जिसका लक्ष्य अपने आपको पाना हो, तो वह बाहर पद प्रतिष्ठा, मान-सम्मान पत्र या भाषण संबोधन से उसको कोई लेना-देना नहीं होता है। इसका जीवन्त उदाहरण हैं परम पूज्य आचार्यश्रीजी के इस प्रसंग से। बात 31 मार्च 2002 की विदिशा की है।
प्रसंग : प्रवचनोपरांत आचार्यश्री गमन कर विदिशा के ही रेलवे स्टेशन के निकट स्थित जैन मंदिर आ गए। आचार्य भक्ति के बाद शाम को हम सब उनके पास ही बैठे थे। तभी हमारे बीच से ऐलक जी ने आचार्यश्री से कहा- 'वर्तमान में आपको प्राय: सभी समाज जन तीर्थंकर समान मानते हैं। आज की सभा में भी अनेक वक्ताओं ने आपको 'भगवान महावीर सम' कहा है।
मेरा प्रश्न है कि जब समाज जन आपको तीर्थंकर या महावीर सम कहते हैं तब आपको उस समय कैसा लगता है? आप स्वयं कैसा अनुभव करते हैं?' आचार्यश्री के मुख पर एक मंद स्मित रेखा खिल गई। उन्होंने हम सब की ओर गहरी दृष्टि से देखा। फिर बोले- 'मैं तो एक दिगंबर जैन मुनि हूँ उस समय और हर समय मैं स्वयं को मुनि ही समझता हूँ। इस समय भी मुनिपने का अनुभव कर रहा हूँ। किसी के कहने से कोई तीर्थंकर या महावीर नहीं हो जाता। महावीर होने के लिए तो बहुत पुरुषार्थ करना पड़ता है और उस पुरुषार्थ के लिए एक न एक दिन अपरिहार्य रूप से उत्तम संहननधारी परम तपस्वी मुनि होना होता है। अभी तो बस मैं मुनि हूँ और वही मुनिपने का अनुभव कर रहा हूँ। हाँ! महावीर की तरह सिद्धत्व पाना मेरा लक्ष्य अवश्य है। आप सबका भी यह लक्ष्य होना चाहिए। किसी के द्वारा दी गई किसी पदवी के मान से पूरी तरह अलिप्त...।"
Edited by संयम स्वर्ण महोत्सव