मोक्षमार्ग के साधकों की साधना में सहायक बनना वैय्यावृत्ति कहलाती है। परस्पर एक-दूसरे को सहारा देना, साथ देना और साधना में उत्तरोत्तर वृद्धि हो इस प्रकार की भावना करना ही वैय्यावृति है। वैय्यावृत्ति स्व-पर दोनों की हुआ करती है। कैसे? स्व की वैय्यावृत्ति अपने आपको गुरुओं के बताए हुए मार्ग पर चलकर धर्म की प्रभावना और आत्मा की साधना में लगकर, अपने मन को निर्मल बनाए रखना यह स्वयं की वैय्यावृत्ति है। पर की वैय्यावृत्ति एक कोई आपका अपना साधर्मी जो साधना मार्ग पर चल रहा, लेकिन शारीरिक दृष्टि से या मानसिक रूप से शिथिल होता है, तो उसको तद्नुसार अनुकूल सहायता करना ही पर की वैय्यावृत्ति है। जिस समय जैसी सहायता की आवश्यकता हो, उसे उस समय वैसी ही अनुकूलता उपलब्ध कराना वैय्यावृत्ति है। परम पूज्य आचार्यश्री जी हम सभी-साधकों को इसी प्रकार की प्रेरणा देते हैं। अपने साधर्मियों का सहयोग करने को कहते हैं।
उदाहरण : बात छिंदवाड़ा 21 फरवरी 1998 की है। प्रात:काल आचार्य भक्ति के बाद इष्टोपदेश का पाठ हुआ। इसके बाद वैय्यावृत्ति को लेकर आचार्यश्री से पूछ तो आचार्यश्री ने कहा- 'संघ का निर्वाह एक व्यक्ति से नहीं होता है, एक-दूसरे के पूरक होकर ही संघ का निर्वाह हुआ करता है। जब हम एक-दूसरे के पूरक होकर वैय्यावृत्ति करते हैं तो वात्सल्य भाव बना रहता है। यदि एक साधक का दूसरे साधक के प्रति इस प्रकार का भाव नहीं हो तो हमारा ध्यान कौन देगा। संघ का निर्वाह गृहस्थों के द्वारा नहीं होता है, वे तो एक सीमा तक ही कर सकते हैं। हमारी भी एक सीमा होती है। इसलिए हमें सदा वैय्यावृत्ति के भाव बनाए रखना चाहिए। कल हमारे लिए भी किसी के सहयोग की जरूरत पड़ जाए, इसलिए हमें भी दूसरे का सहयोग करते रहना चाहिए।'
एलोपेथी होम्योपेथी नहीं संत के पास |
और दावा की भी नहीं करते वहे आश ||
सिम्पेथी इन सबसे बहेतर जो,
संत ह्रदय में करती सदा निवास ||