सूर्य का प्रकाश बाह्य जगत को और ज्ञान का आलोक भीतर के अज्ञान अंधकार को दूर करता है। सूर्य की ही तरह ज्ञान-सूर्य भी जब कर्म-प्रेरित अज्ञान के बादलों की ओट में आ जाता है तो उसकी आत्मा, उसकी प्रकाशक शक्ति भी छिप जाती है। इसमें दोष ज्ञान या सूर्य का नहीं है, अपितु अज्ञान या बादलों का है। साधक हमेशा अज्ञान की परिधि को दूर हटाने और अपनी आत्म निधि को प्रकट करने की ओर दृष्टि रखता है साथ ही अज्ञान के कारणों से दूर रहता है। आचार्यश्री का जीवन ऐसे ही साधकों में से एक है। जो स्वयं आत्म प्रकाश में रहते हैं और दूसरों को भी प्रकाशित होने को प्रेरित करते हैं।
प्रसंग : 1 फरवरी 1997 नानपुरा (सूरत) का है। प्रात:काल आचार्य भक्ति के बाद चर्चा हुई और चर्चा का विषय बना कि "ग्रंथ और निग्रथ का क्या संबंध है?" आचार्यश्री बोले 'आज बहुतायत से हो रहे ग्रंथों के प्रकाशनों को देखकर ऐसा लगता है कि अब ग्रंथों के प्रति विनय ही नहीं रही। जिनवाणी के प्रति वह आदर-भाव, वह विनय नहीं रही। आज प्रकाशन प्रतिष्ठा के विषय होते जा रहे हैं, आत्मनिष्ठ के नहीं।' साधु के लिए ग्रंथ तो ठीक है, लेकिन ग्रंथमाला को खोलना ठीक नहीं है। ग्रंथ परिग्रह का कारण नहीं है। इसलिए निर्ग्रथ वही जो ग्रंथ से तो जुड़े, लेकिन ग्रंथमाला के चक्कर में न पड़े। क्योंकि ग्रंथमाला जो होती है वह ग्रंथि का काम करती है। ग्रंथ ही ग्रंथि का कारण बन जाए तो इस निग्रथ मार्ग का क्या होगा? यह एक विचारणीय बात है अत: इस ओर दृष्टि होना चाहिए। जिससे प्रकाश मिलता है यदि वही अंधकार में हो जाए तो मार्ग ही दूषित हो जाएगा।
लो देखिये दिए की ज्यों हाथ हों जुड़े |
कितने विनम्र ज्योति के दाता हमें मिले ||