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सोशल मीडिया / गुरु प्रभावना धर्म प्रभावना कार्यकर्ताओं से विशेष निवेदन ×
नंदीश्वर भक्ति प्रश्नोत्तरी प्रतियोगिता ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • आत्मा

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    आत्मा विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी  के विचार

     

    1. नाम के पीछे, दाम के पीछे और काम के पीछे सभी लोग आतम राम को भूले हुए हैं।
    2. पर घर आत्मा के लिए परतन्त्रता है।
    3. अर्थ की पगचम्पी न करो, वह अर्थ तो सेवा के लिए हाजिर हुआ है उसकी आप सेवा न करो। अपनी सेवा करो।
    4. अपनी आत्मा के स्वभाव को भूल जाना और दूसरे पदार्थ को पकड़ना चोरी है। हम अनादिकाल से दूसरे पदार्थों को पकड़ने के कारण चोर ही बने हैं,साहूकार नहीं बने।
    5. ‘खुदा का बन्दा' बनना असान है किन्तु ‘खुद का बन्दा' बनना कठिन है। खुद के बन्दे बनो।
    6. शरीर की ओर नहीं आत्मा की ओर दृष्टि रहे। जैसे-ऋषभनाथ भगवान् की काया ५०० धनुष और भगवान् महावीर की काया ७ हाथ लेकिन आत्मिक दृष्टि से समान थे।
    7. दृढ़ विश्वास रखो। स्वाश्रित रहने का स्वप्न देखा करो दिन में भी रात में ही नहीं।
    8. अनासक्त भाव सांसारिक विषयों से आसक्त भाव अपने प्रति रखो। स्वप्न से ही विकास अधिक होगा।
    9. स्वप्न साकार हो इसके लिए सावधानी आवश्यक है। स्वप्न में एकाग्रता रहती टेंशन नहीं होता।
    10. स्वयं को पहले सम्हालो फिर दूसरे को। दूसरा संभलें या नहीं लेकिन अपने आपको तो सम्हाले रखो इससे पल पल वेतन बढ़ रहा है।
    11. अपने आपको नियंत्रण में रखते हुए दूसरे को भी नियंत्रण में रखना कठिन है।
    12. वेग कितना भी तेज हो लेकिन नियंत्रण में वह गिर नहीं सकता। जैसे-सरकस में मौत का कुआं।
    13. वह सरकस वाला असंयमी होकर भी मौत से नहीं डरता हम तो संयमी हैं। उसे ये भरोसा रहता है मैं मरूंगा नहीं तभी तो वह दिखा रहा है।
    14. आत्मा भार रहित है शरीर के कारण भार रखता है। इसको हल्का करना है, ऊपर उठना है तो जो कमियाँ हैं उन्हें अलग करो।
    15. दुनिया की छोटी से छोटी वस्तु भी हमारे आकर्षण का केन्द्र बन जाती है और तीन लोक की सम्पदा से भरा हुए ये व्यक्तित्व भी जो छिपा हुआ है, उसके बारे में हम कभी भी सोचते तक नहीं।
    16. विषय सामग्री जितनी फैलती चली जायेगी इस धरती पर व्यक्ति उतना ही परांगमुखी होता चला जायेगा, आत्मोन्मुखी तो हो ही नहीं सकता।
    17. पहले अन्तर्मुखी और उर्ध्वमुखी हुआ करते थे, आज बहिर्मुखी हो रहे हैं और बहिर्मुखी होना इस युग का सबसे बड़ा अभिशाप है।
    18. आज दूरदृष्टि की आवश्यकता है दूरदर्शन की नहीं क्योंकि दूरदर्शन को देखने से आंखों की ज्योति खराब होती है और दूरदृष्टि रखने से हमारा मानसिक स्तर बढ़ता चला जाता है।
    19. जितनी दूरदृष्टि रखोगे, चिंतन की धारा उतनी ही डीप तक पहुँच जायेगी और जितनी गहराई में पहुँचोगे उतने ही माणिक मोतियों का खजाना आपको मिलेगा।
    20. अंग से हटकर अंतरंग में भी जाने का प्रयास करो।
    21. वेग बढ़ाओ आवेग/उद्वेग नहीं। वेग बढ़ाओ, निर्वेग बढ़ाओ और संवेग बढ़ाओ। संवेग और निर्वेग का विकास यदि होता है तो अपने आप ही वह अपने आप में लीन हो जाता है।
    22. हमेशा-हमेशा आत्म तत्व को/ परमात्मतत्व को मुख्य बनाओ। जड़ गौण हो जाये, उस पर हाइलाईट मत दो।
    23. जड़ के ऊपर हाइलाईट देने से आत्मतत्व व प्रभुतत्व, ये दोनों गौण होने से अंधकार सामने आ जायेगा।
    24. आज जड़ लक्ष्मी का आदर और चेतन लक्ष्मी का अनादर हो रहा है।
    25. आज तक जड़ (अचेतन) को कभी पसीना नहीं आया, आत्मा को ही आयेगा। जिसका सीना है उसी को पसीना आता है।
    26. स्वहित के बिना विश्व हित सम्भव नहीं।
    27. अविनश्वर सुख शांति का वैभव, अनन्त गुणों का भण्डार तो हमारे भीतर ही है और हम इसे भूलकर बाहर हाथ पसार रहे हैं।
    28. अस्सी साल का वृद्ध भी दिन भर में कम से कम एक बार दर्पण देखने का अवश्य इच्छुक रहता है किन्तु आत्म-तत्व देखने के लिए आज तक किसी ने विचार नहीं किया।
    29. दूसरे का खण्डन नहीं, अपना मण्डन होना चाहिए।
    30. यह कोई नहीं सोचता कि ऐसा कौन सा दर्पण खरीद लू जिसमें मैं अपने आपका वास्तविक रूप देख सकूं।
    31. आकर्षण का केन्द्र शरीर न होकर उसमें रहने वाली आत्मा ही हो जाये।
    32. संसारी प्राणी ने आज तक पवित्रता का आदर नहीं किया है और अपवित्रता को ही गले लगाया है। यही कारण है कि उसे आत्म-तत्व का परिचय नहीं हुआ, जो ज्ञान दर्शन लक्षण वाला आत्मा है उसका दर्शन नहीं हुआ।
    33. पदार्थों की ओर होने वाली दौड़ ही व्यक्ति को कंगाल बनाती है, जो अपने में स्वस्थ है, उसके पास मौलिक सम्पदा आज भी है।
    34. बाहरी विषयों के साथ सम्बन्ध रखने वाला शुद्ध आत्मतत्व के बारे में स्वप्न में भी नहीं सोच सकता ।
    35. जो दुर्लभ वस्तु होती है उसको प्राप्त करने में बड़ी कठिनाई होती है, इन कठिनाइयों को पार करना ही कुशलता है क्योंकि ध्रुव की ओर जाना है इसलिए इधर उधर की बातों से बचिए।
    36. जिसको अपनी कीर्ति, नाम की इच्छा नहीं रहती है, वही आत्मा की भक्ति कर सकता है।
    37. जब तक बालक कमजोर है तब तक ही पिता जी का हाथ पकड़ कर चलता है, बाद में स्वयं चलता है। इसी प्रकार प्रभु की भक्ति भी जब तक मोक्ष का रास्ता नहीं दिखे तब तक करना है, उसके बाद आत्मा की भक्ति करना है।
    38. जो आत्मा का दास है वह तकलीफ नहीं देता, जो आत्मा को दास बनाता है फिर उसका दुर्भाग्य ही है।
    39. ब्रह्मचारी आत्मा की ओर देखता है और विषयी शरीर की ओर देखता है।
    40. ब्रह्मचारी वह है जो दूसरों को पकड़ने की चेष्टा न कर अपने आपमें रमण करने की चेष्टा करे।
    41. आत्म-पथ में कठिनाइयाँ ही तो सफलता का भवन बनाती है अत: हमको आत्म प्रकाश की खोज हमेशा करना चाहिए।
    42. जो अपने निकट नहीं रहता वह अभ्यस्त और अभ्यास से दूर है।
    43. अपने आपको याद करना सबको आता है, स्वभाव को याद करना नहीं आता है। अपने आपको याद करते हैं तो भी पर्याय को, द्रव्य को, गुणों को लेकर नहीं करते। गुणों को याद करना ही दया है।
    44. मोह के उदय में स्वयं को गाफिल न होने देना ही आत्म पुरुषार्थ है।
    45. आत्मा समझ में नहीं आता तो अनात्मा को तो समझ लो।
    46. अन्य सम्पदा से प्रभावित होने पर आत्म सम्पदा अनादर को प्राप्त होती है।
    47. आत्मा के वैभव का दर्शन बाह्य सम्पदा के रहते हुए नहीं हो सकता। चक्रवर्ती को भी यह सम्पदा फेंकना पड़ी तभी आतम का वैभव मिला।
    48. सभी आत्म निर्भर हो जाओ, भार रहित हो जाओगे।
    49. आत्म परायणता मात्र व्रती का ही कार्य है।
    50. आत्म तत्व में परायण करने वाला पंचेन्द्रिय विषयों का रस छोड़ देता है।
    51. पर को भूलने की कला सीख लो स्व (आत्मतत्व) प्राप्त हो जायेगा।
    52. भीतर आगमन नहीं हुआ तो आगम से कुछ प्रयोजन नहीं सिद्ध होगा।
    53. यह मेरा है, मैं इसका हूँ ऐसा भाव जब तक नहीं छूटता तब तक आत्मा नहीं दिखेगी। स्व संवेदन को छोड़कर अन्य कुछ हमारा व्यक्तित्व नहीं है।
    54. बाह्य चित्र को देखते हुए उसे गौण करिये तभी अंतरंग दिखेगा।
    55. स्व में स्थिर होना स्वस्थ होना है स्वस्थ का जो भाव है वह स्वास्थ्य है।
    56. ऐश्वर्य का मोह सत्य से विचलित कर देता है।
    57. चारों गति रूप आवागमन से मुक्त होना ही सच्चा पुरुषार्थ है। यही कल्याणकारी है। शरीर का कल्याण नहीं करना है, हमें आत्मा का कल्याण करना है।
    58. वास्तव में आत्मा को परमात्मा बनाने के लिए ही तुमने मानव शरीर धारण किया है। यदि तुम उस ओर नहीं चले तो तुम्हारा जीवन व्यर्थ ही चला जायेगा।
    59. देखो ! अब तक जो भूल हो गई है उसके लिए पछताने से कोई लाभ नहीं है। जीवन के जितने दिन बाकी हैं उन्हीं को दृढ़ संकल्प करके 'आत्म-चिंतन' में लगाकर जीवन को सफल कर लो। ऐसा नर भव बार-बार नहीं मिलने वाला।
    60. आकाश के फूलों से बन्ध्या के पुत्र के लिए सेहरा (मुकुट) बनाने का प्रयास करने वाला जैसे मूर्ख माना जाता है, वैसे ही रत्नत्रय अर्थात् महाव्रत को स्वीकार किये बिना जो आत्मध्यान करने की इच्छा करता है वह मूर्ख माना जाता है।
    61. शरीर के प्रति वैराग्य और जगत के प्रति संवेग ये दो बातें ही आत्म कल्याण के लिए आवश्यक है।
    62. लक्ष्य बनाओ भार उतारने का, बढ़ाने का नहीं और यह तभी हो सकता है जब आप याद रखेंगे-तेरा सो एक, जो तेरा है वह एक।

    Edited by संयम स्वर्ण महोत्सव


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