पवित्र संस्कारों के द्वारा ही पतित से पावन बना जा सकता है। जो व्यक्ति पापों से अपनी आत्मा को छुडाकर केवल विशुद्ध भावों के द्वारा अपनी आत्मा को संस्कारित करता है, वही संसार से ऊपर उठकर मोक्षसुख को पा पाता है। धर्म इसी आत्म-उत्थान का विज्ञान है।
विश्व में अनेक धर्म प्रचलित हैं, इन सभी धर्मों में एक धर्म वह भी है जो प्राणिमात्र के लिए पतित से पावन बनने का मार्ग बताता है, उस धर्म का नाम है-जैनधर्म।
जैनधर्म प्राणिमात्र के कल्याण की भावना रखने वाला धर्म है, आज इस धर्म की उपासना करने वाले और इसके अनुरूप अपना जीवन बनाने वाले साधक बहुत विरले हैं। धर्म के प्रचारक और प्रसारक बहुत हैं, जो अपनी सारी शक्ति प्रचार-प्रसार में लगा देते हैं, स्वयं को पतित से पावन बनाने का प्रयास नहीं करते। हमारा प्रथम कर्तव्य यही है कि हम स्वयं पाप से ऊपर उठे, स्वयं पतित से पावन होने का प्रयास करें।
इस कलियुग में पुण्यात्माओं का सान्निध्य दुर्लभ है। तीर्थकर जैसे महापुरुषों का साक्षात् उपदेश सुन पाना दुर्लभ है, अब वे यहाँ हमें उपदेश देने नहीं आयेंगे, उनका दर्शन और समागम अब यहाँ होना असंभव है, इसके उपरान्त भी अभी धर्म टिका हुआ है, पंचम काल के अंत तक रहेगा, बीच-बीच में उत्थान-पतन होते रहेंगे, पतित से पावन बनाने वाले इस धर्म के उपासक संख्या में भले ही अल्प हों, लेकिन गुणों की उपासना होती रहेगी, यही इस धर्म की उपलब्धि है।
कोई व्यक्ति पतित से पावन कैसे बने? यह बात विचारणीय है, हमें ध्यान रखना चाहिए कि जो व्यक्ति अपने आपको प्रारंभ से ही पावन मानता है, उसमें पावन बनने की कोई गुंजाइश ही नहीं है, पावन से पावन बनने का प्रयास भी कौन करेगा? पेट भरने का प्रयास वही करता है जो भूखा है, जो तृप्त है, जिसका पेट भर गया है, उसे प्रयास करने की आवश्यकता ही क्या है? तो पहले हमें जानना होगा कि हम पतित हैं और पतित होने का कारण हमारे स्वयं के बुरे कर्म हैं। संसार में भटकाने वाले भी यही कर्म हैं।
जैनधर्म के प्रथम तीर्थकर वृषभदेव से लेकर अंतिम तीर्थकर महावीर तक सभी ने इन कर्मों से विमुख होकर अपनी आत्मा को परमात्मा बनाया है। हमें भी इन कर्मों से बचने का उपदेश दिया हैं। उन्होंने कहा कि पापी से नहीं बल्कि पाप से बचो, यही उच्च बनने का रास्ता है, यदि पापी से घृणा करोगे तो वह कभी पुण्यात्मा नहीं बन सकेगा और घृणा करने वाला स्वयं ही पतित हो जाएगा। इसलिए संसार की अनादिकालीन परम्परा के मूल कारण-भूत कर्म को नष्ट करना ही हमारा ध्येय होना चाहिए। जब तक बीज बना रहेगा, वृक्ष की उत्पति भी होती रहेगी। धर्म के माध्यम से कर्मरूपी बीज को जला दिया जाए तो संसार-वृक्ष की उत्पत्ति संभव नहीं है।
अब आप कहेंगे कि कर्म-बीज को जलाने के लिए क्या करें? इसकी साधना कैसे करें? तो बंधुओ! रत्नत्रय के माध्यम से यह कार्य संभव है। रत्नत्रय अर्थात् सम्यकदर्शन, ज्ञान और आचरण के माध्यम से हम अपनी आत्मा के अनादिकालीन कर्म संस्कारों को समाप्त कर सकते हैं। रत्नत्रय के पवित्र संस्कारों के द्वारा पाप के संस्कारों से मुक्त होकर आत्मा शुद्ध बन सकती है। पवित्र संस्कारों के द्वारा ही पतित से पावन बना जा सकता है। जो व्यक्ति पापों से अपनी आत्मा को छुड़ाकर केवल विशुद्ध भावों के द्वारा अपनी आत्मा को संस्कारित करता है, वही संसार से ऊपर उठ पाता है। यह मात्र कल्पना नहीं है, यह सत्य है, यही सच्चा विज्ञान है।
जैसे मिट्टी ऊपर उठना चाहती है, अपना उद्धार करना चाहती है-तो एक दिन धरती माँ से पूछती है कि माँ मुझे लोग पददलित करते हैं, मुझे खोदते, रौदते और तरह-तरह की यातनाएँ देते हैं, क्या मेरे जीवन में कभी ऐसा अवसर आएगा कि मैं भी सभी की प्रेम-भाजन बनूँगी? क्या ऐसा विकास मेरा भी संभव है? तब धरती माँ समझाती है कि हाँ, संभव है? लेकिन इसमें बड़ी साधना बतायी जायेगी उस प्रक्रिया को अपनाना होगा, तब एक समय ऐसा आयेगा जब सभी तुझे प्यार से संभालकर ऊपर रखेंगे।
यदि पतित से पावन बनने का विचार तेरे मन में आया है, तो जब भी कोई कुम्हार यहाँ पर आये, उसके हाथों में अपने को समर्पित कर देना, रोना चिल्लाना नहीं, उसके प्रति द्वेषभाव भी मत करना, वह जो प्रक्रिया बताये उसे ग्रहण करना, वह जैसा करे, करने देना, कुछ भी प्रतिक्रिया मत करना, यही पतित से पावन बनने का सूत्रपात होगा।
अच्छी बात है, मिट्टी प्रतीक्षा करती है, एक दिन कुम्हार आता है और फावड़े से मिट्टी को खोदने लगता है, अब मिट्टी क्या कहे? सब सहन करती है। उसे माँ की वाणी पर विश्वास है, वह अपने भविष्य को विकसित देखना चाहती है, इसलिए अपने को कुम्हार के हाथों में सौंप देती है। फिर कुम्हार उसे ले जाकर पानी डाल-डालकर रौदता है और लौंदा बनाकर चाक पर चढ़ा देता है, मिट्टी घबराती है, सोचती है, अब क्या करूं? ऐसा कब तक सहन करूं? चाक पर घूमते-घूमते चक्कर आने लगा, पर उसे माँ की बात ध्यान में आ जाती है कि विकास के रास्ते में सब सहन करना ही श्रेयस्कर है, वह सब सहन करेगी उसे माँ पर विश्वास है, जो संतान अपनी माँ के बताये हुए सत्यमार्ग पर विश्वास नहीं रखती, उसका विकास अभी और आगे कभी भी संभव नहीं है।
आप लोगों ने शिखर जी की वंदना की होगी। एक-एक कदम ऊँचाई पर चढ़ना होता है। व्यक्ति हो तो सीने में दर्द होने लगता है, लेकिन ध्यान रखो, उन्नति का रास्ता यही है, परिश्रम के बिना हम कुछ प्राप्त नहीं कर सकते। जो एक-एक कदम उठाता हुआ आगे रखता चलता है विकास की ओर, वही सफल होता है। लक्ष्यवान साधक सभी बाधाओं को पार करता हुआ आगे बढ़ता है।
मिट्टी विकास की ओर अग्रसर है, सब कुछ समता भाव से सहन कर रही है। तब एक दिन वह कुंभकार के योग और उपयोग के माध्यम से कुंभ का रूप धारण कर लेती है। सोचती है कि यह तो एक नयापन मेरे अंदर आ गया है, ऐसा प्रयोग तो कभी नहीं हुआ था, अब वह सारे कष्टों को भूल गयी, सारी यातनाएँ विस्मृत हो गयीं, चाक के ऊपर घड़े के रूप में मिट्टी बैठी है।
फिर उसे वहाँ से भी उठाकर कुंभकार धूप में रख देता है, मानो उष्ण परिषह प्रारंभ हो गया, घड़ा धीरे-धीरे थोड़ा सूखने लगा, एक दिन जब कुंभकार ने उसे हाथ में लेकर पानी सींचकर चोट मारना प्रारंभ किया, तब कुंभ सोचने लगा कि अरे! यह एक नयी मुसीबत और आ गयी, अब पिटाई हो रही है, पर धरती माँ ने पहले ही समझा दिया था कि यह पिटाई नहीं है, यह तो अंदर सोई हुई शक्तियों को उद्घाटित किया जा रहा है।
अभी तो यह Previous है, पूर्वाद्ध है, अभी कुंभ कच्चा है, Final Examination (अंतिम परीक्षा) भी होगा, अवे में तपना होगा। अंतिम अग्नि परीक्षा होगी, जैसे ही कुंभ को अवे की अग्नि में रखा जाता है। वह सोचता है कि यह तो हमारा विकास नहीं, लगता है विनाश हो रहा है, यह कौन-सी पद्धति है। इतना अवश्य है कि माँ की बात अहितकारी नहीं हो सकती, विकास की ओर जाने के लिए जलना भी होगा, यह सोचकर कुंभ कोई प्रतिक्रिया नहीं करता और अग्निपरीक्षा में उतीर्ण होकर आ जाता है।
उसे बाहर निकालकर कुंभकार धीरे से बजाकर देखता है, सब ठीक है, अब कुंभ में जलधारण करने की शक्ति आ चुकी है, अब कोई क्रिया शेष नहीं रही, इसी जल धारण की क्षमता पाने के लिए मिट्टी से कुंभ का निर्माण हुआ है, फिर ज्येष्ठ के महीने में बड़े-बड़े सेठ साहूकार भी सोने-चाँदी के बर्तन नहीं चाहते, उस समय तो शांति और शीतलता देने वाला मिट्टी का घड़ा ही अच्छा लगता है, सभी उसे फूल के समान हाथ में लिए रहना पसंद करते हैं, कोई उसे नीचे रखना नहीं चाहता, ऊँचे स्टूल आदि पर रखते हैं, प्यार के साथ, संभाल करके। अब पटक नहीं सकते। अपना अहंकार गलाकर, मान-अपमान सहन कर यह मिट्टी का विकास संभव हुआ है, पतित से पावन ऐसे ही बना जाता है।
प्रत्येक आत्मा इसी प्रकार संस्कारों के माध्यम से अपना उत्थान कर सकती है। सभी संस्कार जन्म से नहीं आते। संस्कार पूर्व कर्मों पर आधारित नहीं है। वह तो धर्म पर आधारित हैं। संस्कारित होने वाली आत्मा तो चेतना है। चेतन के माध्यम से ही चेतन पर संस्कार डाले जाते हैं। जो अनंतकालीन संसार के संस्कारों को छिन्न-भिन्न कर देते हैं। ऐसे उत्थान की ओर, संसार से मोक्ष की ओर ले जाने वाले संस्कार ही वास्तविक संस्कार है।
मिट्टी अपनी घड़े बनने की निजी क्षमता को नहीं पहचान पाने के कारण अनादिकाल से पददलित होती आ रही थी। कुंभकार के माध्यम से अपनी क्षमता को पहचानकर, अपने को संस्कारों के द्वारा संस्कारित करके, उसे प्रकट कर लेती है। वृषभनाथ जैसे, पाश्र्वनाथ जैसे, बाहुबली जैसे और भगवान् महावीर जैसे अनंत जो सिद्ध हुए हैं, वे भी अपनी क्षमता को पहचान कर रत्नत्रय के संस्कारों से संस्कारित होकर सिद्ध हुए हैं। पहले से ही सिद्ध भगवान् नहीं थे।
सिद्ध होने की क्षमता मिट्टी में कुंभ के समान अव्यक्त शक्ति के रूप में हर प्राणी में हुआ करती है। जिसे सुसंस्कारों के माध्यम से प्रकट किया जा सकता है। सिद्धत्व की प्राप्ति तभी संभव होती है। यही जैनधर्म का मूलभूत सिद्धान्त है। प्रत्येक आत्मा अपने पुरुषार्थ के द्वारा परमात्मा बन सकता है। बहुत कम आत्माएँ संस्कारों की महत्ता को जान पाती हैं। उसमें भी बहुत कम आत्माएँ संस्कारों के माध्यम से जीवन को सफलता की ओर ले जाती हैं। आज बातें करने वाले बहुत सारे लोग मिल जाते हैं, पर ध्यान रखना, आत्म-स्वरूप की पहचान जब तक नहीं होती, तब तक मात्र बातें कर लेने से निवाण नहीं होता।
कर्म से संस्कारित यह आत्म-तत्व कैसे कर्म से मुक्त हो, कैसे इसका विकास हो, कैसे संस्कार डाले जायें? इन सब बातों के लिए आत्मपुरुषार्थ अपेक्षित है, शरीर से पृथक् आत्म-तत्व है, उस आत्म तत्व का विकास करना हमारा लक्ष्य है तो सबसे पहले शरीर को अपने से पृथक् जानना होगा, उसे साधन मानकर उसका उपयोग करना होगा, शरीर साध्य नहीं है, वह तो साधन है। आचार्य समन्तभद्र महाराज ने इस बात को बहुत अल्प शब्दों में कहा है कि-
अर्थात् स्वभाव से तो यह शरीर अपवित्र है, गंदा है लेकिन जब कभी शरीराश्रित आत्मा में रत्नत्रय का आरोपण होता है तो रत्नत्रय के द्वारा पवित्र शरीर में पूज्यपना आ जाता है। ग्लानि नहीं होती, बल्कि गुणों के प्रति प्रीतिभाव होता है, यही समीचीन दृष्टि है।
जो इंद्रियों का दास बना हुआ है, विषय सामग्री की प्राप्ति में ही जीवन व्यतीत कर रहा है। शरीर को ही आत्म-तत्व मानकर उसकी सेवा में उलझा है। उसे अभी अपना वास्तविक स्वरूप समझना चाहिए, आत्म तत्व की ओर दृष्टिपात करके सोई हुई शक्ति को उद्घाटित करना चाहिए। जो व्यक्ति आत्मा का विकास करना चाहता है, उसे शरीरगत पर्यायों में नहीं उलझना चाहिए, शरीर तो स्वभाव से ही अशुचि रूप रहेगा, विकास आत्मा का करना है, इसलिए संस्कार शरीर का नहीं अपितु आत्मा का संस्कार करना है। मिट्टी के ऊपर मिट्टी का संस्कार नहीं किया जाता, मिट्टी के ऊपर जल और अग्नि के संस्कार कुंभकार द्वारा डाले जाते हैं, विकास का मार्ग यही है।
महापुराण में एक प्रसंग आता है, कर्मभूमि के प्रारंभ में आदिब्रह्मा वृषभनाथ भगवान ने अपने राज्यकाल में तीन वणों की स्थापना की, इसके बाद उन्हीं के पुत्र भरत चक्रवर्ती ने एक चौथे ब्राह्मण वर्ण की स्थापना और की, उसका आधार संस्कार था, जन्म से कोई सर्वथा उच्च नहीं होता। उच्चता कर्म से आती है, मात्र जनेऊ पहनने से कोई उच्च नहीं होता किन्तु जिनवाणी की आज्ञा पालन करने वाला रत्नत्रय के द्वारा आत्मा को संस्कारित करके उच्चता को प्राप्त करता है।
भरत चक्रवर्ती ने चौथा वर्ण बनाने से पहले परीक्षा ली, तीनों वणों को दरबार में बुलाया, चक्रवर्ती की आज्ञा थी, इसलिए सभी व्यक्ति भागकर आये, जीवरक्षा का थोड़ा भी विचार नहीं किया, पर कुछ व्यक्ति सीधे रास्ते से न आकर घूमकर आये और थोड़ा विलम्ब भी हुआ, चक्रवर्ती ने पूछा कि ऐसा क्या कारण है कि आप सीधे मार्ग से न आकर घूमकर आये। तब बताया गया कि पर्व के दिन हैं, सीधे रास्ते पर नये-नये कोमल अंकुर उग आये हैं, पैर रखने के लिए जगह नहीं है, भगवान् की वाणी में यह बात आयी है कि वनस्पति कायिक जीव अनंत हैं, यदि हम उस सीधे रास्ते से आते तो उन जीवों का विघात होता।
जीव हमें भले ही दिखाई न देते हों लेकिन जिनेन्द्र भगवान् की वाणी अन्यथा नहीं हो सकती।
सूक्ष्मं जिनोदितं तत्त्वं, हेतुभिर्नैव हन्यते ।
आज्ञा सिद्धं तदग्र्ह्मं, नान्यथावादिनो जिनाः॥
अर्थात् जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कहा गया तत्व सूक्ष्म है, उसे किसी हेतु या तर्क के द्वारा बाधित नहीं किया जा सकता। वह इन्द्रियों के द्वारा अग्राह्य होने पर भी भगवान् की आज्ञा से मानने योग्य है, इसलिए भले ही थोड़ा विलम्ब हो गया, अधिक चलना पड़ा, लेकिन जीवरक्षा के लिए लम्बे रास्ते से चलकर हम आये हैं।
भरत चक्रवर्ती ने कहा- बहुत अच्छा, परीक्षा हो गयी, तुम लोग पाप से विरत हो, व्रती हो, जीवदया रखते हो। त्रस जीवों के साथ-साथ स्थावर जीवों की भी रक्षा का भाव रखने वाला व्रती होता है। इसलिए उनका एक अलग ब्राह्मण-वर्ण बना दिया। महापुराण में जिनसेनाचार्य महाराज ने उल्लेख किया है कि समाज की व्यवस्था के लिए, उसके उत्थान के लिए ही सभी वर्ण बनाये गये हैं लेकिन अब सब कथन मात्र रह गया है। दया का पालन नहीं होता, संयम भी नहीं रहा, मात्र विषय कषायों के बहाव में सभी बहते जा रहे हैं, इसे ही विकास मान रहे हैं।
बंधुओ! ग्रन्थों के प्रकाशन या प्रचार-प्रसार अकेले से हमारा प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा। जिनवाणी के अनुरूप आचरण भी करना होगा, ग्रन्थ तो हमें निग्रन्थ होने के लिए प्रेरित करते हैं। वीतरागता की उपासना करने वाला, रत्नत्रय की आराधना करने वाला ही संस्कारवान है।
आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने समयसार के निर्जरा अधिकार में आत्मा को शुद्ध बनाने के लिए तीन गाथाओं में बहुत सुंदर ढंग से उल्लेख किया है, प्रक्रिया बतायी है, आत्मा के साथ लगे हुए रागद्वेष रूपी कर्म कालिमा को दूर करने के लिए यदि कोई रसायन है, कोई औषधि है तो वह सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान, सम्यक्र चारित्र रूप रत्नत्रय ही है, इस औषधि से भावित करके आत्मा को तप रूपी अग्नि में तपाया या संस्कारित किया जाता है, तब आत्मा परमात्मा बनती है, जिसे भी परमात्मा बनना है, उसे एक न एक दिन इसी प्रक्रिया को अपनाना होगा।
अपनी पुत्रवधू से सासुजी ने कहा कि बेटा, दही जमाना है। शाम होने से पहले एक भगौनी को साफ-सुथरा करके माँजकर के उसमें दूध को जामन डालकर रख देना। सुबह-सुबह घी तैयार करना है, पुत्रवधू ने हाँ कह दिया, सुबह उठकर जब सासु ने देखा दंग रह गयी, दूध जमा नहीं था, फट गया था, बात क्या हुई? दूध कैसे फट गया? बहू से पूछा कि क्या किया था? बर्तन ठीक से माँजा था कि नहीं? बहू ने कहा- माँ ठीक से माँजा था, देखो चमक रहा है। बर्तन ऊपर से चमक रहा था लेकिन भीतर ज्यों का त्यों था, अंदर से नहीं माँजा गया, यही चूक रह गयी।
बंधुओ! संस्कार डालना आवश्यक है, माँजना आवश्यक है, लेकिन संस्कार मात्र ऊपरऊपर से न डाले जायें, अन्यथा दूध भी चला गया, दही भी नहीं मिला, घी भी नहीं बन पाया, भीतरी संस्कार आवश्यक है, जिनवाणी के माध्यम से પદ્રવીર, સમવિર अपनी आत्मा को जो बाहर—भीतर सब तरह से रत्नत्रय के द्वारा संस्कारित करता है, माँजता है, वही अपने शुद्ध परमात्म-स्वरूप को प्राप्त कर लेता है। बाह्य शरीर को माँजने वाला कभी भी आत्म-स्वरूप को उपलब्ध नहीं कर सकता ।
अंत में इतना ही कहना चाहूँगा कि जिनवाणी माँ ही ऐसी माँ है जो अपने बेटे को हमेशा जगाती रहती है, मोहरूपी निद्रा में सोया हुआ यह जीव जिनवाणी माँ पर विश्वास करे तो आत्मविकास कर सकता है।
सच्चे देव-गुरु-शास्त्र की उपासना, धर्म की उपासना का एक मात्र लक्ष्य आत्म-कल्याण होना चाहिए। आत्म–उत्थान होना चाहिए।
वही अधिष्ठान है/सुख का मृदु नवनीत/जिसका पुन: मंथन नहीं है/वही विज्ञान है ज्ञान है निज रीत/जिसका पुन: कथन नहीं है/ और वही उत्थान है/ प्रिय संगीत जिसका पुन: पतन नहीं है।