तन मन को साधे, वह साधु है। लेकिन जो इनकी सेवा में लगा, तन को देखें और रस-नीरस, सुंदर-असुंदर के परिणाम करे, वह साधु होकर भी स्वादु है। स्वादु के लिए बाह्य साधनों में अच्छा पना दिखाई देता है, लेकिन सच्चे साधु को आत्म साधना में, आत्म आराधना में ही सार दिखाई देता है। परम पूज्य आचार्यश्री की दूरगामी दृष्टि हम जैसे साधकों को पावन प्रेरणा बन हमारा मार्ग प्रशस्त करती रहती है।
प्रसंग : एक प्रसंग कटंगी प्रवास 16 जून 2001 का है। प्रात: काल आचार्यश्री के साथ शौच क्रिया को गए थे। मौसम बारिश का था। जाते समय बारिश नहीं हो रही थी, बाद में बारिश होने लगी। लौटते समय हवा के साथ पानी आने से आचार्यश्री और हम लोग भीग गए। मंदिर में आने के बाद आचार्यश्री का कपड़े से प्रक्षाल किया गया। तभी कुछ देर आचार्यश्री मौन रहने के बाद बोले
'जहाँ देह अपनी नहीं, तहाँ न अपना कोय।'
फिर थोड़ी देर में बोले- 'देखो हम लोग इन पंक्तियों को पढ़ते हैं और दूसरों को सुनाते हैं, याद भी कर लेते हैं, लेकिन इन पंक्तियों के अनुसार पूर्णतया चल नहीं पाते।' बाद में पुनः गंभीरता में बोल- 'देखो वे मुनिराज, पूरा चातुर्मास एक वृक्ष के नीचे निकाल देते हैं, खड़े होकर या बैठकर ध्यान करते हैं। हम हैं कि कमरे में रहते हुए भी इसी विकल्प में लगे रहते हैं कि कहाँ चातुर्मास करना है? कब आएगा वह दिन जब हमें भी वैसा शरीर संहनन प्राप्त होगा? उत्तम संहनन प्राप्त करके हम भी वृक्ष के नीचे चातुर्मास कर सकें। बस यही भावना है।' सोचा- धन्य हैं गुरुदेव जिनके ऐसे भाव! इस पंचमकाल के आधुनिक युग में एक आध्यात्म ज्योति ने पुन: इस भारत वसुधा पर जिनशासन की महिमा को जन-जन को बताया।