सशक्त अवधारणाओं के माध्यम से आत्मविश्वास की एक ऐसी भावना का जन्म होता है जिसमें साधक को 'स्व' का लक्ष्य ही दिखाई देता है, मगर 'पर' में भी अपने आपको उलझा हुआ देखने का प्रयास करता है। वह अपने आत्मविश्वास को सदा विकसित करता रहता है और बाधक कारणों से अपने आपको दूर, बहुत दूर करता हुआ अपने साधक कारण के निकट, बहुत निकट होने का सदा पुरुषार्थ करता रहता है।
आचार्यश्री का प्रत्येक क्षण अपने आपको साधने का और लक्ष्य को पाने के लिए होता है, जो उनकी दिनचर्या से पता चलता है। उनके एक छोटे से संस्मरण में विशाल दृष्टिकोण छिपा है, जिसको सामान्य व्यक्ति आसानी से नहीं समझ सकता।
संस्मरण : बात कुंडलपुर सिद्धक्षेत्र 18 मार्च 2001 रविवार के दिन की है। आहार चर्या का समय हुआ, आचार्यश्री अपने कक्ष से उठे और बाहर खड़े हो गए। हम कुछ महाराजों ने अपना-अपना कमण्डल उठाया और आचार्यश्री का अनुशरण कर पीछे पहुँच गए। इतने में एक ब्रह्मचारीजी आचार्यश्री का कमण्डल लेकर आ गए। तभी हमने देखा आचार्यश्री अपने ही शरीर की छाया को बहुत गौर से देख रहे हैं।
आचार्यश्री से पूछा- 'आप कुछ देख रहे हैं? इतने ध्यान से क्या देख रहे हैं?' आचार्यश्री अपने चेहरे पर मुस्कान बिखरते हुए बोले- 'अब तो हम अपने आपकी छाया में बैठना चाहते हैं। लेकिन क्या करें, बैठ ही नहीं पाते।' तभी एक मुनिश्री ने पूछा- 'आप अपने आपकी छाया में बैठोगे कैसे? आपके दर्शन ही के लिए तो सभी लोग आते हैं। हम लोगों की पूछ तो आप से ही हैं।
आचार्यश्री- 'अरे महाराज! ऐसा नहीं है। गलत मत सोचो। अरे! तुम लोगों के कारण हमारी पूछ है।' मुनिश्री बोले- 'आप कह रहे हैं पर ऐसा नहीं है। हम लोग तो आपकी छत्रछाया में है, इसलिए सभी लोग हम लोगों को पूछते हैं।' आचार्यश्री- 'अगर ऐसा है तो मैं भी अपनी छाया को इसलिए देख रहा हूँ और सोच रहा हूँ जब आप लोग हमारी छत्रछाया में हो, तो मैं भी क्यों नहीं अपनी छाया में बैटू? हम अपनी छाया में बैठना चाहते हैं, और आप लोग भी अपनी-अपनी छाया में बैठा करो।'
आचार्यश्री का यह संस्मरण हम सभी साधकों को यह प्रेरणा देता है कि वे अपनी आत्म साधना करना चाहते हैं और हम लोग भी अपनी आत्म साधना करें। हमारा साधना का प्रयास अनवरत चलता रहे। आत्म विश्वास सदा उत्साहमय बना रहे तब लक्ष्य की प्राप्ति संभव है। धन्य है ऐसे गुरुवर जिनका प्रत्येक क्षण आत्मविश्वास और आत्म-विकास की भावना को लिए होता है।