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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पावन प्रवचन 2 - आदर्श कौन...

       (1 review)

    रत्नत्रय वह अमूल्य निधि है जिसकी तुलना संसार की समस्त सम्पदा से भी नहीं की जा सकती। धर्म का सम्बन्ध देहाश्रित कम हुआ करता है आत्माश्रित ज्यादा।


    मैं तुम्हारे अण्डर में रहने वाला प्राणी जरूर हूँ, लेकिन मेरा प्रण है कि अन्याय करने वाले को कभी नहीं छोडूंगा, चाहे भले ही मेरे प्राण चले जायें।


    आचार्य समन्तभद्र कहते हैं कि वह गृहस्थ उस मोही मुनि से भी श्रेष्ठ है जो मोक्षमार्ग पर आरुढ़ है। उलझे हुए मुनि से सुलझे हुए गृहस्थ आदर्शमय हैं तो उलझे हुए गृहस्थों से सुलझे हुए पशु श्रेष्ठ हैं।


    आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी द्वारा विरचित 'रत्नकरण्डक श्रावकाचार' है, जो कि श्रावकों के लिए एक संजीवनी वटी है, जिसके द्वारा श्रावकों की सब बीमारियाँ समाप्त हो जाती हैं, कहने को तो कह देते हैं कि श्रावकाचार है, किन्तु समन्तभद्र स्वामी ने इसे 'रत्नकरण्डक' माना है। आप लोगों के यहाँ, शक्ति अनुसार बहुमूल्य पदार्थों का संग्रह हुआ करता है। किसी के पास हीरे, माणिक्य, सोना रह सकता है, किन्तु उनको आप कहाँ पर रखते हैं, दो मिनट में मैं इस प्रसंग को समाप्त करना चाहूँगा, आप उन बहुमूल्य पदार्थों को Treasury में रखते हैं और उसमें अलीगढ़ कम्पनी वाला, एक अच्छा बड़ा सा ताला लगाते हैं और चाबी अपने पास रखते हैं, ताकि उन्हें कोई निकाल न सके।


    Treasury में रखकर भी क्या आप उन्हें ऐसे ही रख देते हैं ? नहीं Treasury के अन्दर एक अण्डर ग्राउण्ड रहता है, उसमें भी एक और पेटी रहती है, उस पेटी में भी एक छोटी सी पेटी और रहती है। इन सब पेटियों के ऊपर पुन: छोटे-छोटे ताले लगे रहते हैं, और ध्यान रखिये अन्तिम जो पेटी है, उस पेटी में एक डिब्बा रहता है, उस डिब्बे में एक और डिबिया रहती है, उस डिबिया में पुड़िया रहती है और अनेक प्रकार के कागजों की अन्दर-अन्दर और भी पुड़िया हैं। अन्तिम जो पुड़िया है उसमें जिस वर्ण के रंग का नग है, हीरा है, उससे विपरीत रंग का कागज रहता है। मान लीजिए नीलम का एक नग है तो उसको अच्छे लाल-लाल कागज में रखते हैं।


    जब पुड़िया खोलते चले जाते हैं, तब कहीं जाकर वह नग दिखाई देता है, उस नग को आप अपने हाथ भी नहीं लगाते दूर से ही ग्राहक को दिखाते हैं, इस प्रकार आप अपने नग की सुरक्षा करते हैं, एक की सुरक्षा के लिए और शोभा के लिए इतना प्रबन्ध हुआ करता है। आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी ने इस ग्रन्थ में तीन वस्तुओं का वर्णन किया है। सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान और सम्यक्रचारित्र इन तीन वस्तुओं की तुलना संसार की समस्त सम्पदा से भी नहीं कर सकते। दो वस्तुओं को तो रहने दीजिए, लेकिन मात्र सम्यकदर्शन की तुलना भी हम अन्य सम्पदा से नहीं कर सकते, त्रैलोक्य में, तीन काल में सम्यकदर्शन के अलावा हितकारी अन्य कोई वस्तु नहीं है, ये वस्तुएँ एक से बढ़कर एक हैं जिन्हें आप दुनियाँ में कहीं भी चले जाओ, किसी भी दुकान में चले जाओ, आप खरीद नहीं सकते। सुनना तो दूर रहा, ऐसी ये मौलिक वस्तुएँ हैं, रत्न हैं जिनकी प्राप्ति के लिए उन्होंने १५० श्लोकों की रचना की है।


    'रत्नकरण्डक श्रावकाचार' का अर्थ केवल चारित्र पर, आचार संहिता या मात्र क्रियाकाण्ड वाली बात नहीं है। इस युग में समन्तभद्र एक ऐसे आचार्य हुए हैं, जो भगवान् की परीक्षा करने वाले थे, ऐसे आचार्य भिन्न-भिन्न महान् ग्रन्थों की रचना करते-करते क्रियाकाण्ड की बात कह कर के चले जाएं, यह सम्भव नहीं है। बल्कि उन्होंने इस ग्रन्थ में जो अपना अनुभव दिया है, वह अलौकिक है।

     

    यदि आप मुनि नहीं बन सकते हो, तो कोई बात नहीं, किन्तु 'स्नकरण्डक श्रावकाचार' के अनुरूप अपनी चर्या तो बना लीजिए। यदि आपने वैसी चर्या बना ली तो ‘समन्तभद्राचार्य' डके की चोट कहते हैं, कि कौन कह सकता है, कि प्राणी संसार में दीर्घकाल तक रुकेगा और कौन कह सकता है कि वह संसारी रहेगा, किन्तु वह अग्रगण्य रहेगा, प्रतिभा स्थानों में उसकी उन्नति होगी, शरीर की सुडौलता की अपेक्षा भी उन्नति होगी। हुकूमत (सत्ता) की प्राप्ति, मन्त्री, राजा, महाराजा आदि उच्च पदों की उपलब्धि ऐसे हुआ करती है, जैसे किसी को अस्पताल में, या बाजार में चश्मा खरीदने के उपरान्त उसके साथ-साथ क्या मिल जाता है, चश्मा रखने का Cover और यदि यह भी नहीं तो काँच को पोंछने के लिए मुलायम मखमल का कपड़ा तो मिल ही जाता है। यह अपने आप नहीं मिलता किन्तु उसके साथ जुड़ी हुई जो वस्तु है उसके साथ मिलता है। उसी प्रकार सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान, सम्यक्रचारित्र जिसके पास है, वह फिर कभी संसार में भिखमंगा नहीं रह सकता, वह किमिच्छक दान देने की क्षमता रखता है, किमिच्छक दान किसे कहते हैं ? चक्रवर्ती जब दिग्विजय करके आता है तो सारी की सारी प्रजा यह इच्छा रखती है कि प्रभु आ रहे हैं बहुत कुछ दान हमें देंगे।


    चक्रवर्ती के पास लोग हाथ जोड़ कर चले जाते हैं और जाते ही चक्रवर्ती सबकी झोली भर देता है। जो जिस वस्तु को चाहता है वह उसे मिल जाती है, इसको कहते हैं किमिच्छक दान। तो केवल क्रियाकाण्ड की रचना समन्तभद्राचार्य जी ने नहीं की किन्तु रत्नत्रय की स्तुति की है। रत्नकरण्डक श्रावकाचार में इन तीनों रत्नों को उन्होंने किस प्रकार रखा यह मैं कह रहा हूँ। आपने इन लौकिक रत्नों को जिनकी लाख दो लाख रुपये, जो भी कीमत है, उन्हें हजार, दो हजार रुपये वाली Treasury में रख दिया, किन्तु सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान, सम्यक्रचारित्ररूपी रत्नों को किसमें रखा है। तो समन्तभद्राचार्य' कहते हैं, कि भैया! तीन लोक में यह सरलता से नहीं मिलते, तो फिर उन्हें रखने के लिए कौन सी डिबिया चाहिए? बढ़िया से बढ़िया आत्मा रूपी करण्डक चाहिए, मतलब ? मतलब यह है कि आप लोगों ने रत्न ही नहीं देखे हैं, तो करण्डक की खोज कहाँ से करोगे। रत्नत्रय का बहुमान कितना है ? ये रत्न कितनी कठिनता से प्राप्त होते हैं, इस बात को सोचे बिना आजकल हवा ऐसी चल रही है कि कोई चारित्र की चर्चा करता जा रहा है, तो कोई मात्र सम्यकदर्शन अथवा सम्यकज्ञान की चर्चा कर रहा है। ‘समन्तभद्राचार्य' कहते हैं कि मोक्ष मार्ग इन तीनों की एकता में ही होगा, मात्र एक में ही नहीं। मोक्ष मार्ग वही है जो मुक्ति तक पहुँचा दे, इसलिए उन्होंने इसका नाम धर्म कहा है। ऐसे धर्म रूपी रत्नत्रय को नीचे नहीं रखना चाहिए। इस जगत में रत्नत्रय के बिना कोई साधन नहीं है, भगवान् के पास भी चले जाओ, तो भगवान् भी रक्षा नहीं कर सकेगे, हमारी रक्षा इन तीन रत्नों के द्वारा ही होने वाली है, वह सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान, सम्यक्रचारित्र का वर्णन करने वाला 'स्नकरण्डक श्रावकाचार' मात्र क्रिया काण्ड वाला नहीं है किन्तु वास्तव में जो क्रियाकाण्ड है उनसे छुड़ाने वाला यह ग्रन्थ है। कौन सी क्रिया समीचीन है, और कौन सी क्रिया असमीचीन है, इन सब बातों का ज्ञान हम इस 'रत्नकरण्डक श्रावकाचार' के माध्यम से कर सकते हैं।


    श्रावकों का यह परम कर्तव्य होता है यह जो १५० श्लोक प्रमाण 'रत्नकरण्डक श्रावकाचार' है, इसका पठन-पाठन हमेशा करें। हमें यह भी ज्ञान नहीं है कि हमारा ज्ञान कहाँ तक बढ़ सकता है? हमें यह भी बोध नहीं है कि हमारे पास कितना चारित्र होना चाहिए? हमें यह भी ख्याल नहीं है कि दूसरे के प्रति हमारा कैसा व्यवहार हो? यह सब सिखाता है स्नकरण्डक श्रावकाचार। जो व्यक्ति स्वयं नहीं चल सकता, वह जो गिरा हुआ है उसको कैसे उठा सकेगा? और यदि उठाता भी है तो उसका कोई महत्व नहीं है। आचार्य कहते हैं कि जो स्वयं बलिष्ठ है, स्थिर है, लेकिन! जिनके पास ज्ञान बल नहीं है, ज्ञान की अपेक्षा चारित्र में दृढ़ता नहीं है, उन्हें वह उस स्थान तक ले आए जहाँ पर वह है। सम्यक्त्व के आठ अंगों में, प्रभावना अंग के बारे में उन्होंने कहा है -

     

    अज्ञान तिमिर-व्याप्ति,-मपाकृत्य यथायथम्।

    जिनशासन-माहात्म्य,-प्रकाशः स्यात्प्रभावना॥

    १८॥र. श्रा.

    अज्ञानरूपी अन्धकार के विस्तार को हटाकर जिनशासन का माहात्म्य यथाशक्ति प्रकट करना प्रभावना अंग है। अज्ञान एक घने अन्धकार के समान है, जिस किसी व्यक्ति के जीवन में ऐसा अन्धकार आ जाए तो उसे हटाने में समर्थ कौन है, जिसका ज्ञान हमें आज तक नहीं रहा है, पथ क्या है ? पाथेय क्या है ? इसकी हमें पहचान नहीं है। जिस वस्तु की कमी है, उसकी पूर्ति करा देना, यही तात्कालिक प्रभावना मानी जाती है, उसको न करके यदि हम बातें मात्र करते चले जायें, तो कुछ भी नहीं होने वाला।


    इस दिशा में जैन समाज का बहुत ही शिथिलाचार चल रहा है, लेकिन! विशेष रूप से यह बात खटकती रहती है, कि हमारे आचारों में-विचारों में भी इतनी शिथिलता आती जा रही है, उसे शब्दों में नहीं कहा जा सकता। यदि इस समय समन्तभद्राचार्य होते तो वे यही कहते कि अब श्रावकों के लिए कोई दूसरा श्रावकाचार लिखने की जरूरत है, ताकि! वह वर्तमान के नामधारी श्रावकों के लिए एक नया बोध दें, गृहस्थ श्रावक की महिमा बताते हुए वे कहते हैं -

     

    गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो, निमोहो नैव मोहवान्।

    अनगारो गृही श्रेयान्, निर्मोहो मोहिनो मुनेः॥

    ३३॥र. श्रा.

    सम्यकदर्शन के प्रकरण में यह श्लोक आया है इसमें मुनि को ऐसा गिरा दिया, ऐसा गिरा दिया कि कुछ पूछो मत! यह समझ में नहीं आता कि ऐसा क्यों किया? बिल्कुल ठीक है, जो व्यक्ति अपनी भूमिका का निर्वाह नहीं करता तो वह व्यक्ति स्वयं गिर जाएगा, उठने का कोई उपाय ही नहीं। चौपात पर आप साईकिल पर जा रहे हैं जाते-जाते साईकिल Slip हो गई और आप धड़ाम से नीचे गिर गए और चौपात की बात है, चौपात है कितने लोग देखेंगे, सभी लोग देखेंगे वहाँ पर आप यह नहीं देखते कि पैर में लग गया है कि नहीं लगा, खून बह रहा है कि नहीं बह रहा और बिना देखे ही, किसी ने देखा तो नहीं, यहाँवहाँ देखकर जल्दी से साईकिल उठाकर भाग जाते हैं, मान लो कोई कहता भी है कि अरे! भैया लग गई वह कहता है कि नहीं नहीं।


    ऐसा क्यों होता है ? यह मर्यादा है, गिरना अच्छा नहीं माना जाता, वह भीतर से गिरना अच्छा नहीं समझता इसलिए लगी हुई चोट पर ध्यान नहीं देता हैं, उसी प्रकार आचार्य कहते हैं, यदि कोई मुनि लिंग धारण कर ले और मोही बन जाए, तो यहाँ पर कहने का मतलब यह है कि निर्मोहअवस्था को प्राप्त करने के लिए यह साधना थी लेकिन! निर्मोह अवस्था तो प्राप्त नहीं हुई, किन्तु उलझ गया मोह में, मायाजाल में, फैंस गया, तब उसके सामने उस गृहस्थ को लाकर रख देते हैं जो निर्मोही है और कह देते हैं कि अरे! तेरे से तो अच्छा यह गृहस्थ है जो कर्तव्य पर डटा है, लेकिन ‘समन्तभद्र महाराज ने ऐसा कहीं भी नहीं लिखा कि फिर तुम उस गृहस्थ की पूजा करो, यहाँ तक कहा है, कि यदि गृहस्थ है, श्रुत में पारंगत भी है, तो भी उसकी छाया मत पड़ने दीजिए अपने ऊपर, ऐसा क्यों कहा? गृहस्थ है, क्षायिक सम्यकद्रष्टि भी हो सकता है, ज्ञान भी है, तब फिर वह मुनि जाए उस गृहस्थ के पास और उसकी पूजा करे, नहीं फिर आपने तो कह दिया कि मोक्षमार्ग पर आरुढ़ की पूजा करनी चाहिए। वह गृहस्थ मोक्षमार्ग पर आरुढ़ हैं किन्तु साधु तो मोक्षमार्ग पर आरुढ़ नहीं रहा, इसलिए गृहस्थ की तो पूजा करनी चाहिए। किन्तु नहीं.नहीं, मेरा कहना तो यह है कि अरे! निर्मोहपने को प्राप्त कर ले, फिर उस मोही गृहस्थ के पास तीन काल में नहीं जाना। अभी तो आप गृहस्थ को मोक्षमार्ग पर आरुढ़ कह रहे थे और अब मोही कहने लगे हाँ.हाँ गृहस्थ जैसा मोही भी कोई नहीं। विषय कषायों में आमूलचूल रचा-पचा वह कैसे निर्मोही हो सकता? अपेक्षा की बात लेकर के चलना चाहिए। मोक्षमार्ग पर आरूढ़ होना अत्यन्त आवश्यक है उस मुनि के लिए उसके बिना लक्ष्य की पूर्ति, मंजिल की प्राप्ति नहीं हो सकती।


    एक बात और कहना चाहूँगा कि इस संसार में जितने भी स्कूल कॉलेज हैं, उन सब स्कूलों में, कॉलेजों में ३३ या ३६ नम्बर मिलने पर विद्यार्थी पास माना जाता है, ४४ अंक से ऊपर बढ़ गये तो Second Division मानी जाती है या ४६ नम्बर मिलने पर  god Second यानि Near about first class मानी जाती है और यदि ६० नम्बर मिल जाते हैं तो कहना ही क्या? बड़े-बड़े प्रोफेसरों के द्वारा पुरुस्कृत हो जाते हैं और उसमें भी यदि ७० प्रतिशत के ऊपर चले जाते हैं तो फिर कहना ही क्या? फिर वह कुलपतियों के द्वारा भी सम्मानित हो जाता है और वे कहते हैं कि भैया! मैंने भी जीवन में इस कक्षा में इतने नम्बर नहीं पाए जो तुमने पा लिए, इसलिए हम कम से कम तुम्हारा सम्मान करके ही खुशियाँ मना लेते हैं। यह तो रही लौकिक क्षेत्र की बात।


    हमारे कुन्दकुन्द महाराज, समन्तभद्र महाराज, तब तक टोकते रहते हैं, तब तक कान पकड़ते हैं, जब तक १०० नम्बर में से एक भी नम्बर कम रहता है। कितना कठिन हो गया, सौ बाई सौ नम्बर लेने वाला कोई है यहाँ और जब तक उसे सौ बाई सौ नम्बर नहीं मिल जाते तब तक वह पास नहीं माना जाता। Supplementry से घिसते-घिसते पास होना बात अलग है। आप कहेंगे महाराज Fail का अर्थ फेल होता है, Supplementry का अर्थ फेल नहीं होता.हाँ भैया! यह परिभाषा बना दी गई है। जब हम पढ़ते थे, उस समय Supplementry नहीं थी और आज तो तीन-तीन विषयों में Supplementry आती है, यह सब लौकिक क्षेत्र में पास करने की बात है, कैसे भी उठा दो, घसीटते-घसीटते ले जाओ! लेकिन ऐसा यहाँ पर बिल्कुल भी नहीं होगा।


    जैनधर्म का अर्थ एक प्रकार से चलना है, चलने के लिए, विचारों के लिए और अधिगम के लिए इस प्रकार के प्रतिशत रखे गए हैं, इसमें एक भी नम्बर की कमी नहीं हो सकती। आप सुनो सोचो और चलो तो मालूम होगा कि कितना कठिन काम है यह। बिल्कुल ध्यान रखना, यदि थोड़ी भी कमी रह गई, तो फिर मंजिल नहीं मिल सकती। मंजिल की प्राप्ति के लिए पूरी की पूरी तैयारी करनी पड़ेगी किन्तु बच्चे बहुत होशियार होते हैं, ज्यों ही अप्रैल, मई आने लगती है, त्यों ही वे कहने लगते हैं कि हम इस साल परीक्षा में नहीं बैठेगे। क्यों नहीं बैठेगे भैया! हम तो Division बनाना चाहते हैं, क्योंकि फेल होने की संभावना रहती हैं और Division आ रही हो तो कह देते हैं कि हम तो Merit में आना चाहते हैं, यह सारी की सारी कमजोरियाँ यहाँ नहीं चलेंगी। जिस रत्नत्रय को महावीर भगवान् ने प्राप्त किया था, कुन्दकुन्दाचार्य ने प्राप्त किया था, उसी रत्नत्रय को हम लोगों ने प्राप्त किया है। वह काल.वह संहनन आज नहीं है फिर भी कोर्स वही है। कोई भी अन्तर नहीं है। आज कल के कैसे बच्चे हैं कोर्स के लिए हड़ताल करते हैं हम भी भगवान् के सामने हड़ताल कर लें.नहीं.नहीं यह संभव नहीं है। आठ अंग वाला सम्यकदर्शन है इतना काल व्यतीत हो गया इसलिए कम से कम कुछ अंगों में तो कमी कर दो, किन्तु ऐसा नहीं चलेगा और ज्ञान और चारित्र में भी किसी प्रकार की कमी नहीं चलेगी। जब भगवान महावीर जैसा सुख प्राप्त करना तुम्हारे लिए इष्ट है, तो भगवान महावीर बनकर ही काम करना पड़ेगा, जो मोक्षमार्ग महावीर के समय में था, वही मोक्षमार्ग आज है और आगे भी रहेगा, किन्तु आप लोगों की प्रवृत्तियाँ कितनी बिगड़ चुकीं हैं और वे प्रवृत्तियाँ इतनी अधिक मात्रा में बिगड़ चुकी हैं कि क्या बताऊँ ? बच्चे भी स्कूल से हमेशा छुट्टियाँ ही छुट्टियाँ चाहते हैं, छुट्टी के नाम से विद्यार्थी ऐसे फूल जाते हैं, जैसे बसन्त में टेसू के फूल फूलते हैं। किन्तु! परिश्रम देखते ही मुरझा जाते हैं। आज इस कलिकाल में भी रत्नत्रय की प्ररूपणा ही नहीं बल्कि उसका पालन और अनुभव भी किया जा रहा है।


    आचार्य समन्तभद्र कहते हैं कि वह गृहस्थ उस मोही मुनि से भी श्रेष्ठ है, जो गृहस्थ निर्मोही है। आचार्य देव ने उलझे हुए मुनियों को सुलझे हुए गृहस्थों के उदाहरण दिये हैं और ऐसा कथन सुनकर गृहस्थ फूल न जाए इसलिए उलझे हुए गृहस्थों को सुलझे हुए पशुओं के भी उदाहरण दिये हैं। तथापि उलझे हुए मुनि का भी कितना महत्व है, इस बात को बताते हुए आचार्य कहते हैं कि जब उलझा हुआ मुनि सुलझे हुए गृहस्थ के द्वार पर आहारार्थ पहुँचता है और यदि वह गृहस्थ तीन बार नमोऽस्तु कहकर विधिपूर्वक पड़गाहन करता है तब कहीं उसके यहाँ जाकर महाराज आहार करते हैं, अन्यथा नहीं। यह ध्यान रखना कि गृहस्थ की दुकान उन्हीं के माध्यम से चलने वाली है, इस प्रकार कहने का मतलब यह है कि जब तक तुलना नहीं की जाती तब तक व्यक्ति ऊपर नहीं उठता। अत: इस प्रकार की तुलना आवश्यक है। समयसार में आचार्य कुन्दकुन्द देव एक स्थल पर कहते हैं

     

    जह कणयमग्गितवियं पि कणायसहावं ण तं परिच्घयदि ।

    तह कम्मोदयतविदो ण जहदि णाणी दु णाणितं॥१९१॥

    (समयसार, संवराधिकार)

    जिस प्रकार अग्नि से तपाने के उपरान्त भी कनक अपने कनकत्व अर्थात् स्वर्णपने को नहीं छोड़ता है, उसी प्रकार कर्मरूपी महान् अग्नि के द्वारा तपने के उपरान्त भी ज्ञानी लोग अपने ज्ञानीपने को नहीं छोड़ते हैं, जैसे पांडव, कितने थे ? पाँच थे (धर्म, भीम, अर्जुन,नकुल और सहदेव) जिसमें से धर्म, भीम और अर्जुन ये तीन तो मुक्त हो गए और शेष दो को मुक्ति का लाभ नहीं मिला। किन्तु सर्वार्थसिद्धि गए, यह सर्वार्थसिद्धि क्या वस्तु है ? तो आप जानते ही हैं षट्खण्डागम जैसे महान् ग्रन्थों की वाचना सुन रहे हैं। यह सबसे ज्यादा सुखमय और पुण्य के फल स्वरूप तैतीस सागर वाली आयु है, वहाँ पर दोनों तैतीस सागर के लिए अटक गए। यहाँ पर यह बात सोचनीय है कि जो नकुल और सहदेव सर्वार्थसिद्धि को गए हैं वे बिना रत्नत्रय के नहीं गए हैं और वे दोनों एक ही भवावतारी हैं।

    वहाँ से आकर नियम से मुक्त हो जायेंगे, रत्नत्रय का फल मुक्ति होता है, सो वह उन्हें मिला नहीं। क्या कमी रह गई उनके अन्दर, तो हमने पहले जो उदाहरण दिया था कि ९९ नम्बर तो मिल गए लेकिन! एक नम्बर कम रह गया, यह कमी क्यों रह गई? वे उलझ गये, अब हम गृहस्थों का उदाहरण तो उन्हें दे नहीं सकते। गृहस्थ कैसा भी मोक्षमार्ग पर बने रहे, कदाचित् दर्शन मोह का क्षय भी किसी प्रकार कर ले, तो भी सर्वार्थसिद्धि तीन काल में नहीं जा सकता.नहीं जा सकता.नहीं जा सकता। अभी-अभी पाँचवीं पुस्तक में पंडित जी कह रहे थे कि वह गृहस्थ-श्रावक कितना भी प्रयास करे, तो भी सोलहवें स्वर्ग से ऊपर नहीं जा सकता, फिर ऐसा कथन क्यों? तो वस्तुत: भूमिका का वर्णन है, उन दो मुनियों की तुलना अब गृहस्थों के साथ की जाय क्या? नहीं.नहीं उनकी तुलना अब उन मुक्त हुए पाण्डवों के साथ करेंगे, कहना यह होगा कि देखो, उन्होंने अपने संकल्प को छोड़ा नहीं वह अपने संकल्प से डिगे नहीं, ज्ञानी लोग अपने संकल्प से डिगते नहीं हैं, किसी भी प्रकार की कमी उन्होंने नहीं रखी और मोह का क्षय करके वे मोक्ष चले गए। उन जैसा शुभ कार्य तुमने किया नहीं। जिससे यह परिणाम निकला कि संसार का काल और बढ़ गया। संसार का एक अर्थ और समझना।


    संसार में चार गतियाँ हैं। गति से गत्यान्तर ले जाने में कारण है नामकर्म, और नामकर्म के साथ आयुकर्म का गठबन्धन रहता है, आयुकर्म ही संसार का कारण माना जाता है, इस आयुकर्म को ही आचार्यों ने संसार की संज्ञा दी है, अन्य कर्मों को नहीं, आयु है तो वह नियम से नाम कर्म का प्रबन्ध करेगा। इस प्रकार वह भव विपाकी प्रत्यय संसार में अटकाने वाली सामग्री बाद में देता जाएगा संसार में जो भी प्राणी अटके हुए हैं वे मात्र आयुकर्म की वजह से अटके हुए हैं। केवल ज्ञान होने के उपरान्त भी उस अनन्त शक्ति को आयुकर्म कह देता है कि चुप! बैठ जाओ, मेरे सामने कुछ नहीं चलेगा, जैसा हमने आपको अपने बन्धन में डाल दिया वैसा तुम्हें स्वीकार करना होगा। अनन्त चतुष्टय ले लो सब कुछ ले लो! अपने भी चतुष्टय चल रहे हैं, तुम अपने पास चतुष्टय रखो, किन्तु रहना पड़ेगा यही पर और इस आयु कर्म का जो बंध होता है, वह शुभ परिणामों के साथ ही होता है, शुद्धोपयोग को निरास्त्रव कहा है और शुभोपयोग को सास्त्रव कहा है। शुभोपयोग केवल संसार का ही कारण है ऐसी एकान्त धारणा नहीं बनाना चाहिए किन्तु वह परम्परा से मोक्ष का भी कारण है। शुभोपयोग के साथ आयुकर्म का बन्ध होने से उन्हें सर्वार्थसिद्धि जाना पड़ा और वह मोह के साथ ही चलता है।


    मोह भाव सो शुद्धोपयोग नहीं है, मोह सो पुण्य नहीं है, मोह सो शुभभाव नहीं है। किन्तु शुभभाव की भी क्या महिमा है ? तो आचार्य वीरसेन स्वामी जयधवला की प्रथम पुस्तक में कहते हैं |


    सुद्ध परिणामेहिं कम्मक्खयाभावे तत्थयागुववत्तीदो।

    यदि शुभ और शुद्ध परिणामों में से कर्मों का क्षय न माना जाये फिर कर्मों का क्षय ही नहीं हो सकता। इन दोनों भावों के अलावा इस दुनियाँ में अन्य साधन नहीं है, जिससे कर्मों का क्षय कर सके। इसलिए क्या करना चाहिए? तो शुद्धोपयोग की भूमिका हो तो शुद्धोपयोग लिया जाये और यदि नहीं है तो शुभोपयोग अपना लिया जाये। किंतु ध्यान रखना ! रात के बारह बजे भूलकर भी शुद्धोपयोगी, अशुभोपयोग के पास नहीं जाता जिसको बोलते हैं, विषय कषाय में रचने रूप प्रवृत्ति, सहारा लेने योग्य नहीं है। पुण्य का आस्रव केवल संसार के लिए कारण है, ऐसी मान्यता अर्थों से मेल नहीं खाती। यदि इस प्रकार की धारणा किसी ने बना ली हो, तो उस धारणा को बदलना चाहिए, क्योंकि! यह भूमिका उनके लिए भी नहीं बन पाई, जो नकुल और सहदेव एक ही भवावतारी थे, शुद्धोपयोग की भूमिका से च्युत होकर उन्हें आयुकर्म का बंध हुआ। आयुकर्म बंधने के उपरान्त भले ही कोई उपशम श्रेणी चढ़ जाए लेकिन नीचे ही आना पड़ता है और जिस गति की आयु का बंध हुआ है, वहाँ जाना ही पड़ता है, इन्होंने शुद्धोपयोग की भूमिका में तैतीस सागर की आयु का बंध किया परिणाम स्वरूप इन्हें सर्वार्थसिद्धि में इतने काल तक रहना पड़ रहा है। फिर भी बालब्रह्मचारी रहते हैं। तत्वार्थसूत्र में एक सूत्र आया है -


    "परे प्रवीचारा:" 

    (तत्वार्थसूत्र, अ. ४, सूत्र ६)

    अप्रवीचाराः परे, कौन? कल्पों से ऊपर जो विमान हैं, नव ग्रैवेयक, नव अनुदिश, पाँच अनुतर विमानों में प्रवीचार नहीं होता, प्रवीचार का अर्थ है, मैथुन काम वासना का वहाँ पर कोई ठिकाना नहीं। ऐसा कहने के उपरान्त भी यह ध्यान रखना है कि वहाँ पर पुरुष वेद का अभाव नहीं है ऐसा क्यों हुआ? क्या कारण है ?


    यह बात अलग है कि पुरुष वेद का उदय तो रहेगा, क्योंकि वेदों का अभाव नवमें गुणस्थान के उपरान्त ही होता है और वह तो चतुर्थ गुणस्थान में है। अत: वेद तो रहेंगे लेकिन वेद का जो कार्य है वह कार्य नहीं होगा, फिर भी मैथुन संज्ञा मौजूद रहेगी। उस संज्ञा के प्रतिकार करने की कोई आवश्यकता नहीं होती है। उनको वेद के उदय में जैसे नीचे के स्वर्गों अथवा मनुष्यों में प्रवृत्ति होती है, वैसी उन लोगों में नहीं होती इसलिए वे बालब्रह्मचारी माने जाते हैं। इतने में ही आप समझ लो कि ब्रह्मचारी रह गये तो कितने कार्य से छुट्टी मिल गई, एक हाथ का उज्वल शरीर रहता है और तत्व चर्चा में ही अपना सम्पूर्ण काल व्यतीत करते हैं, फिर भी वह ऊपर से नीचे की ओर देख रहे होंगे," इस पपौराजी क्षेत्र में भीड़ क्यों हो रही है? वहाँ पर हम सभी चले जायें तो जल्दी हमारा कल्याण हो जाएगा।


    नरकाया को सुरपति तरसै, सो दुर्लभ प्राणी

    (बारह भावना)

    ऐसा क्यों हो रहा? इसलिए हो रहा कि वहाँ पर संयम नहीं है और यहाँ पर संयम है। स्वर्गों में मात्र चतुर्थ गुणस्थान तक ही उन्नति सम्भव है, लेकिन मनुष्य गति में तो चौदह गुणस्थान तक प्राप्त किये जाते हैं। आज वर्तमान में यहाँ पर चौदह गुणस्थान तो नहीं, किंतु ७ गुणस्थान अवश्य ही प्राप्त किए जा सकते हैं। यदि आप छोटा सा भी संकल्प कर लोगे तो चतुर्थ गुणस्थान से पंचम समझते हैं जो कि श्रावक से भी गया बीता जीवन है, जहाँ पर जीवनपर्यन्त रत्नत्रय का पालन करने वाले मुनि भी पहुँच गये हैं और अब उन्हें वहाँ पर संयम की गंध भी नहीं आ रही है। तब आचार्य कुन्दकुन्द देव कहते हैं कि तुमने अपने ज्ञानीपने में बट्टा लगा लिया।


    आदिनाथ, भरत और बाहुबली इन तीनों ने पूर्व जन्म में मुनिव्रत धारण कर कठोर तपश्चरण किया था, फलस्वरूप तीनों सर्वार्थसिद्धि गए थे, वहाँ से चयकर, मुनि बनकर एक ही भव में मुक्त हो गए। यह जो उलझन है, इसका बड़ा कमाल हैं, मतलब यह कि सर्वार्थसिद्धि से सिद्धशिला की दूरी मात्र बारह योजन ही है, कोई देव चाहे कि वहीं से चला जाएं, जैसे आजकल अंतरिक्ष में चले जाते हैं। उसके साथ एक Machine और Shuttle रहती है, उसे नीचे उतार दिया जाता है किन्तु ऐसा यहाँ नहीं होता। इतना ही नहीं मेरु पर्वत की चोटी और सौधर्म स्वर्ग का जो पटल है उसमें एक बाल का ही अन्तर है, कोई चींटी पहुँच जाए, कोई भी व्यक्ति वहाँ से खिसक जाए, स्वर्ग में पहुँच जाए, कोई भी व्यक्ति वहाँ से बाल मात्र अन्तर का भी उल्लंघन नहीं कर सकता, क्योंकि वहाँ तक मध्य लोक की सीमा है और उसके उपरान्त ऊध्र्वलोक की सीमा है।


    ऊध्र्वलोक की सीमा में हवा अलग है वहाँ पर भी हवा है। वहाँ पर भी पानी है। वहाँ पर भी सब कुछ है। लेकिन व्यवस्था अलग है, वहाँ का वातावरण आप लोगों को हजम नहीं होने वाला। वहाँ पर जाने के लिए पासपोर्ट जो है, वह यहीं से बनाने पड़ते हैं। उस सर्वार्थसिद्धि को जाने के लिए रत्नत्रय का पासपोर्ट होना जरूरी है। सम्यकदर्शन और सम्यक्रचारित्र की बात फिर भी समझ में आ जाती है लेकिन ज्ञान के बारे में बड़ी सूक्ष्मता है, ज्ञान को मिथ्या होने में देर नहीं लगती। जो क्रोध के वशीभूत होकर, मान के वशीभूत होकर, लोभ के वशीभूत होकर कषाय कर देता है, तो उसका सम्यक्र धन कलंकित हो जाता है। उसका ज्ञान निर्मल नहीं माना जा सकता, वह भले ही चाहे अपने आप को सम्यकज्ञान कहता रहे। आचार्य कहते हैं उसका ज्ञान समीचीन नहीं रहा, क्योंकि डर के मारे, वह बदलता ही जा रहा है। यह बदलाहट, यह दल-बदलूपन व्यक्ति के अंदर विद्यमान गुणों को समाप्त कर देता है। सम्यकज्ञानी ही एक मात्र निष्पक्ष-निर्दलीय होता है, उसे दल पक्षपात से कोई मतलब नहीं रहता। आगमिक चर्या, आगम की बातें और आगम का यथार्थ श्रद्धान ही उसका पक्ष रहता है। जैसा वह रहता है, वैसा ही कहता है। उसकी कथनी और करनी में कोई अन्तर नहीं रहता। तीन लोक की सम्पति का भी उसे लोभ दिया जाय तो भी वह आगम के अर्थ में एक अक्षर का भी परिवर्तन नहीं कर सकता, इसी को आगम ग्रन्थों में सम्यकज्ञान कहा गया है।

    यह बात और विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है कि जिस प्रकार उलझे हुए मुनियों के लिए सुलझे हुए गृहस्थों के उदाहरण दिये हैं। उसी प्रकार उलझे हुए गृहस्थों के लिए सुलझे हुए पशुओं के भी उदाहरण दिए गए हैं। सुन रहे हो कि नहीं? रुनकरण्डक-श्रावकाचार में उदाहरण के लिए मेंढ़क आया है, कुत्ता आया है, शूकर आया है, मातंग आया है। मातंग किसे बोलते हैं ? चाण्डाल की। आज वह वर्ण नहीं है, जो इस प्रकार का हीन कार्य करता है, जिसे मात्र हिंसात्मक (फाँसी पर चढ़ाना) हीन कार्य करने के लिए नियुक्त किया जाता था। वे भी अहिंसात्मक के सिरमौर बन सकते हैं, और बने हैं। पूजन के लिए कोई सेठ साहूकार पुजारी का उदाहरण उन्हें नहीं मिला, जो मेंढ़क का नाम रखना पड़ा। स्वामी समन्तभद्र बहुत आगे के परीक्षक थे, इसलिए मोक्षमार्गस्थो कहकर उठा भी देते हैं, लेकिन कोई घमण्ड करे तो उसको पशुओं के सामने लाकर रख देते हैं। रत्नकरण्डक श्रावकाचार में आचार्य समन्तभद्र कहते हैं कि


    अर्हच्चरणासपर्या, महानुभावं महात्मनामवदत्।

    भेकः प्रमोदमत्तः, कुसुमेनैकेन राजगृहे॥१२०॥

    एक भत भगवान् के चरणों की पूजन का इच्छुक एक छोटी सी पाँखुड़ी अपनी दाँतों तले दबाकर जा रहा है, फुदक-फुदक कर मुँह में लेकर वह मेंढ़क राजगृह नगर में पूजन की महिमा बतलाने वाला उत्तम श्रावक माना जाता है, अब यदि मेंढ़क के साथ आपकी तुलना की जाए तो क्या होगा भैया? यह बिल्कुल ठीक है कि भावों की बात है लेकिन आप लोग तो यही कहेंगे कि महाराज जमाना पलट गया है, इसलिए कुछ-कुछ चल जाता है। नहीं, बिल्कुल नहीं! अब ऐसा चलने वाला नहीं है। जब जैन कुल है तो मद्य, मांस, मधु की बात नहीं करनी चाहिए।


    किसी ने कहा, महाराज! सम्यकदर्शन के साथ इनके त्याग का कोई सम्बन्ध नहीं, तो वह व्यक्ति ऐसा कहकर शिथिलाचार पनपायेगा और एक दिन भार बनकर सम्पूर्ण समाज को डुबोने में कारण बन जाएगा। सप्त व्यसन, रात्रि भोजन, अभक्ष्य भक्षण और अनुपसेव्य चीजों का तो जैनी को हमेशा के लिए त्याग करना ही चाहिए।


    यदि कोई ऐसा उपदेश देता है कि मात्र सम्यकदर्शन को सुरक्षित रखो, त्याग अलग वस्तु है, सम्यकदर्शन अलग वस्तु है, बाह्य दुश्चरित्र से सम्यकदर्शन का कोई सम्बन्ध नहीं तो नियम से उसका गुणस्थान बदल जाएगा। उसमें कारण यह है कि उसकी उस प्रवृत्ति से उस उपदेश से सारी की सारी समाज उसका समर्थन करने लग जाएगी। सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान और सम्यक्रचारित्र आत्मा की वह भीतरी परिणति है, जिसका अन्दाज हम इन चर्म चक्षुओं से नहीं लगा सकते। जाति कुल और परम्परा से बंधकर के धर्म नहीं चलता है। मैं जैन हूँ इसलिए मेरे पास चारित्र हो गया ऐसी कोई बात नहीं है। धर्म का सम्बन्ध देहाश्रित कम हुआ करता है बल्कि आत्माश्रित ज्यादा। एक मुनिराज आत्मा में लीन हैं, शान्ति के साथ गुफा में बैठे हुए हैं, तत्व चिन्तन चल रहा है, कहाँ पर क्या होने वाला है, कोई पता नहीं किसी को और किसी प्रकार की कोई चिन्ता नहीं। यह गाथा उनके मानस पटल पर तैर रही है


    अहमिक्को खलु सुद्धो, दंसणणाणमइओ सदा रूवी।

    णवि अत्थि मज्झ किंचिवि,अण्णं परमाणुमित्तंपि॥४३॥

    मैं शुद्ध बुद्ध एक आत्म तत्व हूँ। निष्कलंक निरंजन ज्ञान दर्शन रूप उपयोग के अलावा अणु मात्र भी मेरा नहीं है। इस प्रकार शुद्धोपयोगमयी आकिंचन्य भावना भा रहे थे। इधर घटना दूसरी कि अभी-अभी एक सुख लाल व्यक्ति गुफा के अन्दर गया है, बहुत अच्छा शिकार है, मेरी सारी की दहाड़ एक शूकर ने सुनी, उस दहाड़ में सिंह का क्या उद्देश्य था यह भी वह समझ गया, किस ओर जाएगा और क्या करेगा इन सब बातों को शूकर तुरन्त समझ गया। शूकर शीघ्र ही सिंह के सामने आ धमका और कहता है-तुम उधर नहीं जा सकते, में जाऊँगा, सिंह ने दहाड़ते हुए कहा। कैसे जाओगे? मैं तो बीच में हूँ पहले मुझे अलग करो फिर बाद में ही गुफा में जा सकोगे, शूकर ने दृढ़ता से कहा, शेर गुस्से में बोला क्या कहता है ? जरा ध्यान से बोल, मैं वनराज हूँ। हाँ, तुम वनराज हो तो मैं भी वन में रहता हूँ, लेकिन आज राजा और प्रजा की बात है। राजा यदि अन्याय पर उतारू हो जाता है तो प्रजा उसे कभी नहीं छोड़ेगी। मैं तुम्हारे Under में रहने वाला प्राणी जरूर हूँ लेकिन मेरा प्रण है कि अन्याय करने वाले को कभी नहीं छोडूंगा चाहे मेरे प्राण भले ही चले जायें। शूकर ने नम्रतापूर्वक कहा-छोड़ दे रास्ता। शेर ने गर्वपूर्वक कहा। नहीं छोडूंगा, कदापि नहीं छोडूंगा। शूकर अपनी बात पर अड़ा रहा और कस्समकस्सा आरंभ हो गया। शूकर भी अधिक बलशाली था। एक दूसरे को उलट-पुलट करने लगे। कस्समकस्सा गुत्थम-गुत्था होते होते दोनों का अवसान हो जाता है, उसके बाद क्या हुआ तो आप कहेंगे -


    अति संक्लेश भावतें मर्यो घोर श्वभ्रसागर में परयो॥

    (छहढाला, प्रथम ढाल)

    दोनों ने लड़ाई लड़ी और ऐसी लड़ाई लड़ी कि अपने आपकी चिंता भी नहीं की। और अभी-अभी पंडितजी कह ही रहे थे कि जो अपनी आत्मा की हत्या करता है वह सबसे ज्यादा पापी माना जाता है। शूकर ने भी अपने आपको कस्समकस्सा में डाल दिया और सिंह ने भी, समझ में यही आता है कि दोनों का रौद्रध्यान था और कृष्ण लेश्या भी थी, इसलिये दोनों नियम से उतर गये होंगे सीधे नरक में किन्तु आचार्य समन्तभद्र कहते हैं कि नहीं, एक ऊध्र्वगामी हुआ और एक अधोगामी। शूकर स्वर्ग गया और सिंह नरक में। शूकर का अध: पतन क्यों नहीं हुआ? तो शूकर का परिणाम शुभ था, और सिंह का अशुभ था, सिंह का भाव मुनिराज के ऊपर प्रहार करने का था, क्या बात कह दी? बड़ी अद्भुत बात कह दी, वह हमला करने वाला शूकर स्वर्ग चला गया, इस प्रकरण से स्पष्ट हो गया बन्धुओ! परिणामों के द्वारा ही उन्नति और अवनति हुआ करती है, ऐसा कौन-सा दान था? जो उस शूकर ने दिया था, यह ध्यान रखना दान देना मात्र श्रावकों पर ही निर्धारित है, ऐसी बात नहीं है। यहाँ पर पशुओं के उदाहरण दिए जा रहे हैं, उसने आहार दान नहीं दिया, उपकरण दान नहीं दिया, औषध दान का तो प्रश्न ही नहीं उठता, ऐसा कौन-सा महान् दान दिया जिससे उसकी उन्नति हुई, उसने आवास-वसतिका दान दिया था, आवासदान का मतलब क्या है ? तो जहाँ पर धर्म ध्यान किया जाता है, उस क्षेत्र की और ध्यान की रक्षा करना है। धर्म ध्यान करना या धर्म ध्यान करने वालों की सुरक्षा करना दोनों एक ही बात है। इसका मतलब यह नहीं कि धर्मध्यानी यह कह देते हैं कि भैया! मेरी रक्षा करना मैं सामायिक में बैठ रहा हूँ। धर्मध्यान में लीन उन मुनि महाराज को जब शरीर की ही चिंता नहीं तो बाहर क्या हो रहा है ? इसका विकल्प भी कैसे हो सकता है और मेरी कोई रक्षा करे ऐसा सोच भी कैसे सकते हैं ? मेरी रक्षा संसारी प्राणी कैसे कर सकते हैं। मेरी रक्षा मेरे रत्नत्रय के द्वारा ही होगी और उस रत्नत्रय का पालन मैं कर ही रहा हूँ। वे मुनि शुभोपयोग की भूमिका से उठकर शुद्धोपयोग में ऐसे लीन हो गए,भीतर अपनी आत्मा की अनुभूति करने लगे और फिर उनका उपयोग डाँवाडोल नहीं हुआ निश्चिंत, निराकुल, एकदम शान्त भावों की विशुद्धता बढ़ती गई।


    यह है आवास दान का माहात्म्य, शूकर सोच रहा था कि कहीं मुनिराज के ऊपर उपसर्ग न हो जाए, यदि उपसर्ग हो गया तो सम्भव है जिस प्रकार नकुल और सहदेव उलझ गए थे उसी प्रकार ये भी उलझ सकते हैं, इस प्रकार के दान देने वाले शूकर को उन्होंने कितने ऊपर उठाया। धन्य है शूकर का आदर्श! लेकिन पशुओं में महान् होने पर भी सिंह का नाम तक नहीं लिया, बिल्कुल नीचे कर दिया उसको, क्योंकि उसके परिणाम बिगड़े हुए थे। पापमयी थे, क्या खायें, क्या नहीं? इसका भी ज्ञान नहीं था। आज विद्वानों के द्वारा बड़े-बड़े गुणस्थानों की चर्चा तो की जाती है, आत्मा परमात्मा की चर्चा की जाती है, लेकिन खान-पीन के बारे में पूछा जाये तो आप कहते हैं कि हमारे यहाँ तो महावीर भगवान् ने समता रखने के लिए कहा है इसलिए हमें जो कुछ भी मिलता है, उसमें हम समता रखकर खा लेते हैं.। ध्यान रखना भक्ष्य-अभक्ष्य में समता नहीं किन्तु कर्मों के उदय में अपने लिए जो कष्ट, सुख-दुख आ जाते हैं उनमें हर्ष-विषाद नहीं करते हुए, नहीं उलझते हुए आगे बढ़ना है। हमारे आराध्य प्रभु! महावीर ने यही कहा कि-

    तुम भीतर जाओ

    और... 

    तुम भी... तर जाओ

    भगवान् महावीर के समान वे मुनिराज ऐसे भीतर चले गए कि उन्हें न देह की चिन्ता, न सिंह व्याघ्र और शूकर की चिन्ता। एकमात्र आत्मा की सतत आराधना चल रही थी। आचार्य समन्तभद्र कहते हैं -


    कश्चिदेव भवेत् गुरु: (आप्तमीमांसा/४) आत्मा का कोई भी वीतरागी साधन गुरु बन सकता है। लेकिन! आचार्य विद्यानन्दजी और भी आगे बढ़ गए और वे कहते हैं -


    कः भवेत् गुरुः, चित् एव गुरुः। (आप्तपरीक्षा/४)
    यानि कि आत्मा ही गुरु है। इस परम गुरुरूपी आत्मा के अलावा संसार में अन्य कोई शरण नहीं है। अन्दर से रत्नत्रयात्मक आत्मा ही शरण है और बाहर से पंचपरमेष्ठी और सच्चे देव, शास्त्र, गुरु की शरण है, इसके अलावा किसी की भी शरण नहीं है। आपका यदि कोई काम बिगाड़ता है तो आप पंचायत की शरण में चले जाते हैं, और कहते हैं कि मेरा यह काम निपटा दो। उसी प्रकार साधक का बाहर यदि काम बिगड़ रहा है तो पंच परमेष्ठी की शरण में जाओ और निवेदन करो कि महाराज! मेरा यह काम निपटा दो, क्योंकि! मैं तो अल्पज्ञ हूँ कुछ जानता नहीं हूँ। और यदि बाहर का काम निपट गया तो तुम भीतर चले जाओ। इस प्रकार भेद और अभेद रत्नत्रय आराधना की जाती है, इस प्रकार की आराधना करते हुए आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने रुनकरण्डक श्रावकाचार जैसी अमरकृति की रचना करके हम लोगों पर बड़ा उपकार किया है। महाराज जी (आचार्य ज्ञानसागरजी) कहा करते थे, यह रत्नकरण्डक श्रावकाचार छोटी कृति जरूर है, किन्तु! वास्तव में इसमें रत्नत्रय की स्तुति की गई है। इस कृति में ४२ श्लोकों के द्वारा, सम्यकदर्शन, उसके अंग और फल का वर्णन किया है। इस प्रकार का विशद वर्णन कहीं अन्यत्र देखने में नहीं मिला। सम्यकज्ञान की प्ररूपणा पाँच कारिकाओं के द्वारा की गई है, एक लाक्षणिक कारिका है और शेष चार कारिकाओं के द्वारा, चारों अनुयोगों का वर्णन किया है। वर्तमान में अनुयोगों के बारे में यदि प्रौढ़ और दार्शनिक प्ररूपणा मिलती है तो एकमात्र आचार्य समन्तभद्र की है। रत्नकरण्डक श्रावकाचार में सम्यकज्ञान के बारे में
    वे लिखते हैं -


    अन्यूनमनतिरिक्त, याथातथ्यं विना च विपरीतात्।

    निःसंदेहं वेद यदाहुस्तज्ज्ञानमागमिनः ॥ ४२॥र.श्रा.

    जो ज्ञान वस्तु के स्वरूप को न्यूनता से रहित, अधिकता से रहित और विपरीतता से रहित निस्सन्देह जानता है, उस ज्ञान को गणधर, श्रुतकेवली सम्यकज्ञान कहते हैं। इस प्रकार सम्यकज्ञान का कथन करने के उपरान्त सम्यक्रचारित्र के लिए ४ कारिकायें लिखी । जिस मुमुक्षु भव्य प्राणी ने अज्ञान रूपी मोहान्धकार को समाप्त करके सम्यकज्ञान रूपी प्रकाश पा लिया है वह व्यक्ति फिर -


    मोह तिमिरापहरेण, दर्शनलाभादवाप्त संज्ञान: ।

    रागद्वेष निवृत्यै, चरणं प्रतिपद्यते साधु :॥र.श्रा.

    सज्जन वही होता है, जो राग द्वेष की निवृत्ति के लिए चारित्र को अंगीकार करता है। बन्धुओ! मनुष्य जीवन की दुर्लभता आप जान ही रहे हैं, और अज्ञान को हटाने के लिए यदि सम्यकदर्शन और सम्यकज्ञान है तो राग द्वेष को दूर करने के लिए नियम से चारित्र की शरण लेनी चाहिए। यदि सकल चारित्र को आप नहीं अपना सकते तो कम से कम देश चारित्र को तो अपनाना ही चाहिए। यही एकमात्र भगवान् का उपदेश है, इसी से मुक्ति का लाभ होने वाला है। और अन्त में वही पंक्तियाँ पुन: दुहराता हूँ -
    तुम भीतर जाओ

    और...

    तुम भी... तर जाओ॥


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