्फारित करके देखते हैं, तो वह राग का कारण बन जाता है। प्रभु को एक बार अपनी दोनों आँखों से स्फारित करके देखो, आलस्य के साथ मत देखो, तो आपका वैशद्य ज्ञान निश्चित रूप से विशदता की ओर ही जायेगा।


    आकाश मार्ग से एक दंपत्ति मनोरंजन के साथ जा रहा है। पत्नी को उसके पति ने बहुत सारी बातें सुना रखी थी, जो गलत भी नहीं थीं। आत्मप्रशंसा भी नहीं थी। औरपर की उसमें आलोचना या निंदा भी नहीं थी। वस्तुस्थिति लगभग ठीक थी। इन सब बातों को सुनकर पत्नी ने सोचा-यह हमारा बहुत बड़ा सौभाग्य है, कि हमारा सम्बन्ध इस प्रकार के पति से हुआ। एक बार पत्नी ने पूछा-पतिदेव ऐसा भी कोई व्यक्ति है, जो आपके अण्डर में नहीं हो जान-बूझकर पूछ रही है क्या? जान-बूझकर नहीं। फिर क्यों पूछ रही है ? इसलिए पूछ रही हूँकि हमें सुनने में यही आया-प्रत्येक क्षेत्र में अपवाद भी हुआ करते हैं। वह अपवाद क्या वस्तु है ? लगता ऐसा है कि किसी व्यक्ति को देखकर पूछ रही हो। हाँ, यह कौन है ? किस ओर आपका इशारा है ? देखो, उस पेड़ के नीचे जो हैं, वे हमारे अंडर में नहीं हैं।


    आपके अंडर में नहीं है, तो फिर वे किसके अंडर में है ? पगली कहीं की, जब यह कहा-कि मेरे अंडर में जो नहीं रहता वह दूसरे के अंडर में भी नहीं रहता। यह निश्चित बात है। वे क्या करते हैं ? आप उनको अपने अंडर में क्यों नहीं रख सकते ? यह दूसरी बात है। मैं हठात् किसी को अपने अंडर में नहीं रखता हूँ। लेकिन यदि रहना चाहता है, तो आश्रय अवश्य देता हूँ। वे रहना नहीं चाहते।


    सब जगह अपनी-अपनी प्रशंसा की जाती है। प्रतिपक्ष की बात नहीं रखी जाती। जब यह पूछा गया, तो कहना आवश्यक होता है। अपने लड़के को आँखों से यदि नहीं भी दिखता है, तो भी उसे नयनसुख कहा जाता है। अपना लड़का रोता रहे, तो भी अशोक नाम रख लेते हैं। अपना लड़का काला भी हो, तो भी चन्द्रमा की उपमा फीकी पड़ती है। वह राजकुमार है। यह अपनत्व की बात है। वह अपने अंडर में नहीं तो फिर किसके पास रहता है ? क्या उसका जीवन किसी के पास नहीं? जिस किसी के पास रहना होता है। जहाँ पर रहना होता है, अपने आप एक-दूसरे से बाधित होते चले जाते हैं। वह निर्बाध अवस्था का अनुभव करते हैं। वे तीन लोक के नाथ हैं।


    सुना था, स्वामी आप तीन लोक के स्वामी हैं ? हूँ, अभी भी। लेकिन यह एक पक्ष की बात है। जिनके पास कोई नहीं रहता और कोई रहना भी नहीं चाहता। जबकि मेरे पास बहुत सारे लोग आ जाते हैं, तो शरण देना अनिवार्य है। लेकिन हमारी कुछ कमजोरी है, यह बात अलग है। यदि वे किसी के अंडर में नहीं रहते, तो उनका जीवन क्या है ? वे महान तपस्वी हैं। महान शक्तिशाली हैं। उनके पास वह शक्ति है, जो मेरे पास घुटने टेकते हैं, वे सारे के सारे मेरे सहित उनके चरणों में घुटने टेकते हैं। बस इतना ही अन्तर है। इसका अर्थ हो गया, तीन लोक उनके अंडर में हैं ? मैंने कब कहा कि तीन लोक इनके अंडर में नहीं है। मेरे अंडर में भी है। इसलिए आज तक हमने इस बात को नहीं बताया। वे कौन हैं, मालूम है आप लोगों को ? पति-पत्नी कौन हैं ? पति का नाम कामदेव और पत्नि का नाम रति है। ये दोनों विहार कर रहे थे। यह निश्चित है, कि एकेन्द्रिय से लेकर संज्ञी पंचेन्द्रिय तक सारे के सारे जीव इनके अंडर में हैं। इनके वशीभूत हैं। चार संज्ञा रूपी बुखार से पीड़ित हैं। आप लोगों को कभी कभार बुखार आ जाता है, तो कहते हैं कि महाराज, आशीर्वाद दो। हम सोचते हैं कि कैसा आशीर्वाद ? महाराज, मैं शान्ति का आशीर्वाद दे दो, ताकि सब शान्ति हो जाय ।


    वासना का ज्वर, जो अनन्तकाल से चढ़ा है। चाहे वह संज्ञी पंचेन्द्रिय अर्थात् मन सहित हो या फिर मन रहित। विकलेन्द्रिय हो या एकेन्द्रिय। चाहे पृथ्वीकायिक हो या वायुकायिक। कोई भी हो, सब उसी के अंडर में रहते हैं। लेकिन यह ध्यान रखना, इनकी संख्या सबसे बड़ी है। अनन्तानन्त के रूप में आ जाते हैं। सिद्धों की संख्या इतनी नहीं। इनकी संख्या का पार ही नहीं, और हमेशा-हमेशा इतनी ही बनी रहती है।


    इसलिए अपनी पत्नि के सामने कामदेव हमेशा-हमेशा अपनी आत्मा की बात करता रहता है। रति को ज्ञात हुआ-धन्य है यह जीवन, ऐसा भी रहा जा सकता है। और जाकर के दोनों ने नतमस्तक होकर नमोऽस्तु किया। आशीर्वाद की कोई बात नहीं थी। क्योंकि यह निश्चित है, जो स्वामी होता है, बड़ा होता है, उसके सामने जाकर नमोऽस्तु किया जाता है। हमें यह सोचना चाहिए-व्यक्ति, जिसे हम बड़ा मानते हैं, वह भी किसी के अंडर में रहता है। डायरेक्ट भी हम सम्बन्ध स्थापित कर सकते हैं। लेकिन दुनियाँ की बात नहीं होना चाहिए। दुनियाँ से अतीत होने की बात होनी चाहिए। भत्तामर जी आप प्रतिदिन पढ़ते हैं-

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    इसमें क्या आश्चर्य ? जिसका मन, जिसका चित्त, जिसका उपयोग अप्सरायें या रति से भी बढ़कर जो रूपशालिनी हैं, वे भी चलायमान नहीं कर सकीं।  

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    कितना अच्छा स्तवन है। जैसे कितना भी प्रलयकारी तूफान आ जाय तो भी आज तक मेरु पर्वत थोड़ा भी हिला नहीं। टूटा नहीं। वह ज्यों का त्यों खड़ा है। संभव है प्रलयकारी तूफान के द्वारा उसमें कुछ कमी आ सकती है। लेकिन हे भगवन्! आपका चित्त कभी भी विकारमार्ग को प्राप्त नहीं हो सकता। यह भगवान् को स्मरण करने की एक पद्धति है।


    मानतुंग महाराज अपने मान को छोड़कर नभ से भी उतुंग पहुँच गये हैं। ऐसे भगवान् की स्तुति करके अपने आप को कृतकृत्य बना लिया। अपने आपको उपकृत बना लिया। अपने आपको भाग्यशाली समझ लिया। आज आप लोग भत्तामर को प्रतिदिन याद करते हैं। थोड़े धीरे-धीरे याद किया करो। आपकी चाल उत्कल की चलती है, या राजधानी की होती है। ये सारे के सारे रेल के ही नाम बोल रहा हूँ। कहाँ से कहाँ तक पहुँच जाता है ? पता नहीं। भक्तामर जी का अखण्ड पाठ करने के उपरान्त भी स्तुति के अर्थ की ओर आपका उपयोग नहीं जाता। तब आनन्द नहीं आयेगा। मैं इस पाठ का निषेध नहीं कर रहा हूँ। करिये, वर्षों हो गये, थोड़ा-सा अर्थ का स्वाद भी लेने का प्रयास कीजिये। महाराज, अर्थ की ओर हम चले जाते हैं, तो बहुत देर हो जाती है। रेल चूक रही है क्या ? एक पद का भी अर्थ सहित आप पाठ करते हैं, तो आनन्द की जो अनुभूति होगी, वह अलौकिक होगी। अर्थ याद होते हुए भी यदि जल्दी पढ़ेंगे, तो अर्थ का स्वाद नहीं आयेगा।


    भोजन करते समय यदि जल्दी-जल्दी खा जायें, तो पेट तो भर जायेगा। लेकिन स्वाद नहीं आ सकता। इसी तरह वहाँ पर एक शब्द बोला नहीं, और दूसरे शब्द की ओर चला गया, तो अर्थ गायब हो जाता है। इसलिए अर्थ की ओर चले जाते हैं, तो व्याघात हो जाता है। इतना अवश्य होता है, कि जब भगवान् की स्तुति या गुणानुवाद करते हैं, तब गुण का क्या अर्थ है ? यह अलौकिक गुण है। इस प्रकार के गुण अन्यत्र पाये नहीं जाते, ऐसा विचार रहता है।


    संसारी प्राणी शील से रहित है। और वे भगवान् शील के शिखर पर हैं। शैलेश बोलते हैं उनको। कर्मसिद्धान्त ग्रन्थों में उनको शैलेश कहा गया है। शील का ईश अर्थात् सुमेरु के समान उनका शील अडिग है। अकम्प है। अथवा शैलेश का अर्थ शील का पूर्णत: विकास होने से उनको शैलेश बोलते हैं।


    जब आत्मा का स्वभाव ज्ञात हो जाता है और उसके ऊपर मजबूती के साथ श्रद्धान टिक जाता है, तब रति कहती है-धन्य हैं, इनने अपने आप को किसी के सामने समर्पित या शरण के रूप में स्वीकार नहीं किया।

    रावण बड़े-बड़े व्यक्तियों को पछाड़ने की क्षमता रखता था। लेकिन, ज्यों ही व्रत की बात आ जाती है, हाथ जोड़ कर खड़ा हो जाता है। इतना छोटा हो जाता है, कि वह बिल्कुल ही दण्डवत् कर देता है। मैं यह नहीं कह सकता, कि यह साहस की बात है। यह बाद की बात है, श्रद्धान की बात पहले होना चाहिए। साहस क्यों नहीं होता ? श्रद्धान कमजोर होने के कारण साहस नहीं होता। 
    महाराज, ऐसा कोई आशीर्वाद दे दो, ताकि हमारा साहस बढ़ जाय। आपका तो स्वास्थ्य बढ़ रहा है। अभी साहस कैसे बढ़ेगा ? अपने आप के ऊपर विश्वास लाइये। अपने स्वरूप का चिन्तन करते-करते सम्यग्दर्शन ठोस बन जाता है। दृढ़ हो जाता है। फिर साहस करो, ऐसा करने की आवश्यकता नहीं। क्योंकि स्वरूप बोध जिसको हो गया, वह अपनी शक्ति का प्रयोग करता ही रहता है। जैसे मिलेट्री सोई हुई नहीं रहती। वह हमेशा-हमेशा अपने प्रयोग करती ही रहती है। तालीम में भी तालीम करते रहते हैं। पहलवान लोग जिस प्रकार मैदान में आ जाते हैं, उसी समय नहीं, अपितु प्रतिदिन प्रयोग करते रहते हैं।


    विश्वास के माध्यम से प्रयोग करते हैं, तो साहस होता चला जाता है। जिस ओर हम बढ़ते हैं, देखते हैं, उसी ओर का एक प्रकार से आदर या बहुमान आता चला जाता है। गौण और मुख्य इसी का नाम है। गौण करते ही जो मुख्य सामने है, वह महत्वपूर्ण दिखने लग जाता है।


    गौण-मुख्य का अर्थ क्या है ? संक्षेप में बताओ महाराज। मुख्य का अर्थ हाइलाइट। आप फोटो लेते हैं। फोटो लेते समय एड़ी से लेकर चोटी तक वह व्यक्तित्व है आपके सामने। लेकिन कौन से अंग के ऊपर हाइलाइट देना है ? यह आपके ऊपर निर्धारित होता है। वही मुख्य माना जाता है। एक व्यक्ति मुख्य होता है और अड़ोस-पड़ोस में जो खड़े हैं, वे गौण हो जायेंगे। यद्यपि उस फोटो में आ जायेंगे, लेकिन मुख्य उसी का फोटो आयेगा, जिसके ऊपर आपने हाइलाइट की है। कई लोग पत्र में भी अंडर लाइन कर देते हैं। पत्रिका में तो करते ही हैं, पत्र में भी कर देते हैं। क्योंकि सर्वप्रथम उसी ओर ध्यान जाय। एक-एक पहलू के बारे में, स्वभाव के बारे में, गुणों के बारे में हाइलाइट के साथ यदि भगवान् की स्तुति करते हैं, तो एक श्लोक के द्वारा भी आप लोगों को बहुत ही आनन्द आ सकेगा। ४८ कड़ियों तक पहुँचते-पहुँचते आपको बहुत देर हो जायेगी। परन्तु आपको समय का पता नहीं चलेगा।


    जब मन ज्यादा लग जाता है, रम जाता है, तो समय का पता नहीं चलता। यह साहस की बात नहीं, यह विश्वास की बात है। यह दृढ़ता की बात है। विश्वास या द्रद्ता तब आती है, जब हम किसी वस्तु को सार्थक-अर्थ सहित देखना प्रारम्भ कर देते हैं। वस्तु स्वभाव धर्म कहा गया है। वस्तु का तो हमने नाम ले लिया, किन्तु स्वभाव की ओर दृष्टिपात नहीं किया तो धर्म का स्वाद नहीं आ पायेगा। मात्र खाना-पूर्ति नहीं करना चाहिए। खाने के द्वारा पूर्ति होना चाहिए। खाने के पूर्व भी वही दशा, खाते समय भी वही दशा, खाने के बाद भी वही दशा, यह बात है ? भोजन का महत्व भी तो समझो। अर्थ के द्वारा ही रस आता है।


    यो यत्र निवन्नासते स तत्र कुरुते रतिम्।

    यो यत्र रमते तस्मादन्यत्र स न गच्छति॥

    यह अन्यत्र नहीं आता। यह इष्टोपदेश का श्लोक बहुत ही अच्छा है। आप लोग उच्चारित करते हैं और यहाँ पर अर्थ सहित पढ़ते हैं। आज समापन हुआ, ऐसा सुनते हैं हम भी। कितने बढ़िया हैं, पढ़ाने और पढ़ने वाले, दोनों समझे इस बात को।


    जो सिद्धोदय में रहता है, तो क्या वह अन्यत्र जाना चाहेगा ? दस दिन की बात थी, महाराज जल्दी मत करिये। यह अन्तिम उपसंहार का दिन है। यह ध्यान रखना, इसमें सब कुछ आ सकता है। भगवान् के स्वरूप के विषय में आपने पढ़ा-सुना-चिन्तन किया। संगोष्ठी की। दर्शन के माध्यम से भी आपने बहुत कुछ पाया। तुलना करिये, हमारा स्वरूप भी इस प्रकार होकर भी वर्तमान में हम क्यों बाधित होते चले जा रहे हैं ? क्योंकि प्रभावित होते चले जा रहे हैं, दूसरी वस्तु से ? जबकि यह वस्तु ऐसी अलौकिक है।

     

    भत्तामर के बारे में भी मुझे कुछ ऐसा ही लगता है। स्तोत्रस्त्रजं तव जिनेन्द्रगुणेर्निबद्धां बस उसके उपरांत कौन-सा प्रारम्भ करें ? बीच की सभी कड़ियां आप लोग भूल जाते हैं। वैज्ञानिकों ने इस अवस्था को अवचेतन अवस्था कहा है। चेतन अवस्था नहीं, अवचेतन दशा। अवचेतन का अर्थ चेतना दशा नहीं, यही इसका प्रतीकार्थ है। जिसमें रस नहीं आता, जिसकी ओर उपयोग नहीं रहता, वही अवचेतन दशा मानी जाती है।


    स्तोत्र पढ़ते समय अर्थ की ओर जाने लग जायें, तो फिर बहुत धीरे-धीरे पढ़ा जायेगा। फिर भी थोड़े से स्पीड रख सकते हैं। णमो अरिहंताणां बार-बार बोलेंगे, तो अर्थ समझने की कोई आवश्यकता नहीं। उसी प्रकार इन स्तोत्र की कारिकाओं में भी यही बात है। अर्थ का अच्छी तरह चिन्तन किया जाय, तो स्तोत्र की कारिका आते ही अर्थ झलकने लग जाता है। इस प्रकार जब हम सोचते हैं, तो लगता है, रस तो कम निकालते हैं, और वैसे ही हम आगे बढ़ जाते हैं। रस के अभाव में शक्ति का निर्माण व दृढ़ता नहीं आती। ध्यान रखो, जितना पचेगा उतनी ही शरीर को स्फूर्ति मिलेगी। ताजगी मिलेगी। और एकाध दिन नहीं भी मिलेगी, तो भी उसके द्वारा काम चल जायेगा।


    दस दिन आप लोगों ने यहाँ पर पूर्ण किये। भगवान् के स्वरूप के बारे में आपने क्या समझा? कैसे भगवान् हैं ? तीन लोकों में अनूठे हैं। ऐसी उपमा हम किसी दूसरे को नहीं दे सकते। ऐसी प्रतिभा और ऐसी क्षमता हमारे पास होते हुए भी हम मोह के कारण, वासना के कारण या कुछ कर्मों के कारण ऐसे जकड़ गये हैं, कि वह शक्ति बाहर की ओर नहीं आ पा रही है। प्रयास करेंगे तो अवश्य ही वह उद्घाटित हो सकेगी।


    सब कुछ लखते पर नहीं, प्रभु में हास्य विलास।

    दर्पण रोया कब हंसा ?, यह कैसा संन्यास॥

    यह सर्वोदय की देन है। सर्वोदय तीर्थ अमरकण्टक में यह दोहा लिखा गया। वस्तुत: क्षेत्रों के भी प्रभाव रहते हैं। भगवान् का स्वरूप कैसा है ? तीन लोक के सारे चित्र-विचित्र उनकी आँखों के सामने हैं। राग की सामग्री भी है और द्वेष की सामग्री भी है। ग्लानि की सामग्री भी है। अतीत भी है, अनागत भी है और वर्तमान भी है। बैरी भी है, मित्र भी है। आज भले ही बैरी-मित्र नहीं है। यह सारा का सारा भरा हुआ है। इतिहास बैरी और मित्रों से भरा है। माँ भी है, बहिन भी है, भाई भी है, यह सारी की सारी तालिका है। माँ आ गई, तो माँ से पूछने लग जाते हैं-कैसी हैं ? क्या है? ऐसी लाखों माँ हैं। लेटेस्ट की बात होती है महाराज। जब वह अनन्तकालीन ज्ञान हो जायेगा तो सारे के सारे लेटेस्ट जैसे हो जायेंगे। वर्तमानवत हो जायेंगे। अब एक पर्याय में पुरानापन और एक पर्याय में नयापन नहीं, किन्तु अनन्तकाल पीछे जो घटना घटी थी, वह भी आज वर्तमान में घट रही है। इसमें कुछ नया-पुरानापन नहीं है। ज्ञान का विषय नया-पुराना नहीं होता। यद्यपि काल इतना व्यतीत हो गया, कि वह पर्याय पुरानी मानी जाती है, किन्तु वह काल की विवक्षा में है। अत: यह स्पष्ट है।


    प्रत्यक्ष कैसा होता है ? प्रत्यक्ष हमेशा-हमेशा विशद हुआ करता है। विशद का भाव वैशद्य माना जाता है। क्या अर्थ हुआ ? विशेषता के साथ ही जाना जाता है, देखा जाता है। किसी प्रकार के व्यवधान के बिना और किसी का सहारा लिये बिना, ऐसा प्रत्यक्ष अवभासन होता है, जो विशद अवभासन माना जाता है। इसीलिए सभी लेटेस्ट अर्थात् वर्तमानवत जानते हैं। जिस प्रकार हम वर्तमान को जानते हैं। उसी प्रकार वे अतीत और अनागत को जानते हैं।


    सब कुछ लखते, पर नहीं, उनमें हास्य-विलास।

    न राग है, न द्वेष है। न सुख है, न दुख। न संयोग है, न वियोग। मात्र उपयोग टंकोत्कीर्ण बना रहता है। उनके सामने कोई भी पदार्थ लेकर के जाओ, वे कभी भी हंसते नहीं, न ही रोते हैं। लेकिन दर्पण को देखने वाला अवश्य हंसता व रोता है। प्राय: करके पुरुष लोग मूंछों पर ताब देते हैं, दर्पण देखते समय। बार-बार क्यों बंकिम दृष्टि से देखते हो दर्पण में ? सोची, अतीत में कितने बार आप दर्पण में देखते हुए आये हो, वह केवली भगवान् के दर्पण में आ रहा है। यह सब कुछ होकर भी कोई प्रभाव नहीं होता।


    ज्ञेयों का प्रभाव ज्ञान के ऊपर नहीं पड़ता और ज्ञान का भी प्रभाव ज्ञेय पर नहीं पड़ता। मोह के कारण यह सब घटित हो जाता है, मोह को थोड़ा-सा गौण कर दो और हाइलाइट आप ज्ञान के ऊपर दो, तो बहुत ही अच्छी बात हो जायेगी। हाइलाइट समझ में आ गया। हमेशा-हमेशा आत्मतत्व को मुख्य बनाओ या परमात्मतत्व को मुख्य बनाओ। जड़ गौण हो जाय, उस पर हाइलाइट मत दो। जड़ के ऊपर हाइलाइट देने से आत्मतत्व व प्रभु तत्व, ये दोनों गौण होने से अंधकार सामने आ जायेगा। यह ध्यान रखो, वासना की जागृति, वासना की रक्षा व वासना की उन्नति होती है, तो एक मात्र जड़ के ऊपर हाइलाइट देने से होती है। जड़ को यदि आप पूरी आँख स्फारित करके देखते हैं, तो वह राग का कारण बन जाता है। प्रभु को एक बार अपनी दोनों आँख से स्फारित करके देखो, आलस्य के साथ मत देखो, तो आपको वैशद्य ज्ञान निश्चित रूप से विशदता की ओर ही जायेगा। और दुनियाँ गौण हो जाय, दुनियाँ के बारे में आप मौन हो जायें। अब बातें करते रहो अपनी आत्मा से। आपका मौन टूटेगा नहीं। प्रभु से आप बोलते रहिये, आपका मौन टूटेगा नहीं। क्योंकि दुनियाँ के साथ नहीं बोलने का नियम दिया जाता है, प्रभु के साथ बोलने का नहीं। प्रभु के साथ तो समय कम देते हो। महाराज, बोलते तो हैं ही नहीं वे। क्या आपने कभी बुलवाया है उनको ? महाराज, बहुत कोशिश की।


    ऐसे नहीं बोलते। उनकी भाषा समझने का प्रयास करो। टूटी-फूटी थोड़ी-सी भाषा आती है। उनकी भाषा कौन सी है क्या पता ? उनकी भाषा कौनसी है ? आप लोगों को मालूम नहीं है। हाइलाइट दीजिए उनको। जब आप फोन की बारीक-सी आवाज भी सुन लेते हैं, तो भगवान् की वाणी क्यों नहीं सुन सकते ? दिव्यध्वनि खिरती है, तब वहाँ पर आपके अन्यत्र के जो कनेक्शन हैं, वे समाप्त हो जाते हैं। तो प्रभु क्या बोल रहे हैं ? यह समझ में आने लग जाता है।


    अवाग्विसर्ग वपुषा मोक्षमार्ग निरूपयन्तम्।

    जब मुनि महाराज की यह स्थिति है, तो प्रभु की स्थिति क्या होगी ? आप समझो। तीन लोक के समस्त पदार्थ उन्हें दृष्टिगत हो रहे हैं। फिर भी उन्हें राग नहीं, द्वेष नहीं। और यहाँ थोड़ीसी बात सामने आ जाती है, तो राग और द्वेष होने लग जाता है। समझ में नहीं आता क्या करें ? हाइलाइट की कमी है। चिन्तन की मात्रा तो है, लेकिन बहुत कम समय के लिए है। एक मिनट के लिए भी जियो, लेकिन पूर्णत: जियो। क्योंकि मात्रा के अनुसार हम देखते हैं तो पर की मुख्यता में ज्यादा समय गुजर जाता है। और स्व को या प्रभु को बहुत कम समय मिलता है। और हाइलाइट कब किया जाता है ? पहले भी नहीं दिया जाता, और बाद में भी नहीं दिया जाता। जिस समय बटन दबाया जाता है आटोमेटिक, उसी समय हाइलाइट दिया जाता है। आप लोग बहुत समय जड़ तत्व पर देंगे। और जिस समय आत्मतत्व आ जाता है, उस समय बटन दबाते हैं। लेकिन वह ऐसे ही समाप्त हो जाता है। ऐसा फोटो खराब हो जाता है। दुबारा ले लेंगे। दुबारा क्या ले लोगे ? अब हाइलाइट यानि अर्पित तो मुख्य हो और अन्य जो पदार्थ है, वह ज्यादा लाइट में न आये।


    प्रभु तीन लोक के जाननहार हैं, फिर भी वे कभी रोते और हँसते नहीं हैं। मध्यस्थ रहते हैं। मध्यस्थ कैसे रह जाते हैं ? प्रभु को देखो अपने आप जान जाओगे। कैसे रहा जाता है ? हँसने वाले को देखो, तो हँसना आयेगा। रोने वाले को देखो, तो रोना आयेगा। उपहास करने वाले को देखो, तो दोनों बंद हो जायेंगे। अब आप लोग क्यों हँस रहे हैं ? तो क्या रोये हम लोग ? रोने के लिए नहीं कह रहा हूँ। लेकिन हँसने का कुछ अलग कारण लग रहा है। एक बार हंसना तो अच्छा माना जाता है। लेकिन बार-बार हँसना तो अच्छा नहीं। हँसी मत उड़ाओ भइया, हँसी नहीं उड़ाना चाहिए। हँसी उड़ाने का अर्थ उपहास का पात्र बनाया जाना। भगवान् के पास न हँसी है, न रोना। और न मुस्कान है। लेकिन ऐसा भद्र परिणाम, ऐसा प्रसन्न परिणाम दिखता है, जिसकी दुनियाँ में कोई नकल करना भी चाहे तो भी नहीं कर सकता। कुछ न कुछ अन्तर उसमें आ ही जाता है। सहज नहीं बन पाता। यदि प्रयास करना चाहें, तो कर सकते हैं।


    बाल अवस्था में महावीर ऐसे थे, जैसे ९० वर्ष के वृद्ध भी नहीं रहते। फिर भी प्रसन्न रहते थे। महावीर भगवान् की बहुत प्रशंसा होती थी, कि वह बहुत गंभीर बालक है। और गंभीर महावीर के लिए कन्या कहाँ से ले आयें ? स्थिति बड़ी विचित्र थी। बहुत गंभीर थी। लेकिन गंभीर होने का अर्थ यह नहीं, वह चिन्ता में थे। नहीं, स्वभाव से गंभीर या सहज रूप से गंभीर थे। स्वभाव से मार्दव जिसको बोलना चाहिए। स्वभाव से गंभीर। स्वभाव से मृदुता । स्वभाव से तत्वदृष्टि। स्वभाव से सब कुछ था। इसके पीछे पूर्वजन्म के संस्कार और साधना विद्यमान थी।

     

    दर्पण रोया कब हॅसा ? दर्पण की ओर देखते जाओ, अपने आप आपका रोना-हंसना सब समाप्त हो जायेगा। उसका जो उजाला, जो वैशद्य है, सब सामने आ जायेगा। दर्पण का उदाहरण इसीलिए दिया जा रहा है। दर्पण के समान विशदता कहीं देखने को नहीं मिलती। सब कुछ देखो, लेकिन उसमें अन्तर नहीं आयेगा।


    भगवान् आत्मस्थ इतने हो गये हैं, इतने भीतर चले गये हैं कि बाहरी प्रभाव अब उनके ऊपर नहीं पड़ सकता। इसी का नाम ब्रह्मचर्य है। जो ऐसे ब्रह्म में लीन हों, कि अब किसी भी अन्य पदार्थ में लीन नहीं हों। उनके ज्ञान के ऊपर, उनके आत्मा के ऊपर दुनियाँ की किसी भी शक्ति का प्रभाव नहीं पड़ सकता। जानेंगे-देखेंगे, सब कुछ करेंगे। लेकिन इस सीमा के बाहर वे कभी नहीं जायेंगे। धन्य है ऐसे प्रभु को, जो ब्रह्मलीन हो गये हैं। उन्होंने श्रमणों के लिए इसी प्रकार का उपदेश दिया है। आत्मतत्व को प्रौढ़ता दी है। और सागार यानि गृहस्थों के लिए भी उपदेश दिया है। केवल श्रमणों के लिए नहीं। सागारों और अनगारों, दोनों के लिए उन्होंने उपदेश दिया है। सागारों के लिए कौन-सा धर्म बतलाया ? उनके लिए बताया


    दाणा पूयासीलमुववासो.।

    यह श्रावकों का चार प्रकार का धर्म है। इसमें सर्वप्रथम दान कहा गया है। दान कहने से आपकी दृष्टि सबसे पहले आहारदान की ओर ही चली जाती है। वह भी आवश्यक है। लेकिन इसका असर बहुत कम समय के लिए रहता है और आप लोग सस्ता ही लेना चाहते हैं। इसके उपरांत दूसरा औषधदान दिया। वह कितने दिन तक ? जब तक रोग दूर नहीं हुआ, तब तक। और कौन-सा दान है ? ज्ञानदान भी है। इसकी ज्ञानदान न बोलकर उपकरण दान बोलते हैं। मैं इसलिए बोल रहा हूँ कि वस्तुत: ज्ञानदान डायरेक्ट नहीं है। उपकरणदान या शास्त्रदान, जिसको बोलते हैं। उपकरणदान ही स्वामी समन्तभद्राचार्य ने कहा है। उपकरण क्या है ? जो उपकार करे, सो उपकरण। जिस समय जिसके लिए जो उपयोग हो वह दीजिये, यह उपकरणदान है। जैसे आपने किसी को निमन्त्रण दिया। खाने वाला खाने में लीन हो जाता है और परोसने वाला देखता रहता है, खाने वाले को। पता नहीं चलता, किन्तु वह जान लेता है, किसको किस समय क्या परोसना है ? एक ही चीज बार-बार खा रहा है, तो उसको नहीं परोसेंगे। दूसरी चीज को परोसेंगे। क्योंकि वह चीज हानि कर सकती है। फिर भी इच्छा के अनुसार परोसते रहते हैं। लेकिन निगरानी रहती है, दृष्टि रहती है। बच्चों जैसा परोसने वाला नहीं रहता। परोसने वाला विवेकशील रहता है। इसी तरह सम्यग्दृष्टि बहुत जानकारी रखता है। सही जानकारी कि, कहाँ पर किस व्यक्ति को किन उपकरणों की आवश्यकता है ? उसके माध्यम से वह उनकी पूर्ति करके उसे धर्म के क्षेत्र में आगे बढ़ाता है।


    आज सबसे ज्यादा कमी यही है। जैन समाज समृद्ध होते हुए भी जिस समय जिस चीज की आवश्यकता है, उसकी पूर्ति नहीं करता। और बहुत सीमित ही हम लोगों का दान का व्यवहार चल रहा है। हम पढ़ाना चाहते हैं, तो अपने बच्चों को भी पढ़ाओ, ठीक है। लेकिन हम दूसरों को पढ़ायेंगे। जिन्हें कुल परम्परा से शिक्षा प्राप्त नहीं है, उन्हें भी पढ़ाना चाहिए। तो उनकी विशुद्धि और बढ़ेगी। आत्मतत्व, आत्मधर्म का ज्ञान सीमित या घर तक नहीं रखना चाहिए। उपकरण-दान के बाद एक और आ जाता है अभयदान। समय कम होते हुए भी मैं इसकी विशेष रूप से व्याख्या करना चाहूँगा।


    अभयदान सबसे बड़ा दान माना जाता है। वह इतना बड़ा है, कि किसी भी जीव को हमारे निमित से भय न लगे। आज तो सभी भयभीत जीव हैं। किसी महान् व्यक्तित्व की प्रतीक्षा में हैं। कि कोई आयेगा और हमारे लिए अभयदान दे। इस संकट से मुक्त कराये। महावीर जैसे महान् व उदार आत्मा आ जावे, तो निश्चित ही हमारे बंधन छूट सकते हैं। हमारा यह बंध रुक सकता है। हमारा यह संकट छूट सकता है। हमारी यह आपदा छूट सकती है। आज करोड़ों-करोड़ों जानवरों के ऊपर संकट आया है, उनको खाते समय भी यह भान हो रहा है, कि हमारा अन्त अब निकट है। कोई महान् व्यक्तित्व ही इसे दूर कर सकता है।


    मान लीजिये, एक सामान्य व्यक्ति आराम से जी रहा है। लेकिन उससे कह दिया जाये, कि आपके दस साल मात्र शेष हैं। तो सब, अब वह दस साल, भयभीत होकर ही बितायेगा। उसी प्रकार उन पशुओं के भी एक-दो, एक-दो करके भाई-बहिन चले जाते हैं। उनके परिवार को ज्ञात तो होता होगा। मानली, आप अपने परिवार से किसी को भेज देते हैं, तो वह पहले पूछता है-हमें बताओ, कहाँ भेजा जा रहा है हमें ? परिवार वाले भी सोचते हैं-हमारे परिवार का लड़का कहाँ जा रहा है ? क्या पता। और वापस आयेगा या नहीं ? क्या पता। उसको भेजा जाता है और मालिक की जेब में पैसा आ जाता है। मालिक पैसे की ओर हाइलाइट करके देख लेता है। लेकिन उनके मातापिता, भाई-बहिन हैं, वे कहते होंगे, सोचते होंगे-हमारे परिवार का एक सदस्य निकल गया।


    दीपावली और दशहरा, ये उत्सव भी पर्व कुछ मायने नहीं रखते। बन्धुओं! ध्यान रखना, जो बली का बकरा होता है, उसी को ज्ञात होता है कि उस पर क्या बीत रही है। और जैसा कि भाई ने कहा-मेरे लिए समय ज्यादा नहीं, किन्तु उन प्राणियों की रक्षा के लिए भी सोचना आवश्यक है। कत्लखाने बन्द करो, कहने से कत्लखाने बन्द नहीं हो सकते। बल्कि जो प्राणी निराश्रित हैं, जिनके लिए कोई अभय देने वाला नहीं है, उनके लिए भी कुछ प्रबन्ध आवश्यक है। यद्यपि उनके लिये कोई एयर कंडीशन मकान की आवश्यकता नहीं होती। ये नदी-नालों का पानी पी लेते हैं। और अगर एक छप्पर मिल जाय तो ठीक, नहीं तो धरती माँ के ऊपर लेटकर-बैठकर ही अपना समय गुजार लेते हैं। एक-दो बार चारा और पानी की मात्र आवश्यकता होती है। उनके लिए कोई मालमलाई की आवश्यकता नहीं। भूसे की आवश्यकता है। बन्धुओं! चावल-चावल आप ले लो, भूसा उन्हें दे दी। वे इस प्रतीक्षा में होंगे कि हमें संकट से उबारने वाला कोई व्यक्ति आ जाये। आप लोग मनोरंजन में मस्त हैं। व्यर्थ पैसा खर्च कर रहे हैं। करोड़ों रुपये बहाते रहते हैं, आप लोग विषयों और कषायों में। लेकिन अभयदान के विषय में कोई सोचता है ? जो सोचता है वह सम्यग्दर्शन के बारे में विभिन्न पहलुओं से अध्ययन कर चुका है, यह ज्ञात होता है। क्योंकि तन, मन, धन, वचन इन सबको वह अपने व दूसरे के सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति में ही न्यौछावर करना चाहता है। धन का और कोई महत्व नहीं होता।


    धन के ऊपर तिलक लगाने से धन का विकास नहीं होता, ध्यान रखो। और धन की पूजा करने से धन नहीं आता, किन्तु धन का यथोचित स्थान पर उपयोग करने से ही उसका विकास होता है। अभयदान की बात मैं इसलिए कर रहा हूँ कि वह जीव आपको पहचानेगा। और अगर वह कहीं दूर भी चला गया, तो भी वह आपको पहचान लेगा। यदि आप आपत्ति में होंगे तो वह आपकी सहायता करने का प्रयास करेगा। वह आप पर उपकार करेगा। ये जानवर मूक भले ही हों, बोलते नहीं है, लेकिन चेतना उनकी ऐसी ही है, जैसी आपके पास है। बल्कि मोह का प्रभाव आपकी चेतना के ऊपर ज्यादा हो सकता है। आपको हर चीज को देखकर यह भावना होती है, कि यह हमारे लिए आवश्यक है। लेकिन उनमें ऐसे भाव नहीं है। वे चाहते भी नहीं हैं। उनका जीवन प्रकृति पर आधारित जीवन है। वे आपके आश्रित रह रहे हैं, इसका मतलब यह नहीं, कि आप जब कभी भी, जिस किसी को भी उन्हें बेंच दें। आप तो उनसे दूध लो, दही लो, घी लो, सब कुछ ले लो और अपने शरीर को पुष्ट बनाओ। यह काम में नहीं आयेगा। ध्यान रखना, पहले भी व्यापार होता था। तब सोच समझ करके गाय-भैंस बेचा करते थे। वे कभी मूल्य से नहीं बेचते थे। वैसे ही दिया करते थे। जो रक्षक होता था, उसके पास भेजा करते थे। जिस प्रकार आप लोगों के यहाँ विवाह सम्बन्ध होता है, उसी प्रकार देखकर छान-बीनकर ही उन्हें दिया करते थे। जिससे वे जहाँ कहीं भी चले जायें आराम से अपना निर्वाह कर सकें। आज उन्हीं पशुओं पर आपत्ति की घड़ी आ चुकी है। आप लोगों के अविवेक का ही यह परिणाम है। अपितु, यह कहना चाहिए कि जो विशेष विवेकशील हैं वे इस ओर ध्यान नहीं दे रहे हैं।


    एक व्यक्ति अगर चार-पाँच लाख रुपया भी खर्च करता है, तो सी-डेढ़ सौ जानवरों की रक्षा आराम से हो सकती है। यह बात भी आपके ज्ञान में रहना चाहिए। कितने लोगों की रक्षा आप कर रहे हैं। जिस प्रकार आप किसी की मदद करते हैं, उसी प्रकार आप इन जीवों की भी रक्षा कर सकते हैं। मान ली, आप एक जानवर को गोद लेते हैं, तो भी बहुत बड़ा उपकार है, भाग्य है आप लोगों का। वह कभी भी किसी भी भव में छूटेगा नहीं। वह भव-भव में काम आयेगा। क्योंकि सबसे बड़ा यदि धर्म है, जो महावीर भगवान् ने कहा है, तो वह अहिंसा धर्म है। जीव दया धर्म है।


    धम्मी दयाविसुद्धो.।

    दया धर्म का मूल माना गया है। यदि मूल दया धर्म से ही आप लोग हाथ धोकर तत्वचर्चा में ज्यादा समय निकाल देते हैं, तो वह कोई कार्यकारी नहीं है। काम आने वाला तो जीवित धन है, उसमें आप लोग मुख्य रूप से काम करिये। उनका आप क्या उपकार कर रहे हैं ? उनके निमित से आप अपनी आत्मा का उपकार कर लेते हैं। यह भी अभिमान छोड़ देना चाहिए, कि मैंने उपकार किया। उपकार क्या किया ? यह उसका पुण्य था, तो आपने उसके अनुसार कर लिया। उसके निमित से आपको प्रशस्त रास्ता मिल गया। उसके निमित्त से आपने अपने सम्यग्दर्शन की रक्षा की। उनकी रक्षा से एक प्रकार से आपकी परीक्षा हो गई और उस परीक्षा में आपको अच्छे अंक मिल गये, इस कार्य को करने से।

    दया के विषय में जैन-जैनेतर सभी से मेरा कहना है, कि मात्र ज्ञान का ही प्रयोग न करें। दया का प्रयोग भी कर सकते हैं और आश्रयदान जिसको बोलते हैं, उसका भी प्रयोग कर सकते हैं। आहारदान भी है और ज्ञानदान भी है। जानवरों के लिए ज्ञानदान की क्या आवश्यकता है ? जानवरों के लिए पाठशाला खोलेंगे क्या ? क्या जानवर आपके संवेदन से उपकृत नहीं होते ? एक बार पहचान जायें तो पहचानते ही रहते हैं। आपका वेश बदल भी जाये, आपकी पर्याय बदल भी जाये, तो भी वह आपको नहीं भुला सकते। उनके पास इस प्रकार का कैमरा है, शक्ति है। उपयोग प्रत्येक के पास विद्यमान है।


    शील की रक्षा होनी चाहिए। आज जो माहौल चल रहा है, उसको देखते हुए लगता है, भारत, अमेरिका और इंग्लैंड एक जैसे हो जायेंगे। ऐसी हवा आ रही है, आज गर्भपात की हवा ऐसी घुस गयी है। शील को बिल्कुल बर्बाद कर रही है, क्योंकि खुल्लमखुल्ला शासन की ओर से इसको वैधानिक रूप दिया जा रहा है। कोई सजा नहीं, बल्कि पैसा और दिया जा रहा है। इससे विवेक बिल्कुल भ्रष्ट हो जायेगा, शील रहेगा ही नहीं।


    वात्सल्य, करुणा, दया व सम्यग्दर्शन, ये सब आस्था के विषय पर निर्धारित रहते हैं। इनको कोई भी नहीं छुयेगा। इनसे कोई सम्बन्ध नहीं रहेंगे। सब सम्बन्ध टूट जायेंगे। शील के कारण ही आप लोगों का यह व्यवहार सुनियोजित चल रहा है। शील यदि यद्वा-तद्वा खो गया, तो यह सब काम समाप्त हो जायेगा। जैसा कि विदेशों में आज हो रहा है। दस वर्ष पूर्व सुना था, एक महिला ने अपने जीवन में ८० बार विवाह किया। एक साल में दो-तीन विवाह कर लिये। पुरुष तलाक नहीं देते हैं, महिलाओं में आपस में विश्वास नहीं। पैसा ले लिया और तलाक। फिर दूसरे और सम्बन्ध। सोचिये, उनके जीवन में क्या प्यार रहेगा ? लव मैरिज। पहले प्रेम उसके उपरान्त बंधन। यहाँ पर पहले बंध बाद में प्यार।


    भारतीय संस्कृति के अनुसार माता-पिता के द्वारा ही विवाह कराये जाते हैं। और यह अच्छा विवाह माना जाता है। लव मैरिज को भारतीय संस्कृति के अनुसार अच्छा नहीं माना जाता। इस फैशन से राष्ट्र उन्नत हो रहा है, ऐसा समझना गलत है। आगे जाकर दुख का अनुभव करना पड़ेगा। पश्चाताप करना पड़ेगा। आज अमेरिका सबसे बड़ा दुखी राष्ट्र माना जा रहा है, शील के अभाव के कारण। इसलिए उपवास यानि आत्मतत्व के पास आना। शरीर की जो अधीनता है, उसको कम करना और आत्मा के पास आना। जिसके कारण आत्मा की शक्ति बढ़ती चली जाती है।


    दान, भगवान् की पूजा, अर्थात् गुणों की उपासना, शील और उपवास ये चार धर्म गृहस्थों के मुख्य माने गये हैं। इसी के माध्यम से आपका यह सागारधर्म अच्छे ढंग से चलने वाला है। गृहस्थों का कर्तव्य होता है, कि अपने बच्चों के ऊपर संस्कार डाले। जैसा उन्होंने अपने जीवन में धर्म का समार्जन किया, उपासना की, आत्मतत्व के बारे में ज्ञान प्राप्त कर लिया, उसी प्रकार उनके ऊपर और जो होनहार हैं, जिनके पास योग्यता है, उन व्यक्तियों के ऊपर भी आप संस्कार डाल सकते हैं। मात्र जैनी के ऊपर ही डालना चाहिए, अजैन के ऊपर नहीं डालना चाहिए, ऐसी बात नहीं सोचना चाहिए। क्योंकि जैनाचार्यों ने कहा है-धर्म के संस्कार वहाँ पर भेजना चाहिए, वहाँ पर जा करके रखना चाहिए, जहाँ पर सभी को प्रकाश मिल सके।


    जिस प्रकार प्रकाश में प्रकाश की आवश्यकता नहीं होती। अन्धकार में उसका मूल्य और महत्व बढ़ जाता है। उसी प्रकार आज यदि आपका जीवन संस्कारित है, तो जो संस्कारहीन व्यक्ति हैं, उनको संस्कारित बनाने का प्रयास कर लीजिये। इसके द्वारा आपके तन का, मन का और धन का उपयोग अच्छा हो सकता है। कोई भूखा नहीं है और उसको आप खिलाते जा रहे हैं, तो यह क्रिया अपव्यय ही कहलायेगी। समय भी चला जायेगा और परिश्रम भी व्यर्थ जायेगा। प्रत्येक व्यक्ति का यह कर्तव्य होता है कि वह एक संस्कारित जीवन का निर्माण करे। इसी से धर्म आगे बढ़ सकता है। इसके माध्यम से स्व और पर, दोनों का कल्याण होता है। अभयदान देने का आप लोग विशेष रूप से ध्यान रखेंगे। क्योंकि समन्तभद्र स्वामी ने कहा


    अज्ञानतिमिरव्याप्तिमपाकृत्य यथायथम्।

    यथायथम् यह शब्द बहुत ही मार्के का है। जिन शासन की, जैनेन्द्र शासन की महिमा उस समय हो सकती है, जब भोजन की आवश्यकता हो, तब भोजन। जिस समय आवास की आवश्यकता हो, उस समय आवास। जिस समय औषध की आवश्यकता हो, उस समय औषध। जिस समय अभयदान देना हो, उस समय अभयदान की पूर्ति होना चाहिए। ऐसे निराश्रित परिवार कई हैं। उनके बारे में आप कभी सोचते हैं क्या ? एक परिवार को आपने सुव्यवस्थित बना दिया, तो कितना बड़ा काम कर लिया, यह सोची।


    मान लो, आपने एकाध लाख रुपया खर्च करके एक परिवार, जिसमें कि चार-पाँच सदस्य हैं, को खड़ा कर दिया। व्यवसायादि में लगा दिया। तो वे व्यक्ति धर्म-कर्म करते हुए अपनी गुजर कर सकते हैं। आपने कितना बड़ा काम कर दिया। जीवन पर्यन्त उनका काम चालू हो जायेगा। धन का सदुपयोग ऐसे ही हुआ करता है। इस दिशा में जैन समाज बहुत मौन है।


    समय की कमी होने के कारण हाइलाइट भी समाप्त हो रही है। दस दिन में जो कुछ भी आपने अर्जन किया, श्रवण किया, उसको आगे बढ़ाने का अभ्यास करें। इसी प्रकार आपका मन सद्कार्य में लगा रहे। ऐसा आशीर्वाद।


    ॥अहिंसा परमो धर्म की जय।

     

    जैन धर्म कोई जातिपरक धर्म नहीं है। जैन धर्म उस बहती गंगा के समान है, जिसमें कोई भी व्यक्ति स्नान कर सकता है और अपने पापों को मिटा सकता है। उसमें अवगाहन करके अपने कषाय भावों को, विकारों को पृथक् कर हृदय एवं मन को, तन को भी स्वच्छ-साफ किया जा सकता है। जैन धर्म का आधार लेने के उपरान्त भी जो व्यक्ति केवल अहंकार-ममकार को पुष्ट बनाता है वह अपने जीवन काल में कभी भी धर्म का सही स्वाद नहीं ले सकता। उज्ज्वल भाव-धारा का नाम धर्म है।


    मर जाना अच्छा है, पर धर्म बिना जीना अच्छा नहीं, क्योंकि धर्म के अभाव में जीवन नहीं होता, केवल जीवन का अभिनय होता है, नाटक होता है और उसी में व्यक्ति अटका रहता है जबकि नाटक शब्द स्वयं कह रहा है न.अटक । नाटक.।


    वह ज्ञान जयवन्त रहे, जिस 'ज्ञान में तीन लोक व तीन लोक के विगत-अनागत वर्तमान पर्यायों सहित संसार के समस्त पदार्थ प्रतिबिंबित हो रहे हैं। जिस प्रकार दर्पण के सामने जो कोई भी पदार्थ आ जाता है वह उसमें प्रतिबिंबित होता है, उसी प्रकार वह ज्ञान जयवन्त रहे, उस ज्ञान की जय -हो अर्थात् उस ज्ञान का सही-सही मूल्यांकन हों। जिसमें तीन लोक का प्रतिबिंब अनायास आ जाता है।


    मुमुक्षु सम्यग्दृष्टि की बात है वह जब कोई धार्मिक अनुष्ठान करता है तो उसके हृदय में आनन्द की बाढ़ आती है। ऐसे महान् विषम पंचमकाल में भी महान् सतयुग जैसा काल अनुभूत होता है, जिसका सहज ही आनन्द अनुभव होता है।


    जैनधर्म की विशालता को ध्यान में रखते हुए सभी जैनियों को धर्म का प्रचार-प्रसार जैनियों की सीमा तक ही नहीं करना चाहिए। जो कोई भी धर्म से स्खलित हैं, पथ से दूर हैं उन्हें धर्म मार्ग पर जाने का प्रयास करना चाहिए। जो पतित हैं उन्हें गले लगाना चाहिए।


    दान के बिना अहिंसा की रक्षा ना आज तक हुई है और न आगे होगी। पैसे वालों को भूदान, आवासदान, शैक्षणिकदान, आहारदान आदि सभी पर ध्यान देना जरूरी है। अभयदान का भी ध्यान रखें।


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