स्वाध्याय से प्रमाद करना अपने आत्मज्ञान के क्षेत्र से विमुख होना जेसा हैं | ऐसे विमुख हो चले साधको को सच्चा समीचीन मार्ग बताने वाले वर्तमान में परम पूज्य आचार्य श्री जी हैं | जो हमेशा साधको की गलती का अहेसास करते रहेते हैं | एक प्रसंघ इसी संधर्भ मे -
बात बिना बहरा अतिशय क्षेत्र की है | 18 मार्च 1998 गुरुवार का दिन था | प्रतिदीन के अनुसार उस दीन भी षट्खंडगम ग्रंथराज की पाँचवीं पुस्तक का स्वाध्याय आचार्यश्री हम सभी साधकों को करा रहे थे। इस ग्रंथ का स्वाध्याय प्रारंभ करने के पहले बोलते कि स्वाध्याय विनय एवं शुद्ध मन से करना चाहिए।
एक दिन एक मुनिराज अपना ग्रंथ लकड़ी को सामने लगाकर, बेंच पर सीधे रखे हुए थे। अचानक उनके प्रमाद से ग्रंथ नीचे गिर गया, आवाज हुई। आचार्यश्री की दृष्टि उनकी ओर गई और बोले 'क्यों, क्या हुआ?' मुनिराज जी हँसते हुए बोले- 'लकड़ी खिसक गई इसलिए ग्रंथ खिसक गया।' आचार्यश्री बोले- 'पहले तो अविनय हुई, कायोत्सर्ग करो।' फिर डाँटते हुए बोले- "ये क्या सेटों जैसा पढ़ने की आदत बना ली। क्या यह ठीक है? ऐसा ग्रंथ रखा जाता है क्या? ऐसा पढ़ोगे तो इन आँखों पर क्या असर पड़ेगा।' फिर हँसते हुए बोले-'ये आँख अब तुम्हारी नहीं है, हमारी है। तुम्हें सुरक्षा करना है। इस प्रकार स्वाध्याय नहीं होता है। 'ये धवला या षट्खंडगम ग्रंथ महान ग्रंथ है। ग्रंथराज है। हमारा परम सौभाग्य है, आज जो इस ग्रंथ का हम स्वाध्याय कर रहे हैं। इस ग्रंथ के दर्शन के लिए पहले के विद्वान लोग तरसते थे। आज हमें सहजता से मिल रहे हैं, तो हम इनको विनय के साथ रखें व उठाएँ। विनय एवं विशुद्धि पूर्वक पढ़ना चाहिए।' ऐसा कहकर पुन: स्वाध्याय प्रारंभ हो गया। क्लास पूरी होने के बाद भी उन मुनिराज को बुलाकर एकान्त में कुछ निर्देश दिए।