सत्य और आत्मसत्ता का परिचय रखने वाला साधु अपने पास क्या रखना? क्या नहीं रखना? अपने मन में इसका सदा विचार करता रहता है। वह अपने पास स्वाध्याय हेतु शास्त्र भी रखता है तो कितने रखता है? उसे जितने आवश्यक हैं, उतने ही रखता है। पूज्य आचार्यश्री की जीवन चर्या में ऐसा सदा देखने को मिला। आचार्यश्री ने 17 मई 2001 बहोरीबंद में एक प्रसंग सुनाया
हमारा प्रवास श्री दिगंबर जैन सिद्धक्षेत्र द्रोणगिरी में था। उस समय दिल्ली से साहू शांतिप्रसादजी दर्शन करने आए। उसी समय जिनेन्द्रवणों के द्वारा संकलित-संपादित 'जैन सिद्धांत कोष' का प्रकाशन हुआ था। जिसे वे लेकर आए थे। प्रवचन के बाद उन्होंने हमें सभी भाग भेंट किये। हमने उनका अवलोकन किया। उनसे कहा- बहुत अच्छा पुरुषार्थ किया है। देखकर उन्हें वापस दे दिये। साहूजी बोले- नहीं महाराज! हम दिल्ली से ये आपके लिए ही भेंट करने लाए हैं। आचार्यश्री बोले- नहीं साहूजी, हम कहाँ रखेंगे। हमारे पास ग्रंथालय नहीं है। हम तो निर्ग्रथ हैं। ग्रंथ तो पढ़ते हैं पर अपने पास ग्रंथालय नहीं रखते हैं। हमें तो पढ़ने मिल जाए। एक बार पढ़ लिया फिर साथ में रखना जरूरी नहीं है।