आदमी की सोच और देखने का नजरिया यदि अच्छा है तो बुराई में भी अच्छाई को देख लेता है। वह प्रतिकूलता में भी अनुकूलता खोज लेता है, बना लेता है। जिसके पास यह गुण है उस व्यक्ति की महानता का सहज ही परिचय हो जाता है, क्योंकि महानता आदमी की बाहरी चमक-दमक वेशभूषा या आभूषणों से नहीं आंकी जाती है, वह तो उसकी आंतरिक भावना, भाषा व आचरण से ही देखी जाती है। यह गुण पूज्यवर आचार्यश्रीजी की चर्या विचार और चारित्र में हमें देखने को निरंतर ही मिलता है। उन्हीं का एक पावन प्रसंग।
प्रसंग : बंडा जिला- सागर (म.प्र.) का प्रसंग : 15 फरवरी 2002 शुक्रवार का दिन आचार्यश्री दोपहर की सामायिक के लिए आवर्त करके बैठे, तभी एक मुनिराज ने कहा- ‘यह तखत गड़बड़ है। बीच में अंतर बहुत है, आपको बैठने में तकलीफ होती होगी।' आचार्यश्री बोले- 'क्या तकलीफ होती होगी?' मुनिराज ने कहा- 'मेरा आशय शारीरिक तकलीफ से है, आत्मा में तो तकलीफ ही नहीं होती है।'
आचार्यश्री बोले- 'आज तक हम यही तो देखते आए हैं, ये खराब, वो खराब, हमेशा बाहर की ओर ही दृष्टि रही, इन सब बाहरी निमित्तों को भूलकर अपने आत्म द्रव्य को याद रखते तो कब का केवलज्ञान प्राप्त हो जाता।' मुनिराज ने सविनय कहा- 'आचार्यश्रीजी ! बाहरी साधन भी तो अनुकूल होना चाहिए, क्योंकि बाहरी निमित भी हमारी साधना में सहयोगी होते हैं।' आचार्यश्री- 'कौन कहता नहीं होते, होते हैं, पर हम उसे ही अपनी साधना का साधन मान लें, यह ठीक नहीं। निमित्त को निमित जानो, उसमें अच्छ बुरा यह राग-द्वेष मत करो।' इसके बाद आचार्यश्री सामायिक में लीन हो गए। ऐसी सोच हम सब में भी विकसित होना चाहिए।
निज को जाने गुरुवरा, पर की कर पहेचान |
ज्ञान ध्यान में नित रमे, गुरुवर कृपा निधान ||