आवश्यक विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- सामयिक के प्रति रुचि हो तो नींद आ नहीं सकती। रुचिपूर्वक आवश्यक करेंगे तो निर्जरा होगी अन्यथा कर्म निर्जरा का कोई साधन नहीं बनेगा। कर्म निर्जरा में कोई भी पीछे न रहे, इसमें आगे रहने का/बढ़ने का ही प्रयास करना चाहिए।
- जैसे भोजन थाली में विभिन्न व्यंजन अलग-अलग होते हैं, उनका स्वाद अलग-अलग आता है। उसी प्रकार प्रतिदिन षट् आवश्यकों का अलग-अलग आनंद लेना चाहिए। उत्साहपूर्वक ही संभव है। यह प्रफुल्लता के साथ होना।
- अनावश्यक में मन लगता है इसलिए तो आवश्यक में मन नहीं लगता।
- जिनको आवश्यक के दोषों का डर नहीं इसलिए उनकी आवश्यकों में निद्रा आदि आती है। आवश्यकों में अगर निद्रा आती है तो वह अनावश्यक हो गया। आवश्यकों में निद्रा के वशीभूत होने से भी वह अवश नहीं रहा अनावश हो गया। शरीर को ऐसी आदत में मत डालों।
- छह आवश्यकों में प्रमाद नहीं होना चाहिए।
- पहले निर्दोष सामयिक का प्रयास करना चाहिए उत्कृष्ट का नहीं।
- सामयिक के समय शुद्धात्मा का चिंतन कर ऊपर उठने का प्रयास करना चाहिए।
- आलोचना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान दूसरे के लिए नहीं अपने लिए होते हैं।
- उतना ही सीखो जो जन्म मरण के अभाव के लिए आवश्यक है। वही सीखने योग्य है जिसके द्वारा जन्म मृत्यु का क्षय हो जाता है।
- आवश्यकों में रत रहना भी बड़ी साधना है। ये पुण्य का उदय समझना।
- केवलज्ञान सामयिक में ही हुआ करता है भगवान जैसे बैठना शुरु कर दो। दृढ़ता और निष्ठा के साथ सामयिक करना चाहिए।
- आसमान को छूना आसान है लेकिन अंतर्मुहूर्त तक मन को स्थिर करना बहुत कठिन है। संसार में वश एक ही कार्य बचा है हम लोगों को करने को वह है समता सामयिक।
- सामयिक व्रत, व्रत शिरोमणि है क्योंकि सारे व्रतों में निर्दोषता इसी से आती है। निश्चय स्वाध्याय तप इसी में है।
- सभी विकल्पों का कारण यह देह है। अन्य व्रतों के साथ हमारा उपयोग बाहर रहता है लेकिन सामयिक के समय हमारा उपयोग अंतर्मुखी होता है।
- सामयिक अपनी ओर आने का सौभाग्य है।
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